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Hindi Section ( 17 Jul 2014, NewAgeIslam.Com)

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New Government and Muslims नई सरकार और मुसलमानों की सरगर्मियाँ

 

अब्दुल अज़ीज़

14 जुलाई, 2014

मोदी सरकार के आने के बाद मुसलमानों का वो वर्ग जो हमेशा सोच विचार कर काम करता है और वो संगठन जो इस्लाम और मुसलमानों की सुरक्षा के लिए चिंतित रहते हैं अपने अपने तरीके से मुसलमानों को संबोधित कर रहे हैं कि मुसलमानों को ये करना चाहिए ये नहीं करना चाहिए। आम मुसलमानों का जहां तक सवाल है और मुसलमानों के वो संगठन जिनको हालात और समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है उनका रुझान ये है कि वो जहां थे और जैसे थे उसी तरह रहेंगे और अपने काम से काम रखेंगे चाहे मुसलमानों के सिर पर पहाड़ गिरे या आग बरसे। जो मुसलमानों के संगठन विश्वासों की जंग में लगे हुए हैं, परम्परा के अनुसार अपना काम करते रहेंगी, जो पंथीय झगड़ों में उलझाते हैं या उलझे हैं वो अपनी आदत से बाज़ नहीं आएंगे।

छानबीन से काम लिया जाए और सर्वे किया जाए तो मुसलमानों में जो व्यापक दृष्टि वाले और सुधारवादी हैं उनकी संख्या बहुत कम है और इतने बेअसर हैं कि तथाकथित मौलवी, मौलाना या उलमा हैं, वो तथाकथित धार्मिक सभाओं में मुसलमानों के ही किसी वर्ग या विचारधारा को निशाना बनाते हैं और अपनी जेबें भरते हैं। अगर सुधारवादियों की टीम मज़बूत होती तो ये किराए के लोग फित्ना और फसाद से कब के बाज़ आ गए होते और समाज में आदर्श बन कर ज़िंदगी गुज़ारते पर ऐसे लोगों के भाषणों के लिए फीस अदा की जाती है जो मुसलमानों को लड़ाने और टकराने का काम अंजाम देते हैं।

इन झगड़ों को मिटाने के लिए बहुतों ने काम किया है और अब भी कर रहे हैं लेकिन मुसलमानों को झगड़ा ही रास आता है वो भी आपसी क्योंकि ये बहुत आसान और मुश्किल काम नहीं है जिसे अंजाम देने के लिए कोई विशेष मेहनत नहीं करनी पड़ती, नईम सिद्दीकी ने कहा था कि,

दुश्मन के सामने भी हैं हम जुदा जुदा

अल्लामा इक़बाल ने मुसलमानों को उनकी हैसियत बताई थी, उनके पतन और गिरावट पर रौशनी भी डाली थी उनके शेर सुधारवादी सभाओं में पढ़े भी जाते हैं।  

मुन्फअत एक है इस क़ौम का नुक़सान भी एक,

एक ही सबका नबी, दीन भी एक, ईमान भी

हरम पाक भी, अल्लाह भी, कुरान भी एक

कुछ बड़ी बात थी होते जो मुसलमान भी एक,

फिरक़ाबंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं,

क्या ज़माने में पनपने की यही बातें हैं

यूं तो सैयद भी हो, मिर्ज़ा भी हो, अफ़ग़ान भी हो

तुम सभी कुछ हो, बताओ तो मुसलमान भी हो

अल्लामा इक़बाल ने एकता और सामूहिकता की क़दर व क़ीमत भी मुसलमानों पर स्पष्ट की थी:

आबरू बाकी तेरी मिल्लत की जमीअत से थी  

जब ये जमीअत गयी दुनिया में रुस्वा तू हुआ

अपनी असलियत पर क़ायम था जो जमीअत भी थी

छोड़कर गुल को परेशान कारवाँ भी हुआ

इसके लिए दलील भी ​​पेश की थी

फ़र्द क़ायम रब्ते मिल्लत से तन्हा कुछ नहीं

मौज है दरिया में और बैरूने दरिया में कुछ नहीं

इन हक़ीक़तों का तथ्यों का असर उन पर कुछ नहीं हुआ जो मुसलमानों को टुकड़ों टुकड़ों में देखना चाहते हैं और सांप्रदायिकता को पसंद करते हैं।

