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Hindi Section ( 3 Apr 2014, NewAgeIslam.Com)

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Is There Any Description of Gautam Buddha in the Quran क्या पवित्र कुरआन में गौतम बुद्ध का जिक्र है

 

 

 

 

अभिजीत, न्यु एज इस्लाम

3 अप्रैल, 2014

अल्लाह के तरफ से भेजे गये आखिरी नबी हजरत मुहम्मद (सल्ल0) पर उतरी किताब 'कुरआन' ने स्पष्ट कहा है कि 'ऐसी कोई कौम नहीं है जिसमें खुदा की तरफ से कोई होशियार करने वाला न आया हो।' (सूरह फातिर, 24) सूरह रअद् की 7वीं आयत में भी यही बात दुहराई गई है- 'व कुल्ले कौमिन हाद् वल्लेकुल्ले उम्मतिन् रसूलिन' अर्थात् 'हमने हर कौम के लिये एक रहनुमा भेजा है।' सूरह नहल की 36 वीं आयत में भी यही फरमाया गया है 'और यकीनन हमने हर कौम में कोई न कोई रसूल (सल्ल0) भेजा है।'  सूरह यूनुस की 47वीं में आता है,  'और हर समुदाय के लिये एक रसूल है।' इन आयतों से ये बात तो बिलकुल स्पष्ट है कि हिंदुस्तान भी नबियों के अवतरण से खाली नहीं है पर लोगों में ये सवाल आम ये है कि सारी इंसानियत और तमाम जमानों के लिये उतारी गई किताब कुरान हिंदुस्तान में भेजे गये किसी नबी का जिक्र क्यों नहीं करता जबकि हिंदुस्तान दुनिया के उन चंद मुल्कों में शुमार है जिसकी तारीख कम से कम हजरत आदम के अवतरण से है?

क्या ये मुमकिन है कि वो किताब जिसे खुदा ने तमाम जमानों और सारी दुनिया के लिये उतारा है वो ऐसे मुल्क में अवतरित किसी नबी के जिक्र से खाली हो जिसने अज्ञान के अंधकार में धिरे दुनिया में ज्ञान की अलख जगाते हुये विश्वगुरु की भूमिका निभाई हो, जहाँ के महान शिक्षकों और आचार्यों के चरणों में बैठ कर विश्व के प्रायः हर भूभाग से आये छात्रों ने शिक्षा ग्रहण की हो और जो गणित, विज्ञान, ज्योतिष, रसायन, चिकित्सा आदि तमाम विधाओं की जननी रही हो? ( केवल इतना ही नहीं यहां के महान आचार्यों ने दुनिया के दूसरे भूभागों में जाकर भी ज्ञान की ज्योति फैलाई थी। भबिष्य पुराण के अनुसार महर्षि कण्व माँ सरस्वती की आज्ञा से मिश्र गये थे और वहां 10 हजार लोगों को विधा का दान दिया था और संस्कारित किया था!)

ये बात यथार्थ है कि कुरआन में नाम से जिन भी नबी का वर्णन आया है वो सब के सब प्रायः बनी-इजराईल अथवा अरब प्रायद्धीप के आस-पास के मुल्कों से संबद्ध थे ! इसकी वजह यह है कि कुरआन सर्वप्रथम अरबों से मुखाबित है, अतः इसमें ऐसे नबियों की मिसालें दी गई हैं जिनसे अरब परिचित थे। नबी-करीम (सल्ल0) ने भी अपनी हदीसों में केवल उन्हीं नबियों का वर्णन किया है जिनसे अरब वाले परिचित थे। कुरआन की आयत है:-

कितने रसूल हैं जिनका वृतांत हम पहले तुमसे बयान कर चुकें हैं और कितने रसूल हैं जिनका वृतांत हमने तुमसे नहीं बयान किया। (अन-निसा, 164 एवम् सूरह अल-मोमिन, 78) इसका अर्थ ये है कि कुरआन हर अंबिया का वर्णन नहीं कर रहा है और ये संभव भी नहीं था क्योंकि कुरआन कोई सूची ग्रंथ नहीं है जिसमें 1 लाख 24 हजार पैगंबरों का वर्णन हो पर इसका अर्थ ये नहीं है कि कुरआन अथवा हदीस में अगर किसी मुल्क या कौम की तरफ भेजे गये नबी का वर्णन नहीं आया है तो वो मुल्क नबी से खाली रहा होगा। कुरआन दुनिया के मुख्तलिफ मुल्कों में भेजे गये पैगंबरों का जिक्र भले भले न करे पर ये नामुमकिन है कि हिंदुस्तान जैसे गौरवशाली भूभाग में अवतरित किसी नबी या वलीउल्लाह के जिक्र से कुरआन मजीद खाली होगा। ये संभव ही नहीं है कि वो ग्रंथ जिसे ईश्वर ने सारे मानव जाति की रहनुमाई के लिये उतारा वो सदियों से खड़े महान हिमवान पर्वत से लेकर हिंदू सागर पर्यंत फैले इस विशाल भूभाग (जहां सबसे पहले तौहीद की आवाज बुलंद हुई थी और जहां हजरत आदम का अवतरण हुआ था) में ईश्वर के भेजे हुये किसी नबी या रसूल का जिक्र न करे।

कुरान में तकरीबन 25 जगहों पर वर्णित हजरत आदम का सीधा ताल्लुक तो हिंदुस्तान से ही था। इसी तरह हजरत शीश, अय्यूब और हजरत नूह का संबंध भी हिंदुस्तान से था। इनके अलावा कुरआन एक ऐसे नबी का वर्णन भी करता है जो बनी-इजरायली परंपरा से नहीं है मगर वो अरब वालों के लिये अपरिचित भी नहीं है। कुरान के आलमी किताब होने की दलीलों में एक पक्की दलील ये भी है कि कुरआन दुनिया के एक अजीम मुल्क हिंदुस्तान में अवतरित नबी के जिक्र से खाली नहीं है।

