ऐमन रियाज़, न्यु एज इस्लाम
26 मई, 2012
(अंग्रेज़ी से तर्जुमा- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
इस्लामाबाद पालिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (IPRI) की तरफ़ से मुनाक़िद एक बैनुल अक़वामी सेमिनार में माहिरीन ने इस बात पर इत्तेफ़ाक़ किया कि मुसलमानों के ख़िलाफ़ जाबिराना और उनको दबाने वाली कार्रवाई इन्फ़िरादी तौर पर मुसलमानों को अपने मक़ासिद के हुसूल के लिए असलहा और तशद्दुद का रास्ता अख़्तियार करने की हौसला अफ़्ज़ाई करता है। इस सेमिनार में इस पर भी बात हुई कि किस तरह इस्लाम के ख़िलाफ़ तास्सुब को ख़त्म किया जाय।
शायद वो इस बात को एहसास करने में नाकाम रहे कि इस्लाम के ख़िलाफ़ तास्सुब तब तक ख़त्म नहीं होगा जब तक कि अल्लाह और मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के नाम पर दहशतगर्दी ख़त्म नहीं हो जाती।
बहुत सी इस्लामी दहशतगर्द तंज़ीमें अपनी कार्रवाईयों के जवाज़ के तौर पर कहते हैं कि वो मज़लूम हैं और इस वजह से अब उनका वाहिद मक़सद है ज़ालिमों के ख़िलाफ़ बदला लेना। बज़ाहिर ये दलील दरुस्त लगती है और ये न्युटन के तीसरे लॉ पर भी अमल करता है, जिसके मुताबिक़, हर अमल का इस के मसावी और मुख़ालिफ़ रद्दे अमल होता है। लेकिन जारहीयत की ताज़ा तरीन और सबसे ज़्यादा ताक़तवर थ्योरी, जनरल एग्रेशन मॉडल (GAM) , के मुताबिक़, उनकी दलील में दम नहीं है।
ये थ्योरी कहती है कि वाक़ियात जो आख़िर में वाज़ेह जारहीयत की तरफ़ ले जा सकते हैं, उनकी शुरूआत दो अहम इक़्साम के ज़रीये हो सकती है:
(1) मौजूदा सूरते हाल से मुताल्लिक़ अवामिल (मवाक़ेआती अवामिल)
(2) मुलव्विस अफ़राद से मुताल्लिक़ अवामिल (ज़ाती अवामिल)
पहली किस्म के मोतग़ैय्युरात में मायूसी, किसी दूसरे शख़्स या ग्रुप की तरफ़ से किसी तरह की इश्तिआल अंगेज़ी (मिसाल के तौर पर, तौहीन रिसालत या क़ुरआन का जलाना है), दूसरों के जारिहाना अमल और अमली तौर पर ऐसा कुछ भी जो अफ़राद को परेशानी का तजुर्बा कराता हो, इसका इन्किशाफ़ शामिल है। दूसरी किस्म के मुतग़ैय्यर में, ज़ाती अवामिल, जिसमें ऐसी अलामतें जो जारहीयत की तरफ़ कुछ अफ़राद को राग़िब करती हैं (मिसाल के तौर पर तुनक मिज़ाजी हो सकती है क्योंकि पूरी दुनिया में यहूदी और ईसाई और हिंदुस्तान में हिन्दू, मुसलमानों के मुक़ाबले में बेहतर हालत में हैं), तशद्दुद के बारे में बाज़ रवैय्या और अक़ाइद (मिसाल के तौर पर, ये यक़ीन कि तशद्दुद काबिले क़ुबूल और मुनासिब है), दूसरों के तर्ज़े अमल में दुश्मन के इरादों का एहसास करने का रुझान (ये बाज़ मुसलमानों में बहुत ज़्यादा है क्योंकि वो समझते हैं कि सारी दुनिया उनके ख़िलाफ़ है), और जारहीयत से मुताल्लिक़ मख़सूस महारत।
ये मवाक़ाती और ज़ाती तग़ैय्युरात बज़ाहिर जारहीयत की तरफ़ ले जाते हैं यानी, दहश्तगर्दी के तीन बुनियादी अमल पर उनके असरात के ज़रीये काम करता है: उकसावा (जिस्मानी उकसावा या हौसला अफ़्ज़ाई), जज़्बाती हालात (मुख़ालिफ़ जज़्बात या चेहरे पर ग़ुस्से का इज़हार) और बेदारी (या तो अफ़राद मुख़ालिफ़ ख़्यालात के बारे में सोचते हैं, या फिर अपने जारिहाना रवैय्ये को दिमाग़ में लाते हैं)। किसी फ़र्द के ज़रीए मौजूदा सूरते हाल की तशरीहात और बचाओ के अमल (पुलिस की मौजूदगी) पर मुन्हसिर है, वो या तो पुर फ़िक्र अमल या बगै़र सोचे समझे किए गए अमल में मशग़ूल हो सकते हैं जो ज़ाहिर तौर पर जारिहाना अमल का सबब बन सकता है।
