डा. अदिस दुदरीजा, न्यु एज इस्लाम
19 जून, 2012
(अंग्रेजी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
इस्लामी परंपरा में सबसे ज़्याद विवादास्पद पहलुओं में आज शरीयत कानून पर विचार है, खासकर तब जब इसके साथ इस्लाम में महिलाओं की भूमिका और उनकी स्थिति की अधिक गंभीर विषय वाली बहस भी साथ हो। यहां तक कि शिक्षित (पश्चिम) (गैर) मुस्लिम दर्शकों के मन में शरई कानून या इस्लामी कानून का शब्द आते ही बर्बर, अपमानित करने वाले और मध्यकाल के ज़माने के अमल जैसे पत्थरों से मार मार कर मौत की सज़ा (सज़ाए रजम), हाथ काट लेना, जबरन शादियां, आनर किलिंग्स (सम्मान के नाम पर हत्या) या एबायात, नक़ाब, चादरें या हिजाब पहने मुस्लिम महिलाओं की तस्वीरें आती हैं। इनमें से कुछ छवियों को साहित्य और हॉलीवुड (की तरह की) फिल्में, लोकप्रिय साहित्य या मीडिया सहित लोकप्रिय भाषणों द्वारा बल प्राप्त होता रहता है। इस तरह के विवरणों को अक्सर आत्मकथा के रूप में दिलचस्प अंदाज़ में लिखा जाता है ताकि पाठक के मन में शिकार (मुसलमान महिलाओं) के लिए सहानुभूति, क्रोध और निराशा (पुरुषों और ऐसे संगठन जो शरीयत कानून को बरकरार रखते हैं) की भावनाएं पैदा करता है।
पश्चिमी यूरोप, उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के उदारवादी लोकतंत्रों में मुसलमानों की पर्याप्त मौजूदगी है जो अब इन देशों में स्थायी रूप से रह रहे हैं, यहाँ कुछ विशेष 'इस्लामी' तरीके जैसे चेहरा ढँकने वाली महिलाओं की कई पश्चिमी देशों के बड़े शहरों की गलियों में मौजूदगी एक औसत (गैर) मुसलमान (पश्चिमी) के मन में इनकी छवि को और ज्यादा मजबूत करता है। इसके अलावा, पश्चिमी देशों के मुसलमानों के एक अल्पसंख्यक समूह की ओर से पश्चिमी कानूनी प्रणाली के तहत पर्सनल ला कानून के दायरे में शरीयत अधिकरण को शामिल करने और औपचारिक रूप से मानने की मांगें (ऐसा रूढ़िवादी यहूदियों और कुछ ईसाइयों के जैसे अन्य वर्गों को इस तरह का लाभ प्राप्त करने का अधिकार था) अगर डराने वाली नहीं तो उन लोगों के लिए खतरे की घंटी ज़रूर है जो इसके तहत अपने तमाम मामालों के संचालन की इच्छा रखते हैं। पश्चिम देशों के बहुत से गैर-मुस्लिम और कुछ पश्चिमी देशों के मुसलमानों के बीच भी डर है कि बर्बर, प्रचीन, महिलाओं का अपमान करने वाला शरीयत कानून पश्चिम में आ रहा है और वहां की बेहतरी के लिए बना रहने वाला है।
इस तरह कम से कम सैद्धांतिक स्तर पर बहुत से मुसलमानों के मन में शरई कानून विचारों, छवियों और भावनाओं की एक अलग रूपरेखा पैदा करता है। इसमें न्याय, नैतिक सुंदरता, दया और माफी शामिल है। ये कैसे हो सकता है?
निम्नलिखित में मैं इसके कारण को स्पष्ट करने की कोशिश करूँगा। सबसे पहले, मैं इस्लाम के धार्मिक ब्रह्मांड ज्ञान में शरीयत के विचार के अर्थ, महत्व और इससे जुड़े सिद्धांतों का वर्णन करूंगा। मैं इस्लामी परंपरा के मानक स्रोतों के बारे में कुछ राय पेश करूंगा जो शरई कानून बनाने वाले भाग हैं।
ये स्वीकार किया जाना जरूरी हैi कि शुरुआती समय से ही शरीयत की कल्पना मुश्किल बना दिए गए ऐतिहासिक अभिव्यक्ति की तुलना में बहुत व्यापक है, जिसे शरई कानून के रूप में अपनी अभिव्यक्ति मिल गई। इसे पूरी तरह से समझने के लिए हमें ये जानना होगा कि शरीयत शब्द के अर्थ क्या हैं? और समग्र रूप से इस्लामी धार्मिक ज्ञान के संसार में इसका अर्थ क्या है?