कुरआन में हजरत जुलकि़फ्ल

कुरआन में नाम अथवा बिशेषण से 25 पैगंबरों का वर्णन आया है। इनमें 18 पैगंबरों के नाम सूरह अनआम की आयत संख्या 83 से 86 में आयें है। ये नाम हैः-

इब्राहीम, इसहाक, याकूब, नूह, दाऊद, सुलैमान, अय्यूब, यूसूफ, मूसा, हारुन, जर्कया, यह्या, ईसा, इलयास, इसमाईल, अल्-यसअ, यूनूस, लूत बाकी7 नबियों के नाम अन्य स्थानों पर आये हैं जो हैं,  मुहम्मद, आदम, सालेह, हूद,  इदरीस, शुएब और जुलकि़फ्ल। इन नबियों में से जुलकिफ़्ल का जिक्र दो स्थानों पर आया हैः-

"और इस्माईल और इदरीस और जुलकि़फ्ल (पर भी हमारी कृपा रही है) ये सब सब्र करने वाले थे। और इन्हें हमने अपनी दयालुता (की छाया) में प्रबिष्ट किया। निःसंदेह ये अच्छे लोगों में से थे।"(सूरह अलअंबिया, 21: 85-86) दूसरे स्थान पर आया है, "और इस्माईल और अल्यसअ और जुलकि़फ्ल को याद करो, ये सब नेक लोगों में से हैं।"(सूरह साद, 38:48)

 इन तमाम नबियों में जुलकिफ़्ल अकेले हैं जिनके बारे में विद्वानों को लेकर इस बात पर मतभेद है कि ये कोई नाम है अथवा उन नबी के लिये प्रयुक्त बिशेषण। बाद वालों का मत (यानि जुलकि़फ्ल कोई नाम नहीं वरन् उस नबी के लिये प्रयुक्त बिशेषण है) ज्यादा सही मालूम होता है क्योंकि बनी-इस्त्रायली अथवा इस्लामी रिवायतों में 'जुलकि़फ्ल' नाम से किसी नबी अथवा वलीउल्लाह का विवरण नहीं मिलता। नबी करीम (सल्ल0) की हदीस भी इनका वर्णन नहीं करती। यहां तक की इब्ने-जरीर जैसे बड़े विद्वान भी इनके बारे में कुछ बताने में खामोशी अख्तियार करते हुये कहतें हैं कि 'जुलकि़फ्ल'  के बारे में बेहतर इल्म अल्लाह को ही है। तो यकीनन 'जुलकिफ़्ल' कोई नाम नहीं है वरन् किसी बदगुजीदा पैगंबर के लिये प्रयुक्त बिशेषण है।

वैसे भी किसी को उसके स्थान अथवा गुण-बिशेष से युक्त कर पुकारना भाषा-शास्त्र की बिशेषता होती है। हमारी परंपरा जब द्वारकाधीश अथवा लंकापति और बनी-इस्त्रायली जब नासरी जैसे शब्द स्थानसूचक बिशेषण के रुप में प्रयुक्त करती है तो किसी भी ये समझने में देर नहीं लगती कि ये संबोधन क्रमशः श्रीकृष्ण, रावण और ईसा मसीह के लिये है। इसी तरह गोपाल और दशानन जैसे गुणबोधक बिशेषण श्रीकृष्ण और रावण के बारे में संकेत देतें हैं। भाषा-विज्ञान की इस खूबसूरती का प्रयोग पवित्र कुरआन भी करता है जब वह नबी करीम (सल्ल) के लिये 'ऐ चादर लपेटने वाले' और हजरत यूनूस के लिये 'मछली वाले' और 'साहिबुल हूत' शब्द का प्रयोग करता है।

'जुलकि़फ्ल' का अर्थ: इस्लामी विद्वानों के मत में

'जुलकि़फ्ल' शब्द जुल और कि़फ्ल दो अलग-2 शब्दों से बना है, इस तरह के दो और शब्द भी कुरआन मजीद में मौजूद हैं जो इसका अर्थ स्पष्ट कर देगी। कुरआन सुरह अंबिया में हजरत यूनूस के लिये 'जुन्नून'  शब्द का प्रयोग करता है जिसका अर्थ है 'मछली वाले'। इसी तरह 'जुलकरनैन' का अर्थ है 'दो सींग वाला'। इसी ताल्लुक से कई विद्धान् कहतें हैं कि 'जुलकि़फ्ल' का अर्थ है 'कि़फ्ल वाला'  यानि वह नबी जो 'कि़फ्ल' से था। 20 वीं सदी के मध्य में हुये प्रसिद्ध विद्वान हामिद अब्दुल कादिर ने अपनी किताब "बुद्ध अल अकबर: हयातो व फलसफातो" (बुद्धा द ग्रेट: हिज लाइफ एंड फिलास्पी) में लिखा है कि 'जुलकि़फ्ल' का अर्थ है 'कि़फ्ल वाला' जो कोई और नहीं वरन् कपिलवस्तु में जन्में गौतम बुद्ध हैं क्योंकि 'कि़फ्ल' शब्द कपिल का अरबीकृत रुप है। (भाषा विज्ञान की दृष्टि से देखें तो पता चलता है कि विभिन्न भाषाओं में अक्षरों या वर्णों की संख्या समान नहीं है मसलन हिंदी में 48, उर्दू में 48, मराठी में 52, अंग्रेजी में 26 और अरबी में 29 अक्षर है। इस कारण कई आवाजें ऐसी होतीं हैं जिनके लिये हर भाषा में अक्षर नहीं होते उदाहरणार्थ हिंदी में अंगे्रजी के 26 वें अक्षर जेडके लिये कोई अक्षर नहीं है इसी तरह उर्दू में हिंदी शब्द '' के लिये कोई वर्ण नहीं है। इसलिये इन आवाजों को दूसरी भाषा में लिखने में थोड़ा समायोजन करना पड़ा है। अरबी में '' वर्ण के लिये कोई शब्द नहीं है इसलिये '' आवाज के लिये उसका निकट का  शब्द '' इस्तेमाल किया जाता है। 'कि़फ्ल' के साथ भी यही है, प की आवाज न होने की वजह से कि़पल के जगह कि़फ्ल आया है।)