तो ये याद रखना चाहिए कि जारहीयत या दहश्तगर्दाना कार्रवाहियाँ जैसे जब्र सिर्फ एक या चंद अवामिल के सबब नहीं होता है। बल्कि ये एक साथ बड़ी तादाद में मिल कर कई तग़ैय्युर के काम करने के नतीजे में होता है। लिहाज़ा, मायूसी- जारहीयत/ जब्र- दहश्तगर्दी की मशहूर थ्योरी वाक़ई गुमराह कुन है।
आज, 26 मई, 2012 को जनाब सुल्तान शाहीन के ज़रीए पोस्ट किए गए कमेंट से मुझे मालूम चला कि एक शरपसंद ने कमेंट के तौर पर मिस्टर शाहीन नजफ़ी को मारने की धमकी पोस्ट की है। अहम मसला ये है कि मिस्टर शाहीन नजफ़ी ने अपने गीतों में अपने मुल़्क ईरान की समाजी और सियासी सूरते हाल पर तन्क़ीद की है। इनका ताज़ा तरीन गाना शिया इस्लाम के दसवें इमाम पर मुबैय्यना तौर पर तंज़ है। उनके इस अमल को ग्रैंड आयतुल्लाह साफ़ी गोलपेगानी ने तौहीने रिसालत के तौर पर तसव्वुर किया है। मैं जानना चाहूंगा कि क्या दसवें इमाम ख़ुदा हैं या नबी हैं?
लोगों ने उनको क़त्ल करने पर अपनी आमादगी का इज़हार बुनियादी तौर पर दो हिम्मतअफ़्ज़ाई करने वाले अस्बाब की वजह से किया है। वो हैं, (1) ईरान के एक आलिम के ज़रीए मौत का फ़तवा और (2) उनको मारने पर एक लाख डालर का इनाम। यहां फिर मायूसी- जारहीयत/ जब्र- दहश्तगर्दी की थ्योरी ग़लत साबित हुई, क्योंकि कोई मायूसी या जब्र नहीं है। लोग ज़ाती तौर पर उन्हें इसलिए क़त्ल करना चाहते हैं कि उन्हें लगता है कि वो मज़हब का एक अहम फ़रीज़ा अदा करने रहे हैं और साथ ही उन्हें इससे एक बड़ी रक़म भी हासिल होगी। आख़िरत में जन्नत और इस दुनिया में रक़म मिस्टर नजफ़ी को क़त्ल करने को लोगों को तहरीक दे रही है।
हर क़ानून एक मुक़र्ररा मुद्दत के लिए है। हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम का क़ानून कहता है कि: आँख के बदले आंख और दाँत के बदले दाँत, ये उस वक़्त का एक हैरतअंगेज़ क़ानून था लेकिन ये आज नहीं है; हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम का क़ानून कहता है: अगर कोई आपके दाएं गाल पर मारता है तो, अपना दूसरा गाल भी उसकी तरफ़ कर दो, ये भी इस वक़्त का एक हैरानकुन क़ानून था लेकिन आज के जारिहाना दुनिया में ये मुनासिब और माक़ूल नहीं है और हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का क़ानून कहता है कि: हमने तौरात में उनके लिए ज़िंदगी के बदले ज़िंदगी मुक़र्रर की, आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत, ज़ख़्म के बदले बराबर ज़ख़्म: अगर सदक़ा के तौर पर कोई दर गुज़र कर दे तो ये उसके बुरे आमाल के लिए कफ़्फ़ारा होगा।
माफ़ी, सज़ा देने से ज़्यादा बहादुरी का काम है। आँख के बदले आँख वाक़ई पूरी दुनिया को अंधा बना देगा और ये आज तक सही है। आख़िर में मैं मासूम लोगों के क़त्ल पर क़ुरान की वाज़ेह मज़म्मत का हवाला देना चाहूंगा। 5 वें बाब की आयत नम्बर 32 में अल्लाह फ़रमाता है: " जिस ने किसी शख़्स को बगै़र क़िसास के या ज़मीन में फ़साद (फैलाने यानी ख़ूँरेज़ी और डाका ज़नी वग़ैरा की सज़ा) के (बगै़र नाहक़) क़त्ल कर दिया तो गोया उसने (मुआशरे के) तमाम लोगों को क़त्ल कर डाला और जिसने उसे (नाहक़ मरने से बचा कर) ज़िंदा रखा तो गोया उसने (मुआशरे के) तमाम लोगों को ज़िंदा रखा (यानी उसने हयाते इंसानी का इज्तेमाई निज़ाम बचा लिया)"।
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