शब्द व्युत्पत्ति के अनुसार, शरीयत एक मार्ग का प्रस्ताव देता है जो जीवन को दिशा देने वाला है। (7वीं शताब्दी के रेगिस्तानी अरब के संदर्भ में जो इस्लाम की जन्म स्थली है, ये विचार एक स्रोत की ओर ले जाने से सम्बंधित है) कुरान के धार्मिक ज्ञान के संसार में मुसलमानों की पवित्र किताब दुनिया की समझ को प्रदर्शित करती है, इस तरह इसके अनुसार मानव‑ सभी जीवित और अजीवित पदार्थों सभी को सबसे अधिक दया करने वाले, दयालु अल्लाह ने पैदा किया, जो हमेशा देने वाला है, सबका पालन हार है और अपनी सुंदरता और शान का स्रोत और उसकी ओर लोगों का मार्ग दर्शन करने वाला है। इंसानों के मामले में देने वाला, पालने वाले और मार्गदर्शन करने वाला खुदा का ये विचार मानव अस्तित्व के आध्यात्मिक और गैर आध्यात्मिक दोनों पहलुओं में शामिल है। इसके अलावा, इस धार्मिक विचारधारा के केंद्र में ये विचार है कि शरीयत की कल्पना इस बात को ताजा करती है कि अल्लाह ने सभी इंसानों को एक फितरत (प्रकृति) के साथ पैदा किया है जो खुदा और उसके मार्ग दर्शन के लिए बेचैन रहती है। इंसान अपने अस्तित्व के इस आयाम को स्थायी या लंबे समय तक का धर्म का पालन न करने वाले व्यवहार की वजह से पहचान नहीं पाता है, जिसके कारण खुदा से उनका रिश्ता टूट गया है और इसलिए खुद को खुदा के हवाले करने और उसकी इबादत करने के अपने प्राकृतिक ध्यान से हट गए हैं। लेकिन उनकी चेतना कभी कभी उन्हें उनकी प्रकृति से परिचित कराती है, खासकर जब बहुत ज़्यादा ज़रूरत या विपत्ति की स्थिति होती है और जो प्रकृति में आध्यात्मिक या गैर-आध्यात्मिक हो सकती है।
एक और महत्वपूर्ण विचार जो शरीयत के विचार को सहारा देती है वो ये कि खुदा ने मानव को एक भारी जिम्मेदारी और अन्य सभी जीवों से अलग की निशानी के रूप में स्वतंत्र इच्छाशक्ति और इंसान को ज़मीन पर अपना खलीफा बनाकर अपना अनुग्रह प्रदान किया है। इस्लाम के इस धार्मिक ब्रह्मांड ज्ञान के आयाम में केवल मनुष्य ही खुदा का बनाया वो एकमात्र प्राणी है जो बौद्धिक रूप से गलती कर सकता है, खुदा के बताए रास्ते से हट सकता है और साथ ही साथ खुदा की मर्ज़ी और अपनी आंतरिक प्रकृति के अनुसार अमल करके फरिश्तों के जैसा अल्लाह का वली बन सकता है (फरिश्तों को स्वतंत्र इच्छाशक्ति से वंचित रखा गया है)। जिसका उल्लेख पहले किया गया वो वंचित (आध्यात्मिक) और हमेशा की यातना वाली ज़िंदगी गुज़ारेगा और जिसका उल्लेख बाद में किया गया वो आध्यात्मिक नेमतों और खुदा की निकटता को प्राप्त करेगा।
शब्द शरीयत और उससे जुड़ी शब्दावली कुरान और इस्लामी परंपराओं में जिस तरह आई हैं उन पर विचार करने पर ये पता चलता है कि ये वो हैं जिनकी बड़ी कदर है, ये वो है जो सबसे अधिक सकारात्मक अर्थ से जुड़ी हैं और बहुत ही आवश्यक और बहुत ही इच्छित हैं।
ऊपर दिए गए इस्लामी धार्मिक ब्रह्मांड ज्ञान के मद्देनजर ये समझना बहुत ज़रूरी है कि मुसलमानों ने हमेशा ही इसकी ज़रूरत महसूस की है और वो आज भी ऐसा महसूस करते हैं, कानून के दायरे सहित अपने दैनिक जीवन में खुदा से 'मार्गदर्शन' चाहते हैं। इस मार्गदर्शन का मुख्य स्रोत इस्लाम की पवित्र पुस्तक, कुरान है। पाठ के रूप में कुरान एक जटिल मज़हरे कुदरत (अद्भुत वस्तु) है, और इन्हीं कारणों से हम यहाँ उल्लेख नहीं कर सकते हैं। इसकी संरचना, भाषा और सामग्री को समझने के लिए बड़ी संख्या में विभिन्न विज्ञानों पर महारत हासिल करने की आवश्यकता है। एक बात हम लोगों को ध्यान में रखने जरूरत है कि अक्सर कुरान की सामग्री को व्याख्या और स्पष्ट करने की आवश्यकता होती है। कुरान में मौजूद आयत को आधार बनाकर इस्लामी परंपरा ने धार्मिक दायित्व के सिद्धांत को स्थापित किया है ताकि कुरान के निर्देश पर नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के द्वारा व्यवहारिक रूप से अमल करने के अनुसार पालन कर सकें, और आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम पर नाज़िल हुई वही आपके द्वारा मानवता पर स्पष्ट हुई। कुरान के संदेश की इसी व्याख्या और स्पष्टीकरण को सुन्नत कहा गया। इस्लाम से पहले के अरब में भी सुन्नत की शब्दावली मौजूद थी जो किसी प्रभावशाली व्यक्ति के पालन करने योग्य आचरण और प्रेरणास्रोत व्यवहार को बताता था। इस पारंपरिक इस्लामी विचारधारा के अनुसार नबी करीम मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम पर वही नाज़िल हुई और मोमिनों को मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए कुरान के संदेश की व्याख्या, इस पर टिप्पणी करने और इसको स्पष्ट करने के लिए आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम 'सक्षम' या सबसे योग्य माने जाते हैं।
सुन्नत की विचारधारा के अलावा भी अन्य विचार और सिद्धांत हैं जो शरीयत कानून की शब्दावली और उसकी व्याख्या की समझ पर सीधे असर डालते हैं। सुन्नी इस्लाम में, मुसलमानों की संख्या के आधार पर इस्लाम की सबसे बड़ी प्रतिनिधि शाखा, कुरान और सुन्नत की सल्फ़ अलसालेह (आमतौर पर नेक मुसलमानों की पहली तीन पीढ़ियों को माना जाता है) की व्याख्या को प्रमाणिक कल्पना किया जाता है। इस विचारधारा के अनुसार इस नस्ल के मुसलमानों की वही और नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के ज़माने से अस्थायी निकटता और उनका (ऐसा समझा जाता है) इस्लाम में योगदान का मतलब ये है कि कुरान और सुन्नत की व्याख्या का उनका तरीका, अगर उनसे शुरू हो रहा है, इसका प्रामाणिक तौर पर समीक्षा की जाए तो उन्हें बाद के ज़माने के मुसलमानों की व्याख्या पर विशेषाधिकार दिया जाता है। इस्लाम की दूसरे सबसे प्रतिनिधि शाखा शियावाद में व्याख्यात्मक वरियता पैग़म्बर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के नातियों और उनकी पीढ़ियों को दिया जाता है (जो इमाम या मुस्लिम समुदाय के धार्मिक नेता के रूप में जाने जाते हैं)।
उपरोक्त लेख में उल्लेख किए गए सुन्नत के विचार की ओर वापस आते हैं, ये ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि कुछ मुसलमानों के लिए सुन्नत की कल्पना कई ज़बानी विवरणों में प्रकट हुआ जिसे बाद में लिखित रूप दिया गया, जिन्हें अब हदीस के रूप में जाना जाता है। ये इस्लामी इतिहास की पहली दो तीन सदियों की अवधि में जमा की गई। हदीस उन जानकारियों पर आधारित हैं जो कथित तौर पर भेजने वाले के एक सिलिसले के द्वारा स्थानांतरित हुई और जो बताती हैं कि नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने किसी मसले पर क्या कहा और क्या किया या खामोशी से मंजूरी दे दी। सुन्नी हदीस की ही तरह शिया हदीस हैं जो प्रामाणिक माने जाने वाले भेजने वालों के एक सिलसले के द्वारा स्थानांतरित हुई हैं जो बताती हैं कि पैगम्बर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम या इमामों ने किसी मुद्दे पर क्या कहा और क्या किया या खामोशी से मंजूरी दे दी। क्योंकि कुरान के अपेक्षाकृत कुछ छोटे हिस्से कानूनी महत्व के मामलों पर आधारित हैं क्योंकि नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम (और नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के सबसे ज़्यादा काबिले ज़िक्र सहाबा और इमामों) के बारे में कहा जाता है कि अपनी पैगम्बरी के बीस या कुछ और वर्षों में जो कानूनी मामले सामने आए उन पर आपने निर्णय दिए थे। समय बीतने के साथ मुसलमानों ने अहले इल्म लोगों का एक संगठन बनाया जो जीवन में मोमिनों के लाभ और मार्गदर्शन के लिए नियमों की व्याख्या के मकसद के लिए कुरान और सुन्नत की