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Hindi Section ( 3 Jul 2014, NewAgeIslam.Com)

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The Philosophy of Wahdat ul Wujud and Wahdat us Shuhud वहदतुल वजूद और वहदतुश्शुहूद का दर्शन

 

आफ़ताब अहमद, न्यु एज इस्लाम

8 जून, 2014

क़ुरान में कई ऐसी अनगिनत आयतें हैं जिनसे खुदा की प्रकृति और हर जगह उसके उपस्थित होने का पता चलता है। इन आयतों में ये बयान है कि खुदा हर जगह और हर वक्त हर इंसान के साथ मौजूद है। लोग उसे नहीं देख सकते लेकिन उसकी नज़र पूरे ब्रह्मांड पर है। वो अपने बंदों की फरियादें सुनता है और उनसे उनकी मुख्य नस से भी अधिक करीब है। ये क़ुरान का सारांश है इसलिए अब इसकी व्याख्या में और आयतों ​​का हवाला देने की कोई ज़रूरत नहीं है।

इसका उल्लेख न केवल क़ुरान में है बल्कि खुदा की इस सुन्नत का उल्लेख सभी तौहीदी (एकेश्वरवादी) धर्मों और सभी आसमानी ग्रंथो में है। इसलिए खुदा की प्रकृति और उसके हर जगह उपस्थित होने का बयान सभी धार्मिक ग्रंथों में पाया जाता है। विशेष रूप से कुरान, बाइबिल और वेदों में इस अर्थ की आयतें मौजूद हैं। कुरानी आयतें लोगों को ध्यान, खुदा को याद करने और रूहानी (आध्यात्मिक) मुजाहिदा के माध्यम से खुदा की निकटता प्राप्त करने की शिक्षा देती हैं। क़ुरान मुसलमानों को खुदा की प्रकृति और हर जगह उपस्थित होने का एहसास करने और इस तरह उस रुकावट को दूर करने की शिक्षा देता है जो खुदा और बंदे के बीच आड़े है। एक आयत में मुसलमानों को ये बताया गया है कि अगर इंसान खुदा की याद से अपने दिल को नहीं भरता है तो उस पर शैतान का क़ब्ज़ा हो जाता है जो उसे गुमराही की तरफ ले जाता है।  इसका मतलब ये है कि अल्लाह को ये गवारा नहीं कि उसके और बंदे के बीच में कोई शैतान आड़े आए।  

रहस्यवाद तथा आध्यात्मिकता की ओर आकर्षित लोगों ने खुदा की निकटता हासिल करने के लिए अपने दिलों से शैतान को दूर करने की कोशिश की है।

इस अमल और इस कल्पना की वजह से उनके दिलों में ये एहसास पैदा हुआ कि खुदा उनके दिलों में और उनके आसपास मौजूद है और पूरे ब्रह्मांड का स्रोत अल्लाह ही है। उन्होंने इस एकता को अभौतिक और भौतिक दोनों तरह से महसूस किया। और इसी वजह से (वहदतुल वजूद और वहदतुश् शुहूद) का दर्शन परवान चढ़ा।

वहदतुल वजूद के सबसे बड़े तर्जुमान (प्रवक्ता) इब्ने अल-अरबी थे जबकि वहदतुश् शुहूद दर्शन के सबसे बड़े तर्जुमान हज़रत मुजद्दिद अलिफ सानी थे। क़ुरान में ऐसी कुछ आयतें हैं जिनसे इन दर्शनों को समर्थन मिलता है।  

''अल्लाह की उस प्रकृति का अनुसरण करो जिस पर उसने लोगों को पैदा किया।'' (30: 30)

इकबाल ने फितरत शब्द का अनुवाद खुदा की सुन्नत किया है। एक और आयत जिससे इस दर्शन को बल मिलता है:

''ऐ लोगों! अपने रब का डर रखो, जिसने तुमको एक जीव से पैदा किया'' (4: 1)

पिछली आयत अत्यंत महत्वपूर्ण है इसलिए कि सामान्य शब्दों में इसको परिभाषित करने का मतलब ये हो सकता है स्वाभाविक रूप से बंदा और खुदा दोनों एक ही तरह हैं। अगर हम इस आयत की व्याख्या इस तरह करते हैं तो उस कुरानी आयत का उल्लंघन अनिवार्य हो जायेगा जिसमें ये है कि खुदा अद्वितीय और एक है और किसी भी चीज़ को उसके जैसा नहीं ठहराया जा सकता।

"उसकी मिसाल अत्यन्त उच्च है।" (16: 60)

''अतः अल्लाह के लिए मिसालें न घड़ो।'' (16: 74)

अब इस आयत का मतलब क्या हो सकता है? इसका मतलब ये हो सकता है कि अल्लाह ने खुद से इंसानों को पैदा किया है जैसा कि उसने ब्रह्मांड में सभी चीजों को खुद ही पैदा किया है। इस तरह खुदा और इंसान के बीच एक प्रकार की एकता है और खुदा ये नहीं चाहता कि आदमी उसका उल्लंघन करे या दोनों के बीच शैतान को रास्ता देकर इस एकता को तोड़ दे। असमान लोगों के बीच एकता स्थापित हो सकती है यानि बड़े और छोटे, शक्तिशाली और कमज़ोर के बीच एकता पाई जा सकती है।