इतना ही नहीं कादिर साहब ने कुरान की 95 वीं सूरह सूरह तीनमें आये वृक्ष को सिद्धार्थ बुद्ध से संबद्ध बोधिवृक्ष से जोड़ा है जिसके नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। मौलाना अबुल कलाम आजाद कुरआन के अपने तफ़्सीर 'तर्जुमन अल कुरआन' में बुद्ध के जुलकिफ़्ल होने की तस्दीक की है। प्रसिद्ध सुन्नी विद्वान् शेख फराज रब्बानी, इसरार अहमद आदि अन्य दूसरे विद्वानों की भी जुलकिफ़्ल के बारे में यही मान्यता है कि इनसे तात्पर्य कपिलवस्तु के शहजादे बुद्ध से ही है। इन सबके अलावा और भी कई विद्वान् है कि जो ये मानते हैं कि 'जुलकि़फ्ल' कोई और नहीं वरन् सिद्धार्थ बुद्ध ही हैं। इन विद्धानों में अहमदिया मत के चौथे खलीफा मिर्जा़ ताहिर अहमद साहब भी हैं जिन्होंने अपनी किताब 'एन एलीमेंट्र स्टडी ऑफ इस्लाम' में ये माना है कि जुलकि़फ्ल बुद्ध ही हैं जो भारत में भेजे गये एक पैगंबर थे। 11वीं सदी के मुस्लिम विद्वान अलबरुनी ने भी बुद्ध को एक पैगंबर के रुप में माना है। इन तमाम दावों की पुष्टि की तहकीक जुलकि़फ्ल के बुद्ध होने की दावों की सत्यता साबित करतें हैं।

अरब वाले बुद्ध से परिचित थे!

जैसा कि पहले वर्णित किया गया कि कुरआन में नाम से जिन भी नबी का वर्णन आया है वो सब के सब प्रायः बनी-इजराईल अथवा अरब प्रायद्धीप के आस-पास के मुल्कों से संबद्ध थे जिनसे अरब परिचित थे। कुरआन में बुद्ध के जिक्र होना इस कसौटी पर भी खड़ा है क्योंकि बुद्ध से अरब वाले परिचित थे। भारत में हुये महान बौद्ध सम्राट अशोक ने अपने धर्म प्रचारक मध्यपूर्व और अरब के निकटस्थ देशों में भेजे थे और इस कारण वहां बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार हो चुका था और कई बौद्ध विहार बन चुके थे। अरब वाले व्यापारी थे और व्यापार के सिलसिले में उन तमाम इलाकों में उनका जाना होता था जहां बौद्धमठ स्थापित थे। अरबों के बुद्ध से परिचित होने की एक बड़ी वजह ये भी थी कि महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के कुछ समय बाद से ही उनके उपदेशों को संकलित करने तथा बौद्धधर्म की शिक्षाओं को एकत्र करने के उद्देश्य से सम्मेलन आयोजित करने की परंपरा शुरु हो गई थी तथा 400 ईसा पूर्व से राजगृह से आरंभ हुये बौद्धसंगीतियों का सिलसिला लंबे समय तक चला था और बौद्धमत के विभिन्न संप्रदायों के द्वारा कई बौद्धसंगीतियां आयोजित की गई थी। कहतें हैं कि बौद्धधर्म के प्रचार काल में अरब को वनायु नाम से जाना जाता था तथा मगेश नाम के राजा के शासनकाल में वहां भी एक बौद्धसंगीति भी आयोजित की गई थी।  इन कारणों से पवित्र कुरआन में गौतम बुद्ध का जिक्र होना कोई हैरतनाक बात नहीं है।

बुद्ध के नबी होने की दलीलें:-

'जुलकिफ्ल़' के नबी होने को लेकर मुस्लिम विद्वानों के दो राय जरुर है पर अधिसंख्यक मत यही है कि कुरआन में नबियों के साथ 'जुलकिफ़्ल' का वर्णन साबित करता है कि वो नबी ही थे। इसके अलावा भी पवित्र कुरआन अथवा नबी करीम (सल्ल0) की हदीसें नबियों की जितनी भी बिशेषताओं का वर्णन करता है, उन तमाम शर्तों पर सिद्धार्थ गौतम बुद्ध खड़े उतरतें हैं, जो उनके नबी न होने की संभावना को खारिज करता है।

पवित्र कुरआन की गवाही

पवित्र कुरआन में नाम से वर्णित हुये तमाम नबियों में एक समानता है कि इन सबसे अरब वाले परिचित थे। 'जुलकिफ़्ल' का वर्णन कुरआन में आना साबित करता है कि यकीनन अरब के लोग 'जुलकिफ़्ल' से परिचित थे। 'जुलकिफ़्ल' से मुराद गौतम बुद्ध है, ये इन मानों में भी है कि 'सिद्धार्थ बुद्ध' हिंदुस्तान में अकेले हुये ऐसे नबी/वली/अवतार हैं जिनके बारे में ये पक्का साबित है कि उनके शिष्यों ने उनके संदेशों को दुनिया भर में पहुँचाया था। गौतम बुद्ध का लाया हुआ मजहब भारत के महान सम्राट अशोक (ईसा पूर्व 273-232) के प्रयासों के फ्लस्वरुप अरब और उसके आसपास के मुल्कों में फैल गया था। मौर्य वंश के इस महान चक्रवर्ती सम्राट के साम्राज्य का विस्तार पूर्व में कामरुप से लेकर पश्चिम में ईरान तक फैला हुआ था। 255 ईसापूर्व में अशोक ने बौद्ध धर्मप्रचारकों को सीरिया (जहां एंटिओकस् द्वितीय का शासन था), मिश्र, ईरान तथा पश्चिम एशिया के कई देशों में भेजा था जिनके कारण इन इलाकों में बौद्धधर्म का व्यापक प्रसार हुआ था और कई कई बौद्ध मठ भी बन गये थे। कश्मीरी मूल के बौद्ध दार्शनिक कुमारजीव ने मध्यएशिया के देशों में बौद्ध मत का प्रचार किया था। अरब के लोग बुद्ध को 'बोजासफ' नाम से जानते थे, यह बात उनके ही इतिहासकारों की कलम से साबित है। कई मुस्लिम इतिहासकारों ने जिन्होंनें इस्लाम के आरंभिक काल का इतिहास लिखा है इस तथ्य की पुष्टि की है कि अरब के लोग बुद्ध और उनके मजहब से वाकिफ थे। 10वीं सदी के इस्लामी इतिहासकार अल-तबरी (838-9230) ने अपने इतिहास ग्रंथ 'तारीख-ए-तबरी' में अरब में बसे सिंध से आये लाल/भगवा वस्त्र धारियों‘ (यानि बौद्ध संन्यासियों ) का वर्णन किया है जो मठों में रहा करते थे । एक ईरानी लेखक 'उमर-इब्ने-अल-अजरक अल किरमानी' ने 10वीं सदी में लिखी अपनी किताब 'किताब-अल-बुलदान' में भी तकरीबन ऐसा ही वर्णन किया है।

