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Islam and Old Age Ethics इस्लाम और बुज़ुर्गों के साथ व्यवहार

 

 

 

 

ऐमन रियाज़ , न्यु एज इस्लाम

19 अप्रैल 2014

इंसान वास्तव में मूर्ख है या फिर वो अहंकार में अंधा हो गया है? जब हम नौजवान और ऊर्जावान होते हैं, इस ज़िंदगी के बाद आने वाला जीवन की बात तो छोड़ ही दीजिए, हम शायद ही इनके बारे में सोचते हैं कि इस जीवन का अंत क्या होगा, जब हम बूढ़े और बेकार हो जाएंगे और कहीं किसी कोने में पड़े होंगे, जब परेशानी की स्थिति में रात के समय कोई साथ नहीं होगा, जब दिन में खाना और पानी देने के लिए कोई नहीं होगा और यहाँ तक कि जब सुबह नित्यक्रिया के बाद सफाई करने में कोई मदद करने वाला नहीं होगा। हम इतने व्यस्त हो गए हैं कि हम इस तथ्य से हास्यास्पद रूप से बेखबर हैं कि हमें इस बात का खयाल भी नहीं है कि घर में एक और व्यक्ति भी मौजूद है।

बुढ़ापा वास्तव में बहुत मुश्किल वक्त है, खासकर जब आप बीमार होकर बिस्तर पर पड़े हों और अपना कोई काम खुद नहीं कर सकते हों। सबसे पहला मुद्दा ये होता है कि घर में कौन ठहरेगा इसलिए कि 6 से 60 साल की उम्र के सभी लोग अपनी दुनिया में व्यस्त रहते हैं। दूसरी समस्या आलोचना की होती है। वृद्ध लोग अपने बेटे या बेटियों की आलोचना करते हैं ताकि वो लोगों का कुछ ध्यान पा सकें लेकिन दरअसल वो ऐसा करके उनसे और ज्यादा दूरी पैदा कर लेते हैं। तीसरी समस्या अक्सर डॉक्टर को दिखाने और बुज़ुर्ग को ज़िंदा रखने के लिए ज़रूरी अतिरिक्त पैसा जो उपयोग (या दुरुपयोग) किया जाता है। और सबसे महत्वपूर्ण समस्या ये है कि कौन और कैसे शौचालय को साफ करेगा।

इन सभी बातों में केवल एक चीज साझा है और वो है मौत की इच्छा। बूढ़े आदमी को ये लगता है कि वो अपनों पर बोझ बन गया है और क्योंकि कोई उनकी देखभाल करने वाला नहीं, इसलिए मर जाना ही बेहतर लगता है और उनके अपने बच्चे भी ऐसा ही सोचते और कामना करते हैं लेकिन वो ये कभी स्वीकार नहीं करते।

अबु हुरैरा रज़ियल्लाहू अन्हू से रवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फरमाया किः वो व्यक्ति मिट्टी में मिल जाए, वो व्यक्ति मिट्टी में मिल जाए। लोगों ने पूछाः कौन या रसूलुल्लाह? आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि, वो व्यक्ति जो माँ बाप में से किसी एक या दोनों के बुढ़ापे को देखे और जन्नत में दाखिल न हो।

अल्लाह से डरो और याद रखो हर चीज़ का हिसाब होगा और इसमें परमाणु के वज़न के बराबर भी चीज़ छोड़ी नहीं जायेगी। मुझे लगता है कि बुढ़ापा निजात पाने का शानदार तरीका है। एक मरते हुए व्यक्ति की मदद कर हम अल्लाह को खुश कर सकते हैं क्योंकि वो हमारे सभी गुनाहों को जानता है, जब हम किसी बुजुर्ग व्यक्ति के शौचालय को साफ करें तो हो सकता है कि खुदा हमारे गुनाहों को माफ कर दे। लेकिन अगर आप उन्हें पूरी तरह नज़रअंदाज करते हैं तो फिर आप अपनी बारी का इंतजार करें।