वेदांत का दर्शन भी इसी विश्वास पर आधारित है कि खुदा अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ विभिन्न रूप धारण कर सकता है। इसलिए अवतार वाद का हिंदू दर्शन हमें ये बताता है कि जब भी धरती पर बुराई फैल जाती है तो खुदा ज़मीन पर बुराई को खत्म करने के लिए ज़मीन पर खुद किसी इंसान या जानवर के रूप में अवतार लेते हैं। सामी धर्मों में ये विश्वास थोड़ा अलग है। इस विश्वास के अनुसार खुदा ज़मीन पर बुराई को खत्म करने और ईमान (विश्वास) की रक्षा करने के लिए नबियों के रूप में खुद ज़मीन पर अवतरित होते हैं। नबी खुदा नहीं हैं।

नाथ और शुद्द दर्शन के अनुसार खुदा को शिव कहा जाता है। शिव निराकार है और उसके पास रचनात्मकता है जिसे  शक्ति कहते हैं। जब शक्ति खुद ज़ोर लगाती है तो शिव अपार, परम, शून्य, निरंजन, परमात्मा और इसी तरह 25 विभिन्न चरणों से गुज़र कर अपने निराकार रूप को समाप्त कर देते हैं और एक भौतिक (मानव, पशु, वनस्पति आदि) रूप धारण कर लेते हैं। इस निर्माण का मतलब कुछ नया पैदा करना नहीं है बल्कि खुद को विभिन्न रूपों में परिवर्तित करना है। और रहस्यवाद में यही वहदतुल वजूद है। जब आध्यात्मिकता के विभिन्न चरणों से गुज़र कर भौतिकता का प्रभाव कम हो जाएगा तो सूफी या साधु अपने मूल शिव (खुदा) से मिल जाएंगे।

एक दूसरा दर्शन वहदतुश् शुहूद यानि केवल काल्पनिक रूप से एकता का दर्शन है जो कि वहदतुल वजूद के दर्शन से अलग है। वहदतुल वजूद की ही तरह इस सिद्धांत के अनुसार भी पूरा ब्रह्मांड खुदा की अभिव्यक्ति है। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्मांड की सभी चीजें एक ही परम् सर्वशक्तिमान की सूचक हैं। प्राचीन समाज में इसी विश्वास के कारण लोग डर और सम्मान में प्रकृति के सभी रूपों, वस्तुओं और विशेष रूप से शक्तिशाली चीज़ों की पूजा करने लगे। इस तरह पूरा ब्रह्मांड एक बहुत बड़ा पूजा स्थल बन गया। क़ुरान की आयत:

"खुदा आसमानों और ज़मीनों का नूर है" ये वहदतुश् शुहूद के दर्शन का आधार है। यहां रौशनी का मतलब कोई भौतिक सामग्री नहीं बल्कि यहाँ शब्द नूर (प्रकाश) का उल्लेख लाक्षणिक अर्थ में खुदा की प्रकृति और उसके हर जगह उपस्थित होने को बयान करने के लिए किया गया है। इस आयत पर मुफ़स्सिरे क़ुरान मौलाना असलम जयराजपुरी के सिद्धांत से मतभेद करते हुए इक़बाल ने 9 दिसंबर, 1930 को नज़ीर नियाज़ी को लिखे अपने खत में इस तरह लिखा हैं:

..... लेकिन इस आयत को ऐतिहासिक दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। इस प्रकार की आयतें लगभग सभी प्राचीन ग्रंथों में मौजूद हैं। इसका मतलब ये नहीं है कि खुदा एक रौशनी है जिसका सम्बंध भौतिकता से है। इस आयत में शब्द प्रकाश को केवल रूपक के रूप में लिया गया है जो खुदा की हर जगह उपस्थिति का वर्णन करने के लिए लगभग सभी प्राचीन ग्रंथों में दर्ज है। मेरी विनम्र राय में खुदा की संपूर्णता को प्रदर्शित करने के लिए इस प्राचीन रूपक का उपयोग क़ुरान में भी किया गया है क्योंकि हाल ही के एक शोध के अनुसार केवल प्रकाश ही अपेक्षाकृत निरपेक्ष है।"

इसलिए इस बहस से ये निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वहदतुल वजूद और वहदतुश् शुहूद का दर्शन मुस्लिम सूफियों की खोज नहीं है बल्कि वेदों से लेकर क़ुरान तक सभी ग्रंथों में इस दर्शन के मज़बूत आधार हैं।

आफ़ताब अहमद न्यु एज इस्लाम के लिए कॉलम लिखते हैं। और वो कुछ समय से क़ुरान का अध्ययन कर रहे हैं।

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