इस बिंदु पर अच्छी तरह से विचार किया जाए तो ऐसे लोग ऐसी अज्ञानता से ग्रस्त हैं जो कुफ्र से बदतर है लेकिन वो अपने आपको मुसलमान कहते हैं और इस कुफ्र वाले काम को सही धर्म समझते हैं जबकि कुरान में अल्लाह ने दीन क़ायम करने पर ज़ोर दिया है और फूट से बचने का हुक्म दिया है। दीन की रस्सी को मज़बूती से थामने और पकड़े रहने की ताकीद की है और इसके फायदे पर प्रकाश डाला है कि इस्लाम की नेमत ने किस तरह दुश्मनों को भाई भाई बना दिया, एक दूसरे को ऐसा बना दिया जिसकी मिसाल दुनिया के किसी अन्य भाग में नहीं मिलती। आज स्थिति ये है कि वही दीन जो भाई भाई बना रहा था उसी धर्म के नाम पर खींचतान और विवाद की ऐसी दीवार खड़ी दी कर दी गई है कि गिराने वाले खुद ज़ख्मी हो जाते हैं और कभी कभी ज़िंदगी से भी हाथ धो बैठते हैं और दीवार खड़ी करने वाले ग़ाज़ी या शहीद कहलाते हैं।

ऊपर जिन बातों का उल्लेख किया गया है इससे मुसलमानों की हवा उखड़ती है मुसलमान कमज़ोर होते हैं जैसा अल्लाह ने अपनी किताब कुरान में कहा है तो क्या इस कमज़ोरी को दूर किए बिना भी मुसलमानों में मज़बूती या स्थिरता सम्भव है? ये बिंदु विचारणीय है कि जो लोग अंदर रह कर मुसलमानों के दीमक बने हुए हैं उनके दीमकों के लिए कोई दवा ईजाद करने की सख्त ज़रूरत है क्योंकि आंतरिक बीमारी बाहरी रोग से अधिक खतरनाक होता है।

सुधारवादियों को आम मुसलमानों के सामने इस हक़ीक़त को बताना चाहिए कि जो लोग दूसरों के संगठनों से जुड़े हैं वो मिल्लत के अपने नहीं हो पाते चाहे हालात कितने ही खराब क्यों न हो जाएं। बाबरी मस्जिद जब गिरी उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। मस्जिद के विध्वंस से पहले पार्टी के एक शरीफ़ सदस्य थे जो दो बार रेल मंत्री भी रह चुके थे उन्होंने ऐलान किया था कि उनकी पार्टी की सरकार की मौजूदगी में अगर मस्जिद ध्वस्त होती है तो वो पार्टी से इस्तीफा दे देंगे, लेकिन उन्होंने मस्जिद गिरने के बाद जब इस्तीफा नहीं दिया तो जिन लोगों ने कारण पूछा तो उन्होंने जवाब में कहा कि वो मुसलमानों के प्रतिनिधि नहीं हैं कांग्रेस के प्रतिनिधि हैं। उत्तर प्रदेश में छोटे बड़े एक सौ दस दंगे हुए। मुज़फ्फ़र नगर ​​के दंगों में कम से कम एक हज़ार लोग मारे गए, अरबों की संपत्ति नष्ट हुई और तीस गांव नेस्त व नाबूद कर दिये गए पर समाजवादी पार्टी से एक व्यक्ति ने भी इस्तीफा नहीं दिया अगर सारे मुसलमान जो पार्टी में हैं वो मिल्लत से जुड़े होते और मुसलमानों के ग़म में शरीक होकर इस्तीफा देते तो क्या पार्टियों के दिमाग पर कोई असर नहीं पड़ता?