ईसा की दूसरी शताब्दी में गौतम बुद्ध के उपदेशों को उनके शिष्यों के द्वारा धर्मग्रंथों के रुप में लिपिबद्ध कर लिया गया था। कालांतर के अरब के समीपवत्र्ती देशों में बुद्ध के उपदेशों के साथ गये बौद्ध-प्रचारकों ने इन ग्रंथों का वहां की भाषाओं में अनुवाद भी किया था। तुर्क और सोगदी भाषाओं में अनुवादित बौद्धग्रंथों की प्रतियां आज भी प्राप्य है। अरब में राजा मगेश के समय बौद्ध संगीति का होना भी साबित है। इसलिये बुद्ध के बारे में ये साबित है कि उनसे अरब और अरब के निकटतस्थ  मुल्कों के वाशिंदें वाकिफ थी,  इसलिये कुरआन ने उनकी मिसाल दी।

और रसूल मनुष्य होतें हैं।

नबियों और रसूलों की एक बिशेषता कुरआन ने यह भी बताई है कि वो मनुष्य ही होतें हैं। यह अवधारणा गलत है कि वो मनुष्यों से इतर कुछ और हैं। कुरआन की आयतें है- 'उनके रसूलों ने उनसे कहा, हम तो वास्तव में बस तुम्हारे जैसे मनुष्य हैं।' (सूरह इब्राहीम, 11) कह दो: महिमावान् है मेरा रब ! क्या मैं इसके सिवा और भी कुछ हूँ एक मनुष्य हूँ जो 'रसूल' भी है? (सूरह बनी इसराईल, 93) (हे मुहम्मद!) कहोः मैं तो केवल एक मनुष्य हूँ तुम्हारी तरह ! (सूरह अल-कहफ, 110) सिद्धार्थ गौतम बुद्ध एक इंसान ही थे, अपनी जिंदगी में कभी भी उन्होंनें ये दावा नहीं किया कि वो कोई मानव से इतर देवदूत या कोई और प्राणी हैं। इसलिये उनका नबी होना इस दलील से साबित है।

हर नबी एक उम्र के बाद वफात पा गये।

इस संसार में खुदा ने किसी भी इंसान के लिये (चाहे वो नबी, रसूल या वलीउल्लाह ही क्यों न हो) अमरता नहीं रखी है। कुरान इस बारे में कई जगहों पर ये स्पष्ट कहता है, "और मुहम्मद तो बस एक रसूल हैं, उनसे पहले भी रसूल गुजर चुकें हैं।" (सूरह आले-इमरान, 144) "और (हे मुहम्मद!) हमने तुमसे पहले भी किसी मनुष्य के लिये (संसार में) अमरता नहीं रखी।" (सूरह अल-अंबिया, 34) "हर जीव को मौत को मजा चखना है, और हम अच्छी और बुरी हालतों में डालकर तुम सबकी परीक्षा करतें हैं। और तुम्हें हमारी ओर पलट कर आना है।" (सूरह अल-अंबिया, 35)

महापरिवाणसुत्त के अनुसार 80 बर्ष की आयु में भगवान बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन कुंडा नाम के लोहार से मिले भिक्षान्न के रुप मे ग्रहण किया था जिसे खाकर वो गंभीर रुप से बीमार पड़ गये थे और इसी से उनकी मृत्यु हो गई थी। ईसा से 483 साल पहले बुद्ध ने अपने शरीर का त्याग किया था। बौद्धधर्म में महापरिनिर्वाण कहा जाता हैं। इसलिये नबी होने की इस दलील पर सिद्धार्थ बुद्ध भी खड़े उतरतें हैं।

नबी और रसूल मानवीय आवश्यकताओं और गुणों से परे नहीं हैं।

अंबिया का दर्जा आम इंसानों से बेशक काफी बड़ा होता है परंतु फिर भी आम इंसानों की तरह वो भी मानवीय आवश्यकताओं और गुणों से परे नहीं थे। कुरआन इस बारे में कहता है, 'और हमने उन (रसूलों) को कोई ऐसा शरीर नहीं दिया था कि वे खाना न खायें, और न वे सदैव रहने वाले थे।' (सूरह अंबिया, 8) दूसरी जगह कुरआन फरमाता है- 'और तुमसे पहले हमने जितने रसूल भेजे हैं निःसंदेह वे सब खाना खाते और बाजारों में चलते-फिरते थे।' (सूरह फुरकान, 20) बुद्ध नबी होने की इस दलील को भी पूरा करतें हैं, उनकी जिंदगी की धटनाओं से ये साबित है कि भगवान ने उन्हें ऐसा शरीर नहीं दिया था कि वो बगैर खाने-पीने के जिंदा रह सके। यहां तक की उनका निर्वाण कुंडा नामक लोहार से मिले दूषित भिक्षान्न खाने से हुई थी। अपनी हिजरत के बाद तपस्या के आरंभिक दिनों उनका आहार केवली तिल-चावल था पर फिर उन्होंनें तिल और चावल लेना बंद कर दिया जिसके कारण उनका शरीर सूखकर कांटा हो गया और उनकी तपस्या भंग हो गई उन्हें ये बात समझ में आ गई कि नियमित आहार-विहार ही उनकी सफल तपस्या का कारण बनेगा।