इस्लाम में ओल्ड एज होम (वृद्धाश्रम) का कोई विचार नहीं है। पुरानी मशीनों का त्याग नहीं करना है बल्कि उनमें तेल डालकर और उनकी देखभाल की जाए ताकि वो एक दिन अधिक काम करें। अल्लाह सबसे अच्छा मनोवैज्ञानिक है और वो इस बात को जानता है कि हम उनसे नाराज़ हो जाते हैं इसलिए अल्लाह ने विशेष रूप से कुरान में ये हुक्म दिया है कि हम माँ बाप को उफ्फ तक न कहें।

"तुम्हारे रब ने फ़ैसला कर दिया है कि उसके सिवा किसी की बन्दगी न करो और माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो। यदि उनमें से कोई एक या दोनों ही तुम्हारे सामने बुढ़ापे को पहुँच जाएँ तो उन्हें 'उँह' तक न कहो और न उन्हें झिझको, बल्कि उनसे शिष्टतापूर्वक बात करो। और उनके आगे दयालुता से नम्रता की भुजाएँ बिछाए रखो और कहो, "मेरे रब! जिस प्रकार उन्होंने बालकाल में मुझे पाला है, तू भी उनपर दया कर।" (17: 23-24)

माँ बाप की सेवा इस्लाम में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य माना जाता है।

नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फरमाया:

"वो हम में से नहीं है जो बच्चों के साथ मोहब्बत नहीं करता और बड़ों का सम्मान नहीं करता।" (तिर्मिज़ी)

हम अक्सर अपने बच्चों और बीवियों की बातों पर अधिक ध्यान देते हैं, लेकिन ये सही नहीं है। पहली प्राथमिकता हमें अपने बूढ़े माँ बाप को देनी चाहिए जो कुछ कहने की कोशिश कर रहे हैं। यहां तक ​​कि खाना और पानी देते वक्त भी हमें  पहले बुज़ुर्गों को देना चाहिए।

रसूलुअल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फरमाया है कि "जिब्रईल ने मुझे बूढ़ों को प्राथमिकता देने का हुक्म दिया"

एक बार जब मआज़ इब्ने जबल नमाज़ की इमामत कर रहे थे और उन्होंने उसे बहुत लंबा कर दिया तो नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को बहुत गुस्सा आ गया था। वो इसलिए नाराज़ हो गए थे क्योंकि वो ऐसी लम्बी नमाज़ में बुज़ुर्गों को होने वाली परेशानी को लेकर चिंतित थे। उन्होंने कहा कि नमाज़ में लंबी सूरे पढ़ने के बजाय छोटी सूरे पढ़ना ज़्यादा बेहतर है।

पैग़म्बर मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने जो फरमाया हमें उसे भूलना नहीं चाहिए:

"जब कोई नौजवान उम्र का लिहाज़ करते हुए किसी बुज़ुर्ग का सम्मान करता है तो खुदा बुढ़ापे में उसका सम्मान करने के लिए किसी को नियुक्त करता है।" (तिर्मिज़ी)

ये बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि बुज़ुर्गों की देखभाल करते हुए हमें भी अपने आपको यातना नहीं देनी चाहिए। रात रात भर जाग कर बूढ़ों को सांत्वना देना और खुद सोने से वंचित रह जाना, उपयुक्त नहीं है। अपने आप पर 'ज़ुल्म' करना भी इस्लाम में गुनाह है। जहां तक हो सके बुज़ुर्गों की देखभाल करें लेकिन अपने आपको भी सज़ा न दें। अल्लाह को ये पसंद नहीं है। हम सभी को अल्लाह से इसके लिए दुआ करनी चाहिए:

"ऐ अल्लाह! मैं बेबसी, आलस, कायरता और कमज़ोर बुढ़ापे से तेरी पनाह माँगता हूँ, मैं ज़िंदगी और मौत की तकलीफों से तेरी पनाह माँगता हूँ और कब्र के अज़ाब से तेरी पनाह माँगता हूँ।"

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