अनिल चमड़िया
जनसत्ता, 9 जनवरी, 2014
उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में शिविरों में रहे दंगा-पीड़ितों के बारे में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वे लोग भविष्य में कहां जाएंगे। देश भर में पहले से ही एक प्रक्रिया चल रही है कि हिंदुओं के संख्याबल वाले इलाके में रहने वाले मुसलमान वैसी जगह पर जाना खुद की सुरक्षा के लिए बेहतर समझते हैं, जहां गैर-हिंदू और खासतौर से मुसलिम आबादी रहती है। कई सर्वेक्षणों में यह बात भी साबित हुई है कि हिंदू संख्याबल वाले इलाके में मुसलमानों को किराए पर घर मिलना लगभग असंभव-सा होता है। जब भागलपुर में मुसलिम-विरोधी दंगे हुए थे तब वहां कई नए मुसलिम नाम वाले गांव या टोले बन गए। एक शोधार्थी नीरज कुमार ने इस तरह की जगहों की एक लंबी सूची तैयार की है।
गुजरात में जहां हमले-दर-हमले हुए, वहां भी मुसलिम इलाकों में सुरक्षा की गरज से एक बड़ी आबादी को खिंच आई। अमदाबाद में तो स्थानीय निकाय को साबरमती रिवरफ्रंट परियोजना के तहत बसाने की कार्रवाई के दौरान हिंदू और मुसलमान, दोनों समुदायों के लगभग आठ हजार परिवारों ने कहा कि उन्हें एक साथ नहीं रहना है। पूरे देश में सामाजिक विभाजन की जो सांप्रदायिक प्रक्रिया चल रही है, उसमें पहले के गांवों और मुहल्लों का एक नया विस्तार दिखाई दे रहा है। गांव में अछूत या हरिजन टोला है। जिन्हें आज की भाषा में दलित कहा जाता है उन्हें ‘मुख्यधारा’ से बहिष्कृत रखा जाता था।
भारतीय समाज में बहिष्कार को एक सजा के तौर पर लागू किया जाता रहा है। बहिष्कार का अर्थ यह माना जाता है कि समाज में जो वर्चस्व की स्थिति में रहता है वह किसी व्यक्ति, जाति-समूह को बहिष्कृत कर उसका जीना हराम कर सकता है। दलितों के बहिष्कार की घटनाएं 1971 के आसपास बड़े पैमाने पर हुई थीं। उस दौरान की कुछ खबरों पर निगाह डाली जा सकती है। 26 मार्च, 1971 को, द टाइम्स आॅफ इंडिया की खबर के मुताबिक, कर्नाटक के एक सरपंच ने हरिजनों (तब यही शब्द प्रचलन में था) का सामाजिक बहिष्कार किया। पंजाब में एक पंचायत ने अपने आदेश में कहा कि हरिजनों के घरों को गांव के बाकी हिस्सों से अलग करने के लिए दीवार खींच दी जाए। 21 जून, 1971 को ‘पैट्रियाट’ में छपा कि उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के एक गांव में पंद्रह हरिजन परिवार स्थानीय भूस्वामियों के आतंक से गांव छोड़ कर भाग गए। अठारह साल के हरिजन लड़कों की कुछ खास तरह के काम करने में रुचि खत्म हो रही है जिससे हरिजन बस्ती भूपतियों के गुस्से का शिकार होती है। उन्होंने हरिजनों को गोली मार देने की धमकी दी, तब बचने के लिए हरिजनों के पंद्रह परिवार राजधानी में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने और मुआवजे के लिए तीन मूर्ति के बाहर अभियान चलाने आए।
इस तरह की घटनाओं को एक लंबी प्रक्रिया से जोड़ कर देखा जाना चाहिए। यहां हरिजनों के सामूहिक बहिष्कार की स्थितियां देखी जा रही हैं। एक दलित की हत्या, बहिष्कार और उत्पीड़न आदि से पहले जो समाज में वर्चस्व रखने वाली ताकतों और विचारों का काम चल जाता था, वह 1947 के कुछेक वर्षों बाद सामूहिक हत्या, उत्पीड़न और बहिष्कार के रूप में सामने आता दिखने लगा। बिहार में सामूहिक हत्याओं के दौर को भी यहां याद किया जा सकता है। कहा जाए कि समाज के वंचित हिस्सों में जैसे-जैसे संगठित होने और सामूहिक तौर पर लड़ने की चेतना का विस्तार हुआ, वैसे ही वर्चस्ववादी समूहों के संगठित हमलों और उनकी आक्रामकता में इजाफा होता गया।