हर नबी ने अपनी भाषा में उपदेश दिये।

और हमने जो भी कोई रसूल भेजा तो उसको अपनी जाति की भाषा के साथ भेजा, ताकि वह उनसे खोल-खोल कर बयान करे। (सूरह इब्राहीम, 4) सिद्धार्थ गौतम के समय संस्कृत का प्रचलन था पर जनसामान्य की भाषा पाली थी। संस्कृत ब्राह्मण अथवा उच्चवर्ण वालों की भाषा बनकर रह गई थी। इसलिये बुद्ध ने अपने उपदेश जनसामान्य की भाषा पाली में दिये ताकि उनके उपदेशों का लाभ समाज का हर वर्ग उठा सके। बौद्ध साहित्य त्रिपिटकों में संकलित है जो पालि भाषा में ही लिखे गये थे। ये त्रिपिटक सुत्तपिटक, विनयपिटक और अभिधम्मपिटक के नाम से जाने जातें हैं।

जिस तरह पवित्र कुरआन उतारा गया तो पूरी दुनिया के लिये था परंतु इसकी भाषा अरबी थी। (और हमने इसी तरह आप पर यह कुरआन अरबी वह्य के जरिये नाजिल किया है ताकि आप (सबसे पहले) मक्का के रहने वालों को और जो लोग उसके पास हैं, उनको डरायें, सूरह शूरा,7 ) ऐसा करना जरुरी इस लिये था क्योंकि कुरआन जिनपर उतारा गया था वो अरब थे और उनसे मुखातिब अरबी भाषा जानने वाले थे। बाद में कुरआन का अनुवाद दुनिया की कई भाषाओं में हुआ ताकि इसका फायदा दूसरी भाषाओं को जानने वाले भी उठा सके। बुद्ध ने भी अपने उपदेश जनसामान्य की भाषा में तो दिया पर साथ ही ये भी कहा कि मैं अपने शिष्यों को मेरे उपदेशों को अपनी-अपनी भाषा में संगृहीत करने की अनुमति प्रदान करता हूँ। उनके इस आदेश और स्वीकृति के बाद बौद्धग्रंथ पैशाची, संस्कृत, मागधी, तुर्क, यूनानी और कई अपभ्रंश भाषाओं में अनुवादित हुये।

निकाह हर नबी की सुन्नत

नबी (सल्ल0) ने अपनी एक हदीस में फर्माया था, "निकाह हर नबी की सुन्नत हैं।" इसी तरह पवित्र कुरआन की आयत में आता है, "और तुमसे पहले भी हम कितने रसूलों को भेज चुकें हैं, उन्हें हमने पत्नियाँ और बच्चे भी दिये थे।" (सूरह अर-रअद, 38) तमाम दूसरे नबियों की इस सुन्नत से सिद्धार्थ भी बंधे थे। 16 साल की उम्र में शाक्य कन्या यशोधरा के साथ उनका विवाह हुआ था जिनसे उन्हें राहुल नाम का पुत्र हुआ था।

हिजरत तमाम अंबिया की सुन्नत में है।

नबियों की सीरत से ये बात भी साबित है कि हिजरत की परंपरा उन सबकी सुन्नत रही है। तारीख गवाह है कि ईश्वर के भेजे तमाम अंबिया ने जब तक दीने-हक का प्रचार आरंभ न किया था वो अपनी कौम में हरदिल अजीज थे, पर जब उन्होंनें लोगों को झूठों माबूदों की इबादत छोड़कर तौहीद की दावत दी और बुराई से हटकर अच्छाई की तरफ आने की दावत दी तो उनकी कौमों ने उनपर जुल्मों सितम के पहाड़ तोड़ दिये और हिजरत पर मजबूर कर दिया। नबियों ने खुदा के लिये और सत्य की खोज में हमेशा हिजरत की है। हजरत नूह अपनी कौम को हक राह की तरफ बुलाते रहे पर जब उनकी कौम ने उनको ठुकरा दिया तो खुदा ने उन्हें अपने लोगों के साथ कश्ती में सवार होकर हिजरत करने का हुक्म दिया। "और नूह (पर भी हमारी कृपा हुई है) याद करो जबकि उसने पूर्वकाल में पुकारा था, तो उसके सुन ली और उसे और उसके लोगों को महापीड़ा से छुटकारा दिया।" (सूरह अल-अंबिया, 76)

पवित्र कुरआन हजरत लूत के बारे में कहता है-

'और लूत को हमने 'हुक्म' और 'ज्ञान' प्रदान किया, और उसे उस बस्ती से छुटकारा दिया जो गंदे कर्म करती थी, वास्तव में वो बड़े ही अवज्ञाकारी थे। (सूरह अल-अंबिया, 74) हजरत इब्राहीम को भी जब उनकी कौम ने अजाब दिया तो वो अपने भतीजे लूत के साथ अपने वतन से हिजरत कर गये। कुरआन फर्माता है- "और हम उसे और लूत को उस भूमि की ओर निकाल ले गये जिसमें हमने संसार वालों के लिये बरकत रखी है।" (सूरह अल-अंबिया, 71) हजरत मूसा की हिजरत के बारे में कुरआन कहता है- "हमने मूसा को वह्य की कि की रातों-रात मेरे बंदों को लेकर निकल जाओ।" (सूरह अश-शुअरा, 51 सूरह ताहा, 20:77) एक दूसरे मकाम पर कुरआन हजरत मूसा की एक और हिजरत का जिक्र करता है- मूसा ने कहाः मेरे रब! मेरा सिवाय अपने और अपने भाई के किसी पर अधिकार नहीं है, तो तू हमें इन अवज्ञाकारी लोगों से अलग कर दे। (अल-माइदह, 25) हिजरत का अवसर आखिरी नबी हजरत मुहम्मद (सल्ल0) की जिंदगी में भी आया था। आप (सल्ल0) पर भी जब मक्का के मुशरिकों ने जुल्मों-सितम के पहाड़ तोड़ दिये तब उन्होंनें अपने सहाबा हजरत अबूबक्र (सिद्दीक) के साथ मदीने की ओर हिजरत की थी।

