ऐमन रियाज़, न्यु एज इस्लाम
18 जुलाई, 2012
(अंग्रेजी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
हमारे लिए ये स्वीकार करना ज़रूरी है कि सियासी इस्लाम, उग्रवाद को हराना बहुत ज़रूरी है। मुस्लिम दुनिया से कट्टरपंथ किसी न किसी तरह खत्म हो जाएगा, की आशा नहीं रखनी चाहिए। राजनीतिक इस्लाम के साथ जिसका असर दुनिया के कुछ हिस्सों में अहम है, , बातचीत ज़रूरी है, जबकि उग्रवाद को समर्थन देने वाले इस्लाम के साथ बातचीत नहीं हो सकती है। आतंकवाद पर काबू पाने का सबसे अच्छा तरीका ये है कि इसका सामना किया जाये। अगला कदम उसे बार बार पैदा होने से रोकने का होना चाहिए। इस तरह मुसलमानों के लिए ऐसा भविष्य सुनिश्चित करना ज़रूरी है जो गरीबी, अशिक्षा और भ्रष्टाचार से मुक्त हो। आतंकवादी गुटों के लिए समस्याओं से जूझ रहे क्षेत्र हमेशा लाभदायक साबित होते हैं ........ ये दो भाग वाले लेख का आख़िरी हिस्सा है।
"इस्लाम, विचारधारा और विश्वास, देश और राष्ट्रीयता, जाति और राज्य, आत्मा और कार्रवाई, किताब और तलवार है।"
- हसन अलबाना, 1934
धर्म और आतंकवाद के बीच संबंध नया नहीं है। 2 हजार साल पहले, जिसे अब हम आतंकवाद कहते हैं, की पहली कार्रवाई धार्मिक चरमपंथियों द्वारा की गयी थी। शब्द "ज़िलट (चरमपंथी)" जिसका हमारे लिए अर्थ "कठोर समर्थक" या "आतंकवादी" है। इसको मसीह की एक हजार साल के शासन में विश्वास रखने वाले यहूदी समुदाय में खोजा जा सकता है जो वर्तमान समय के इसराइल पर रोमन साम्राज्य के कब्जे के खिलाफ 66-73 ई. में युद्ध लड़ रहा था। शब्द "असासिन (हत्यारे)"- "धोखे से किसी की हत्या करना"- मुसलमान शिया इस्माइली समुदाय की एक आतंकवादी शाखा का नाम था जो 1090 ई. और 1272 ई. के बीच सीरिया और ईरान पर सलीबी जंग करने वालों को क़ब्जा करने से रोकने के लिए लड़ रहा था।
धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर) आतंकवाद
आतंकवाद पूरी तरह या आंशिक रूप से धार्मिक कारणों से प्रेरणा पाता है, और उस पर अमल करने वाले हिंसा को पवित्र कर्तव्य या पवित्र रस्म मानते हैं और आतंकवाद के लिए धर्मनिरपेक्ष आतंकवादियों द्वारा किए जाने वाले वादे की तुलना में इस्लामी चरमपंथी विभिन्न प्रकार के औचित्य और उचित कारण पेश करते हैं और यही विशिष्टता उन लोगों को अधिक खून खराबा करने और तबाही फैलाने की ओर ले जाती है।
19वीं सदी तक आतंकवाद के लिए केवल धर्म ही एक कारण के रूप में पेश किया जाता था। उस समय की कई राजनीतिक प्रगति जो उस अवधि के लोगों को प्रेरणा देने के कारण अस्तित्व में आईं, और विभिन्न कट्टरपंथी राजनीतिक विचारधाराओं जैसे मार्क्सवादी विचारधारा, अराजकता और विनाशवाद की बढ़ती लोकप्रियता को गले लगाने से आतंकवाद धार्मिक रुझान से धर्मनिरपेक्ष रुझान में पूरी तरह बदल गया।
आधुनिक धार्मिक आतंकवाद के दोबारा उभरने को प्रारंभिक तौर पर ईरान की इस्लामी क्रांति से जोड़ा गया था। इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए कि शीत युद्ध के बाद के दौर में धर्म आतंकवाद के लिए प्रोत्साहन का सबसे लोकप्रिय माध्यम बन गया, क्योंकि सोवियत संघ और कम्युनिस्ट विचारधारा के खात्मे के साथ ही पुराने दृष्टिकोण झूठे साबित हो गए। जबकि पूरी दुनिया में कई देशों में उदारवादी लोकतांत्रिक और पूँजीवादी व्यवस्था से होने वाले बड़े लाभ के वादे ठोस परिणाम प्राप्त करने में अब तक नाकाम रहे हैं।
इस्लामी उद्देश्यों के लिए की जाने वाली आतंकवादी घटनाओं के नतीजे में होने वाली अधिक मौतों के कारणों को विभिन्न मूल्य प्रणालियों, औचित्य साबित करने का तंत्र और इस्लामी आतंकवादियों और उनके धर्मनिरपेक्ष समकक्षों के द्वारा अपनायी गयी नैतिकता की अवधारणाओं में पाया जा सकता है।
इस्लामी उग्रवादियों के लिए हिंसा पवित्र रस्म या पवित्र कर्तव्य है जिस पर कुछ धार्मिक मांगों या आवश्यकताओं के कारण अमल किया जाता है। इस तरह इस प्रकार का आतंकवाद बुद्धि से परे आयाम को अपने में शामिल करता है, इसलिए इस पर अमल करने वाले अक्सर राजनीतिक, नैतिक या अन्य व्यवहारिक रुकावटों की अनदेखी करते हैं जो अन्य व्यक्तियों को प्रभावित कर सकता है।
विभिन्न विचार