दलितों के संदर्भ में दो तरह की स्थितियां देखी जा रही हैं। जहां दलित राजनीतिक स्तर पर संगठित हुए, वहां सामूहिक बहिष्कार और हत्याओं के जवाब मिलने की आशंका में वे क्रमश: कम होती गर्इं। लेकिन दूसरी तरफ जहां दलितों के बीच राजनीतिक संगठन क्षमता विकसित नहीं हो सकी, वहां सामूहिक हमले और उत्पीड़न की स्थितियां बनी रहीं। मसलन, हरियाणा को ले सकते हैं। हरियाणा में 2000 के पहले दशक तक भी सामूहिक बहिष्कार, हत्या या दलितों के गांव छोड़ कर भागने की कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं।
एक खास बात यह भी रही है कि हरियाणा में कई घटनाओं के बाद जिन दलित परिवारों ने अपने गांव को छोड़ा वे अपने गांव वापस आने और सुरक्षित होने का भरोसा प्राप्त नहीं कर सके। जहां गए वहीं बस गए। हरियाणा में चूंकि दलित एक राजनीतिक ताकत के रूप में संगठित नहीं हो सके हैं इसीलिए वहां राजनीतिक स्तर पर जो पहल की जाती रही है वह उजड़ने के बाद उन्हें राहत देने तक सीमित रही है। राज्य में राजनीतिक दलों के बीच वहां वर्चस्व रखने वाली जातियों और उनके विचारों का समर्थन हासिल करने की होड़ रहती है।
इसे मुसलिम बहिष्कार, उत्पीड़न या हत्याकांडों के विविध आयामों को समझने के लिए एक पृष्ठभूमि के तौर पर लिया जाना चाहिए। एक तो इस पहलू पर अध्ययन किया जाना चाहिए कि जहां दलित उत्पीड़न होते रहे हैं, क्या वे हाल के वर्षों में मुसलिम उत्पीड़न के केंद्र बन रहे हैं? मुजफ्फरनगर और उसके आसपास के इलाकों में भी दलित उत्पीड़न का एक लंबा इतिहास रहा है। दरअसल, सांप्रदायिक दंगे कह देने से उत्पीड़न के कई पहलू सोच-विचार के दायरे से बाहर हो जाते हैं।
देश के मुसलमानों के बारे में एक तथ्य लगभग स्वीकार किया जा चुका है कि इस्लाम को मानने वाली यह आबादी वह है जो कि वर्णवाद के तहत गैर-बराबरी और उत्पीड़न से तंग आ चुकी थी। दूसरे, मुसलिम आबादी का अधिकतर हिस्सा आर्थिक और सामाजिक स्तर पर कमजोर और राजनीतिक स्तर पर पराधीन जातियों का है। जब हम दलितों के खिलाफ हमलों में बढ़ती क्रूरता के कारण पहचानते हैं तो मुसलिम-विरोधी हिंसा के उस आयाम को समझने से क्यों चूकते हैं! वास्तव में सांप्रदायिक हमला बहिष्कार का ही एक क्रूरतम रूप है।
अगर दलितों के नरसंहारों, सरकारी मशीनरी के संरक्षण में दलितों के खिलाफ हमलों, निजी सेनाओं के गठन आदि पर गौर करें तो फर्क केवल यह दिखता है कि उन हमलावरों, हमले के कारणों आदि को केवल भिन्न शब्द दे दिए गए हैं। जिस तरह से हरियाणा में अपने गांव से उजड़े दलितों को केवल मुआवजा आदि के रूप में राहत देने की राजनीतिक पार्टियां पहल करती हैं, उसी तरह से हाल के वर्षों में सांप्रदायिक उत्पीड़न के शिकार समूहों को भी राहत देने और श्रेय लेने की होड़ राजनीतिक पार्टियों के बीच दिखती है। मुजफ्फरनगर और आसपास के इलाकों में जो मुसलिम परिवार उजड़े हैं उन्हें कोई भी राजनीतिक पार्टी और पूरी राज्य व्यवस्था यह भरोसा नहीं दिला सकी है कि वे अपने गांव निश्चिंत होकर लौट सकते हैं।