हिजरत की ये परंपरा हजरत जुलकिफ़्ल (बुद्ध) की जिंदगी में भी आई। कहतें हैं कि जब सिद्धार्थ बुद्ध का जन्म हुआ था तब ज्योतिषियों ने कहा था कि ये बच्चा बड़ा होकर या तो महान चक्रवर्ती सम्राट बनेगा फिर महान संन्यासी बनेगा। ज्योतिषियों की इस बात को सुनकर उनके पिता परेशान हो गये थे और उन्होंनें वो तमाम जतन किये थे जो उनके बेटे सिद्धार्थ को दुःखों की छाया से भी दूर रखे। उनके महल के हर ऋतु के अनुकूल बनाया गया था। फिर भी 29 बर्ष की उम्र में उनकी नजर एक विकलांग, एक रोगी, एक वृद्ध और एक साधू पर पड़ ही गई। इन चार दृश्यों को देखकर सिद्धार्थ समझ गये गये कि सबका जन्म होता है, सबका बुढ़ापा आता  है,  सबको बीमारी होती है और शरीर क्षीण होते-होते एक दिन सबकी मौत होती है। इन सबको देखकर वो दुनिया से विरत हो गये। इन दुःखों से निवारण का उपाय खोजने की लिये अपनी पत्नी, पुत्र, राजपाट और तमाम सुख-सुविधाओं को छोड़कर धर को त्याग दिया। एक रात अपनी सोती हुई पत्नी और बच्चे को छोड़कर अपने धोड़े कंथक के साथ अनोमा नदी पार किया और यही से अपने परिचारक छंदक को विदा कर दिया। राजसी वस्त्र उतार दिये और अपने सुंदर केशों को काट डाला और ज्ञान की प्राप्ति और दुःखों से निवारण के उपाय खोजने निकल पड़े। ये सिद्धार्थ की हिजरत थी जो उन्होंने अपनी कौम को दुःखों से बाहर निकलने के उपायों को ढूंढने के लिये किया था।

नुजूमियों/ काहिनों और वलियों की गवाही

अंबिया की सीरत से ये बात साबित है कि खुदा ने उनकी जिंदगी के बाद के दौर में उनके ऊपर उनके नबी होने की बात खोली पर उनके नबी या रसूल होने की तस्दीक उस वक्त के नजूमी/ काहिन/ ज्योतिष या कोई औलिया करतें रहें हैं। हजरत इब्राहीम एक जालिम बादशाह नमरुद के दौर में पैदा हुये थे। जब उनकी विलादत होने वाली थी तब वहां के नूजूमियों ने सितारों की गणना कर नमरुद से कहा था कि इस साल तेरे इस शहर में एक ऐसा बच्चा पैदा होने वाला है जो तेरे देश और धर्म को तबाह करके रख देगा। जिसके बाद नमरुद ने हुक्म दे दिया था कि जितने लड़के भी इस जगह पैदा हों उन्हें कत्ल कर दिया जाये। हजरत मूसा के बारे में आता है कि उनकी विलादत के पूर्व फिरऔन ने एक रात ख्बाब में देखा कि शाम मुल्क में एक बड़ी आग पैदा हुई है जिसने किब्तियों के तमाम किले और हवेलियां जला दी हैं, शहर और गांव का नामो-निशान भी नहीं बचा है। इस ख्बाब से वो इतना डर गया कि उसने फौरन तमाम काहिनों और ख्बाब की ताबीर करने वालों को बुला भेजा। उनलोगों ने इस ख्बाब की ताबीर करते हुये कहा, 'इस ख्बाब की ताबीर ये है कि बनी-इसराइल में कोई ऐसा शख्स पैदा होगा जो किब्तियों की सल्तनत की बुनियाद उखेड़ कर रख देगा। ये ताबीर सुनते ही फिरऔन ने बनी-इसराईल में पैदा तमाम होने वाले तमाम बच्चों के कत्ल का हुक्म दे दिया। एक रात वहां के नुजूमियों ने फिरऔन से ये कहा कि हमें ये मालूम होता है कि आज की रात ही वो रात है जब तेरा वो दुश्मन अपनी माँ के शिकम में आयेगा।

नबी-ए-करीम (सल्ल0) की उम्र-शरीफ 12 साल थी जब वो अपने चाचा अबू-तालिब के साथ तिजारत के लिये मुल्के-शाम का सफर किया, इस दौरान 'बुसरा' नामक जगह पर एक ईसाई पादरी 'बुहैरा' के गिरजे के पास उनके काफिले का कियाम हुआ। बुहैरा तौरात और इंजील का माहिर था और वो उनमें वर्णित आखिरी-नबी की निशानिशों से परिचित था। इसलिये जैसे ही उसने मुहम्मद (सल्ल0) को देखा पहचान गया कि यही तौरात और इंजील में वर्णित आखिरी नबी हैं। उसने नबी-ए-पाक के चाचा को बुलाया और कहा कि तेरा ये भतीजा ही आखिरी नबी है जिसे खुदा ने तमाम जमाने के लिये रसूल बना कर भेजा है। मैनें देखा है कि शजर और हजर इनको सज्दा करतें हैं, अब्र उनपर साया करता है और इनके दोनों शानों के दरम्यान मुहरे-नुबुब्बत है। इसलिये तुम्हारे हक में यह बेहतर होगा कि तुम इनको लेकर आगे न जाओ और अपनी तिजारत का माल यही बेच कर मक्का लौट जाओ क्योंकि मुल्के-शाम के यहूदी इनके बहुत बड़े दुश्मन हैं जिससे इन्हें खतरा हो सकता है।