इस्लामी उग्रवादी और धर्मनिरपेक्ष आतंकवादी अपने और अपनी हिंसक गतिविधियों के बारे में विभिन्न विचार रखते हैं। धर्मनिरपेक्ष आतंकवादी, एक व्यवस्था को मजबूत करने के माध्यम के रूप में हिंसा का इस्तेमाल करते हैं। इस्लामी उग्रवादी खुद को बनाए रखने के योग्य किसी व्यवस्था के हिस्से के रूप में नहीं बल्कि एक "बाहरी" के रूप में देखते हैं और वर्तमान व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन करना चाहते हैं।
अलगाव का ये एहसास होना इस्लामी उग्रवादियों को धर्मनिरपेक्ष आतंकवादियों की तुलना में अधिक विनाशकारी और घातक प्रकार की आतंकवादी कार्रवाई पर विचार करने के लिए सक्षम बनाता है। और बेशक हमले के लिए "दुश्मनों" की सूची में ये उन सभी लोगों को शामिल करता है जो इस्लाम के मानने वाले नहीं हैं या किसी विशेष समुदाय से संबंध नहीं रखते हैं। ये "पवित्र आतंकवाद" की आम बयानबाजी को स्पष्ट करता है जो इस्लाम से बाहर के लोगों को अपने घोषणापत्र में "काफ़िर", "कुत्ते" "सुअर" "बंदर" और "शैतान की औलाद" कहते हैं। इस तरह की शब्दावली का जानबूझकर इस्तेमाल आतंकवाद को नज़रअंदाज़ करने और उसका औचित्य पेश करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये इस्लामी उग्रवादियों को अमानवीय या जीवित न रहने योग्य होने के तौर पर पेश कर हिंसा और खून खराबे की सारी सीमाओं को समाप्त करता है।
उलेमा की भूमिका और कोई समझौता नहीं
आतंकवादी कार्रवाइयों को मंजूरी देने में धार्मिक प्राधिकरण की भूमिका हमेशा शिया और सुन्नी दोनों संगठनों के लिए महत्वपूर्ण रही है। इस संबंध में सलमान रुश्दी पर मौत की सज़ा लागू करने वाला ईरान के आयतुल्ला खुमैनी का फ़तवा एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। इसी तरह से 1993 में न्युयॉर्क शहर में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर बमबारी करने वाले सुन्नी चरमपंथियों ने हमले की योजना से पहले ही शेख उमर अब्दुल रहमान से इसके बारे में फतवा हासिल किया था।
इस्लामी उग्रवादी, कट्टरपंथी संगठन अपने संघर्ष को समझौता न करने वाले के तौर पर पेश करते हैं। 1990 के दशक में अल्जीरिया में इस्लामी गणतंत्र स्थापित करने के लिए आंदोलन चलाने वाले एक नेता अन्तार ज़ाऊबरी के अनुसार, उनके संगठन की ओर से अवैध और धर्मनिरपेक्ष सरकार के खिलाफ संघर्ष में कभी बातचीत या संघर्ष विराम नहीं हो सकता है। उसकी दलील थी कि खुदा के शब्द परिवर्तित नहीं होने वाले हैं। ख़ुदा बातचीत या बहस में व्यस्त नहीं होता है।
इमाम शेख अहमद इब्राहिम यासीन ने कथित तौर पर घोषणा किया है कि "हमास की जंग केवल इजरायल के खिलाफ नहीं है, बल्कि सभी यहूदियों के खिलाफ है। साठ लाख बंदरों की औलादें [यानी यहूदी] अब दुनिया के सभी देशों में शासन कर रहे हैं, लेकिन उनका भी दिन आएगा। अल्लाह किसी एक को छोड़े बिना इन सबको मार डाले।"
निष्कर्ष: बातें नहीं काम करें
मैंने अपने पिछले कई लेखों में से किसी एक में लिखा है कि "गलत या कमजोर विचारों को सिर्फ एक सही या उच्च विचार से समाप्त किया जा सकता है"। लेकिन हम किसी ऐसे व्यक्ति से कैसे सही दृष्टिकोण का आदान प्रदान कर सकते हैं जो इतना अंधा हो कि नई चीजों को भी न देख सकता हो? या हम किसी ऐसे व्यक्ति से कैसे बात कर सकते हैं जो बातचीत नहीं करना चाहता हो?
हमारे लिए ये स्वीकार करना ज़रूरी है कि सियासी इस्लाम, उग्रवाद को हराना बहुत ज़रूरी है। मुस्लिम दुनिया से कट्टरपंथ किसी न किसी तरह खत्म हो जाएगा, की आशा नहीं रखनी चाहिए। राजनीतिक इस्लाम के साथ जिसका असर दुनिया के कुछ हिस्सों में अहम है, , बातचीत ज़रूरी है, जबकि उग्रवाद को समर्थन देने वाले इस्लाम के साथ बातचीत नहीं हो सकती है। आतंकवाद पर काबू पाने का सबसे अच्छा तरीका ये है कि इसका सामना किया जाये। अगला कदम उसे बार बार पैदा होने से रोकने का होना चाहिए। इस तरह मुसलमानों के लिए ऐसा भविष्य सुनिश्चित करना ज़रूरी है जो गरीबी, अशिक्षा और भ्रष्टाचार से मुक्त हो। आतंकवादी गुटों के लिए समस्याओं से जूझ रहे क्षेत्र हमेशा लाभदायक साबित होते हैं।
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