व्याख्या की प्रक्रिया पर काम करता था। मुसलमानों के इतिहास के शुरुआती ज़माने में अहले इल्म लोगों का संगठन फ़िक़्ह के नाम से जाना जाता था, ये एक शब्द है जिसका अर्थ किसी कानूनी मामले पर कुरान और सुन्नत में पाए जा सकने वाले या निकाले जा सकने वाले सबूत की समझ से है। व्यापक रूप से इस्लामी के धार्मिक ब्रह्मांड ज्ञान में फ़िक़्ह का उद्देश्य मार्गदर्शन के रूप में काम करना होता था, जिसका उल्लेख उपरोक्त में किया गया है, और ये शब्द शरियत के साथ भी इसका बयान किया गया है। समय बीतने के साथ ही इस्लामी कानून की कई विचारधाराएं और परिष्कृत कानूनी विचारों की एक बड़ी संख्या तैयार की गई जिसने कुरान और सुन्नत की व्याख्या की। इसके बाद से मुसलमानों की हर नई पीढ़ी ने निम्नलिखित तरीकों से कुरान और सुन्नत की व्याख्या करने की कोशिश की: 1.प्रत्यक्ष की तुलना में पहले से स्थापित किए गए कानूनी विचारों की रौशनी में उन पर ध्यान दिया। उसे तक़लीदी तरीका (प्रक्रिया) के रूप में जाना जाता है। जिसे यहां शैक्षिक परंपरावाद कहा जाता है, इसको जन्म दिया और पारंपरिक रूप से शिक्षित मुस्लिम विद्वानों के बीच सबसे अधिक प्रतिनिधि तरीका (प्रक्रिया) है। 2. तक़लीद प्रक्रिया को धोखा देकर ऐसी प्रक्रिया पर ज़ोर देते हैं, जो कुरान और हदीस के पाठ को सीधे तौर पर आकर्षित करने के साथ ही मुसलमानों की प्रारंभिक पीढ़ियों की इजमा पर ध्यान देता है। यह प्रक्रिया दो अलग दृष्टिकोणों में विभाजित हो जाता है, उदाहरण के लिए उनमें से एक जो नियमों की व्याख्या के मकसद के लिए कुरान और उसकी चेतना पर आधारित व्याख्या को प्राथमिकता देता है और जिसका अधिकांश हदीस के पाठ की प्रमाणिकता पर अपेक्षाकृत प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण है (हम यहां इस प्रक्रिया को आधुनिकता कह रहे हैं) और दूसरा जो हदीस पर आधारित कुरान और सुन्नत की व्याख्या को चेतना और चेतना पर आधारित व्याख्या की तुलना में प्राथमिकता देते हैं और इस्लामी कानून के दायरे में लागू करते हैं। 3. सभी हदीसों को एक साथ खारिज कर (लेकिन जरूरी नहीं है कि सुन्नत के विचार को भी खारिज करे) इस्लामी कानूनों को कुरान पर आधारित करते हैं। ये सबसे कम प्रतिनिधि प्रक्रिया है। 4. मानविकी और सामाजिक विज्ञान के समकालीन ज्ञान की रौशनी में कुरान और सुन्नत की व्याख्या के साथ ही उपरोक्त के 1 और 2 को शामिल करने की प्रक्रिया को हम आधुनिकता कहते हैं। इसे लिखने के समय हालांकि ये एक अल्पसंख्यक प्रक्रिया है, लेकिन लेखक का मानना है कि ये एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें वृद्धि हो रही है। ये भी उल्लेखनीय है कि सबसे पहले की तीन प्रक्रिया अपने स्रोत और ज्ञान की पुष्टि के मामले में पूरी तरह पूर्व आधुनिक हैं और मुस्लिम विद्वानों द्वारा स्थापित किए गए पूर्व आधुनिक पारंपरिक ज्ञान के तहत संचालित होते हैं।
उपरोक्त लेख में पेश रूपरेखा के मद्देनजर ये समझना (ध्यान में रखना) जरूरी है कि कानून के रूप में शरीयत का विचार पूरी तरह व्याख्यात्मक प्रयास है। इससे मेरा मतलब ये है कि शरियत के 'खुदाई कानून' के रूप में कोई भी समझ कुरान और सुन्नत की मानवीय व्याख्या का परिणाम है। कुरान और सुन्नत का हर एक व्याख्यात्मक मॉडल विभिन्न व्याख्यात्मक मान्यताओं पर आधारित है। इन मान्यताओं का ध्यानपूर्वक विश्लेषण और अनुसंधान करने पर हमें वास्तविक अंतर्दृष्टि हासिल होगी कि आख़िर कुरान और सुन्नत की विभिन्न समझ क्यों अस्तित्व रखती हैं।
डॉक्टर अदिस दुदरीजा मेलबर्न विश्वविद्यालय के इस्लामिक स्टडीज़ विभाग में रिसर्च एसोसिएट हैं और वो न्यु एज इस्लाम के लिए नियमित रूप से कॉलम लिखते हैं।
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