नबियों की सीरत में होते रहे इस वाकिये से सिद्धार्थ बुद्ध भी अछूते नहीं हैं। जब इनका जन्म हुआ था तब एक साधू द्रष्टा आसित ने अपने पहाड़ पर स्थित आवास से ये धोषणा की थी या तो यह बच्चा एक महान चक्रवर्ती सम्राट बचेगा या फिर महान संन्यासी। इनके जन्म के पांचवे दिन इनका नामकरण संस्कार के अवसर पर आये 8 ज्योतिषियों ने भी इनको देखकर वही भबिष्यवाणी की जो साधू द्रष्टा आसित ने की थी।

बुद्ध के उपदेशों और कुरआन की तालीम में साम्यता-

अल्लाह ने हजरत आदम से लेकर नबी करीम (सल्ल0) तक जितने भी नबी भेजे और जितनी किताबें उतारी, उन सबकी तालीम एक ही थी। इसलिये पवित्र कुरआन ये कहता है, 'कह दोः हम ईमान लाए अल्लाह पर और उस चीज पर जो हमारी ओर उतारी गई और उस चीज पर जो इब्राहीम, इसमाईल, इसहाक,याकूब, और उनकी संतान की ओर उतारी गई, और जो मूसा और ईसा को दी गई, और जो दूसरे सभी 'नबियों' को उनके रब की ओर से मिली हम उनमें किसी को उस संबंध से जो उनमें पाया जाता है अलग नहीं करते, और हम उसी के आज्ञाकारी हैं।'  (कुरआन, सूरह बकरह,136) गौतम बुद्ध ने अपने लोगों को जो उपदेश दिये वो प्रायः वही थे जो बाकी नबियों की तालीमों में थी। उदाहरणार्थ,

समानता और इंसानी बराबरी का संदेश-

कुरआन और हजरत मुहम्मद (सल्ल0) की तालीम इंसानी बराबरी का संदेश देता है। कुरआन ने स्पष्ट कहा 'ऐ लोगों! हमने तुम्हें एक मर्द और एक औरत के जोड़े से पैदा किया है और तुम्हारी बहुत-सी जातियाँ और वंश बनायें, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचान सको। अल्लाह के यहाँ तो तुममें सबसे ज्यादा इज्जत वाला वह है जो तुममें सबसे अधिक डर रखता है। (अल-हुजुरात: 13) अपने आखिरी खुत्बे में नबी-करीम (सल्ल0) ने फर्माया था, "किसी अरबी को न तो किसी गैर-अरबी पर श्रेष्ठता प्राप्त है और न ही किसी गैर-अरबी को किसी अरबी पर। न काला गोरे से उत्तम है और न गोरा काले से, आदर और प्रतिष्ठा का पैमाना सबसे लिये समान है। इतना ही नहीं नबी-करीम (सल्ल0) गुलामों के हक के भी बहुत बड़े पैरोकार थे। आपने फर्माया था,  "अपने गुलामों का ख्याल रखो, उन्हें भी वही खिलाओ जो खुद खाते हो और वही पहनाओ जो खुद पहनते हो।" नबी-करीम (सल्ल0) से पहले आने वाले नबियों की रहमत भी समाज के हर वर्ग और हर जाति के लिये थी। गौतम बुद्ध जिस जमाने में हुये थे उस समय का भारतीय समाज जातिभेद से ग्रस्त था। ऊँची जातियों के लोग नीचे के समाज के लोगों को हिकारत के नजर से देखते थे तथा समाज में अस्पृशयता का भी बोलबाला था। ऐसे वक्त में गौतम बुद्ध ने धोषणा की थी कि बौद्ध धर्म का द्वार तमाम जातियों और पंथों के लिये खुला है जिसमें हर आदमी का सम्मान और स्वागत है। ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्रों के लिये उनके पंथ और मठ में कोई भेद नहीं है। इंसानी बराबरी के बुद्ध के संदेशों का आज भी ये असर है कि बौद्ध संन्यासी होने के लिये किसी जाति बिशेष का होना आवश्यक नहीं है। बुद्ध ने धार्मिक और आध्यात्मिक दोनों क्षेत्र में स्त्री और पुरुषों के लिये समान अधिकार और योग्यता की बात की। समाज जीवन के हर क्षेत्र में वो समानता के पक्षधर थे। मानव एकता की पुष्टि के लिये वो यह तर्क भी देते थे कि चूंकि हर प्राणी समान रुप से दुःखी है, इस आधार पर सभी समान हैं। उनका ये भी कहना था कि जैसे सभी नदियाँ समुद्र में मिलकर अपना नाम, रुप और बिशेषताएं खो देती हैं, उसी प्रकार मानवमात्र उनके संघ में प्रबिष्ट होकर जाति, वर्ण आदि बिशेषताओं को खो देतें हैं और समान हो जातें हैं

मदिरापान का निषेध

पवित्र कुरआन ने शराब का स्पष्ट निषेध कर दिया था। सूरह माइदह की 90 वीं आयत में आता है, "हे ईमान लाने वालो! यह शराब और जुए के द्वारा तुम्हारे बीच वैमनस्य और द्वेष पैदा कर दे, और तुम्हें अल्लाह की याद और नमाज से रोक दे।" (सूरह अल-माइदह, 90) हजरत मुहम्मद (सल्ल0) की तालीमों में भी शराब और शराबियों पर लानत की गई है।शराब को लेकर बुद्ध का भी यही नजरिया था। बुद्ध ने अपने अनुयायियों को तालीम दी थी कि वो बूंद भर भी मदिरा का सेवन न करे, क्योंकि मदिरा का सेवन अनुशासन तथा आत्म-नियंत्रण के गुणों का विकास रोक देता है तथा इसका सेवन करने वाले इंसान से ये सारे गुण नष्ट हो जातें हैं।