इस लेख से पहले एक लेख जिसका शीर्षक था, ''अद्ल व इंसाफ के अलमबरदार बनिये'' इसमें लेखक ने इस हक़ीक़त पर ज़ोर दिया था कि आंतरिक परिवर्तन के बिना मुसलमानों में किसी बड़े और उल्लेखनीय परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती और इस पर प्रकाश डाला था कि मुसलमान अपने अंदर से मुनाफ़िक़त को भी खत्म करें और दूसरों को भी इसी बात की हिदायत करें जो वो खुद करते हैं या करने का इरादा रखते हैं। अल्लाह ने सूरे सुफ में कहा है कि अल्लाह को वो बात सख्त नागवार और नापसंद है कि कर कुछ और कहो कुछ। हदीस में चार सिफ़तें (गुण) ऐसी हैं कि जिस व्यक्ति में चारों पाई जाएं वो खालिस मुनाफिक (कपटी) है और जिसमें कोई एक सिफ़त पाई जाए उसके अंदर नेफ़ाक़ (पाखण्ड) की ख़सलत है जब तक कि वो छोड़ न दे। ये कि जब अमानत उसके सुपुर्द की जाए तो उसमें खयानत (विश्वासघात) न करे और जब बोले तो झूठ बोले और जब संकल्प ले तो उसका उल्लंघन कर जाए और जब लड़े तो नैतिकता की सारी हदें तोड़ डाले।

अगर हम में पाखण्ड बढ़ गया है तो सत्य और न्याय की कमी हो तो क्या इसकी तरफ ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है? इस प्रकार आंतरिक कई और चीजें जिसकी ओर लेखक ने ध्यान दिलाया था जैसे ज़ात बनाना, परिवार वालों की शिक्षा दीक्षा, और समाज सुधार समाज, ये वो ज़िम्मेदारियाँ हैं कि जो हम पर अल्लाह की तरफ से फर्ज़ की गई हैं। ये ज़िम्मेदारियाँ न पुरानी सरकार का काम था कि वो पूरी करती और न ही इस भगवा सरकार की जिम्मेदारी है कि वो पूरी करे बल्कि नई भगवा सरकार की योजना में ये शामिल है कि मुसलमानों के आंतरिक झगड़ों को हवा दे ताकि वो पहले से भी अधिक कमज़ोर हो जाएं। इलेक्शन के मौक़े पर किसी ने स्पष्ट रूप से किसी ने दबे शब्दों में इस आंतरिक झगड़ों को दवा देने की कोशिश की थी। सुब्रमण्यम स्वामी और राजनाथ सिंह के नाम इस समबंध में लेखक ने अपने एक लेख में उल्लिखित किया था।

जहां तक नई सरकार है इससे पहले भी नकारात्मक कार्यों की उम्मीद थी और अब भी यही उम्मीद है। जिसने गुजरात में दंगे बरपा किये थे और सांप्रदायिकता को हवा दी और लगातार देता रहा है अब वो देश का प्रधानमंत्री है और जो उसका दाहिना हाथ था यानी अमित शाह जिसने मुज़फ्फ़र नगर ​​और गुजरात के दंगों को कराने में भाग लिया अब वो सत्तारूढ़ पार्टी का प्रमुख बन गया है। अब आशंकाओं की बात नहीं है बल्कि अब विश्वास के साथ ये बात कही जा सकती है कि बुराई की बातें और बुराई के काम अधिक होंगे। वैसे अल्लाह के हाथ में है कि बुराई में अच्छाई को पैदा कर दे, ये शायद  तभी होगा कि मुसलमान मुसलमान बनने की ओर आकर्षित हो जाएं और अपने आंतरिक झगड़ों को बालाए ताक़ रख दें।  

खुदा ने आज तक इस क़ौम की हालत नहीं बदली

न हो जिसको ख़याल आप अपनी हालत के बदलने का

14 जुलाई, 2014 स्रोतः रोज़नामा जदीद ख़बर, नई दिल्ली

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