एक दूसरे पहलू पर भी गौर करें कि जैसे-जैसे मुसलिम विरोधी हमले बढ़ रहे हैं, वहां वर्चस्ववादी समूहों के खिलाफ दलितों की राजनीतिक चेतना दूसरी दिशा में भटक रही है। मुजफ्फरनगर में कुछेक दलित परिवारों के भी गांव छोड़ने की घटना की चर्चा इस रूप में की गई कि वे मुसलिम सांप्रयिकता के शिकार हुए हैं। उनके अनुसार दलित हिंदू होने के कारण सांप्रदायिकता के शिकार हुए। भागलपुर में भी कुछेक दलित गांव छोड़ गए थे। तब दलित हिंदू दृष्टिकोण नहीं था।
वास्तव में यह सांप्रदायिकता के संदर्भ में एक राजनीतिक नजरिये के विस्तार का एक पहलू है। संसदीय राजनीति में जो होड़ चल रही है वह वर्चस्ववादी समूहों और विचारों का समर्थन हासिल करने की है। लिहाजा, इस समय वंचना की राजनीति को तोड़ना संसदीय राजनीति की पहली जरूरत बन गई है।
मायावती जब चुनाव हारीं तो उन्होंने कहा कि मुसलमानों ने उन्हें वोट नहीं दिया। दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम में यह दिखाने की कोशिश की गई कि सुरक्षित सीटों पर आम आदमी पार्टी के पक्ष में वोट पड़े, जबकि मुसलमानों ने उसे वोट नहीं दिया। इस सब से पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान मुलायम सिंह यादव ने दलित-विरोधी और मुसलिमपक्षीय होने का एक मजबूत संदेश दिया था। दरअसल, संसदीय राजनीति में मुसलिम और दलित के बीच एक सांप्रदायिक दीवार खड़ी करने की कोशिश साफ तौर पर दिखती है।
यह गौरतलब है कि अपने शासनकाल में भारतीय जनता पार्टी यह दावा करती रही कि उसे देश में सबसे ज्यादा वंचित माने जाने वाले आदिवासियों का सबसे ज्यादा समर्थन हासिल है। उस दावे के आधार में भाजपा आदिवासियों के लिए सुरक्षित सीटों पर मिली चुनावी कामयाबी का हवाला देती रही है। लेकिन उसी भाजपा के शासन वाले राज्यों में आदिवासियों के सबसे ज्यादा दमन और उन पर हमले की घटनाएं भी सामने आई हैं। इससे यह समझा जा सकता है कि सांप्रदायिकता की आड़ में वंचितों के खिलाफ हमले और बहिष्कार के जो विचार सक्रिय रहे हैं, उन्हें एक तरह की सुरक्षा मिल जाती है।
ऐसे हमलों के लिए एक आड़ की जरूरत होती है। दलितों के खिलाफ जब-जब हमले हुए हैं तब-तब उन्हें उग्रवादी संगठनों और उग्रवादी संगठनों के विदेश से जुड़े होने का प्रचार किया गया। जब कम्युनिस्ट पार्टी लड़ती थी तब उसे देशद्रोही कहा जाता था। मुसलमानों को पाकिस्तान समर्थक, आइएसआइ के एजेंट आदि के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। एक दौर में लड़ने वाला दलित नक्सलवादी करार दिया जाता था, जैसे आज आदिवासी माओवादी करार दिया जाता है।
मुसलमानों के आतंकवादी होने के आम प्रचार को इसे भी ध्यान में रख कर परखना चाहिए। वंचित समाज और वर्चस्ववादी समाज के बीच एक संघर्ष होता है। एक वंचना की स्थिति से बाहर निकलने की कोशिश करता है और दूसरा अपने वर्चस्व को बनाए रखने की। इसमें वर्चस्ववादी समूह के लिए तमाम तरह की आड़ लेने की स्थितियां मौजूद होती हैं। देश में जो सांप्रदायिक स्थितियां बन रही हैं उन्हें इस परिप्रेक्ष्यमें देखने की जरूरत है।
09 जनवरी 2014 स्रोतः दैनिक जनसत्ता
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