मध्यम मार्ग अपनाने की तालीम

इस्लाम धर्म में मध्यम मार्ग में बहुत जोर दिया गया। पवित्र कुरान कई जगहों पर मध्यम मार्ग अपनाने की तालीम देता है। सूरह निसा की 171 वीं आयत में आता है,  "हे किताब वालों! अपने दीन में हद से न बढ़ो।" सूरह बकरह की 143 वीं आयत में उम्मते-मुहम्मदिया के बारे में कहता है, "और इसी तरह हमने उन्हें मध्यमार्गी (बीच का) समुदाय बनाया है। चौथे खलीफा हजरत अली (रजि0) ने एक बार कहा था कि "मुझसे मुतल्लिक दो जमाअतें बर्बाद हो जायेंगी, एक वो जो मेरी मुहब्बत में हद से निकल जायेंगें और दूसरी वो जो मेरी नफरत में हद से निकल जायेंगें।" नबी-करीम (सल्ल0) अपनी हदीस में फर्मातें हैं, प्रत्येक कार्य में मध्यमार्ग उत्तम हैं।" नबी करीम (सल्ल0) अपनी जिन्दगी में मध्यममार्ग अपनाने वाले थे ! एक बार तीन व्यक्ति नबी (सल्ल0) के घर आये और नबी (सल्ल0) के इबादत के विषय में पूछा ! जो उनको बताया गया, उन्होंने उसे बहुत कम समझा और कहा, हम नबी (सल्ल0) की श्रेणी तक कैसे पहुँच सकते हैं?

अल्लाह ने तो आपके पिछले और भविष्य में होने वाले सारे गुनाहों को माफ़ कर दिया है ! फिर उनमें से एक ने कहा, मैं तो सदैव पूरी रात नमाज़ पढूँगा ! दूसरे ने कहा, मैं सदैव रोज़े रखूँगा और तीसरे ने कहा, मैं सदैव स्त्रियों से दूर रहूँगा और कभी निकाह नहीं करूँगा ! जब नबी (सल्ल0) आये और आपको उनके बातों की सूचना दी गई तो आपने फ़रमाया, क्या तुमलोगों ने ऐसा कहा ? अल्लाह की कसम मैं तुममें सबसे ज्यादा अल्लाह से डरने वाला हूँ, लेकिन मैं रोज़े भी रखता हूँ और छोड़ भी देता हूँ ! रात में नमाज़ें भी पढ़ता हूँ और सोता भी हूँ और विवाह भी करता हूँ, तो जो मेरे मार्ग से हटेगा वो हममें से नहीं ! (बुखारी, मुस्लिम) गौतम बुद्ध ने जब ज्ञान प्राप्ति के लिये गृह-त्याग किया था तब उनकी धारणा थी कि भोजन ज्ञान-प्राप्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा है इसलिये अपने तप के आरंभ में उन्होंनें भोजन के रुप में केवल तिल-चावल लेना शुरु किया पर इससे जल्दी ही उनके शरीर और स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ना शुरु हो गया और उनका शरीर सूखकर कांटा हो गया।

इस हालत में छः साल तपस्यारत रहने के बाबजूद उनकी तपस्या सफल नहीं हुई। बुद्ध तपस्या सफल न होने के कारणों पर विचार कर ही रहे थे कि एक दिन उनके सामने से कुछ स्त्रियों का गुजर हुआ जो एक गीत गाती हुई चल रहीं थी। जिसके बोल थे, "वीणा के तारों को ढ़ीला मत छोड़ो क्योंकि इससे उसका सुरीला स्वर अवरुद्ध तय हो सकता है और न ही उसे इतना कस दो कि उसे बजाने वाला की अंगुलियाँ कटने लगे या वीणा के तार ही टूट जाये।" इस धटना को बुद्ध को ये सीख मिली की हर कार्य में मध्यम मार्ग ही सर्वोत्तम होता है। उन्होंनें अपने तप में अपनाये जाने वाले कठोरता को त्याग दिया और ज्ञान प्राप्ति के मध्यम मार्ग को अपना लिया। 'धर्मचक्र प्रवर्तन' के रुप में यह बुद्ध का पहला उपदेश भी यही था। (विनय पिटक)एक मुसलमान के लिए ये फ़र्ज़ है की वो खुदा की तरफ से भेजे गए किसी भी अंबिया का इनकार न करें और उनको तो बिलकुल भी नहीं जिन्हें पवित्र कुरान नाम से याद किया है ! सिद्धार्थ गौतम बुद्ध हिन्दू और बौद्ध दोनों ही धर्मों में सामान रूप से पूज्य और श्रद्धा के पात्र हैं, उनका सम्मान करना, उनके प्रति आदर भाव रहना हिन्दू, बौद्ध और इस्लाम मत के मानने वालों के बीच एकता का महान सेतु बनेगा !

अभिजीत मुज़फ्फरपुर (बिहार) में जन्मे और परवरिश पाये और स्थानीय लंगट सिंह महाविद्यालय से गणित विषय में स्नातक हैं। ज्योतिष-शास्त्र, ग़ज़ल, समाज-सेवा और विभिन्न धर्मों के धर्मग्रंथों का अध्ययन, उनकी तुलना तथा उनके विशलेषण में रूचि रखते हैं! कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में ज्योतिष विषयों पर इनके आलेख प्रकाशित और कई ज्योतिष संस्थाओं के द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता की कोशिशों के लिए कटिबद्ध हैं तथा ऐसे विषयों पर आलेख 'कांति' आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इस्लामी समाज के अंदर के तथा भारत में हिन्दू- मुस्लिम रिश्तों के ज्वलंत सवालों का समाधान क़ुरान और हदीस की रौशनी में तलाशने में रूचि रखते हैं।

URL: https://newageislam.com/hindi-section/is-there-any-description-gautam/d/66389 

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