सुभाष गाताडे
आतंकी हमले के बाद नार्वे की राजधानी ओस्लो के दक्षिण में स्थित नेसोडेन में जब 18 साल की बानो रशीद का जनाजा उठा तो वहां एकत्रित लोगों की आंखें नम हो उठीं। जनाजे के आगे-आगे ल्यूथेरन चर्च के पादरी और इमाम चल रहे थे और पीछे सैकड़ों की तादाद में मौन धारण किये लोगचल रहे थे। बानो रशीद का परिवार 1996 में उत्तरी इराक के कुर्दिस्तान से वहां पहुंचा था। दरअसल बानो उतरोया द्वीप पर आयोजित लेबर पार्टी के यूथ कैम्प में शामिल थीं।
नार्वे ने जिस तरह आतंकी हमले की जड़ में व्याप्त आपसी घृणा के पार जाने की सम्मिलित कोशिश की है, वह काबिले तारीफ है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आतंकी घटना के बाद शासकों और जनता को किस तरह सन्तुलित आचरण करना चाहिए, इसकी एक मिसाल नार्वे ने कायम की है। नार्वे के सन्तुलित आचरण के विपरीत अमेरिका ने 9/11 के बहाने पूरी दुनिया में 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' छेड़ने का ऐलान कर दिया था, जिसने पहले अफगानिस्तान और बाद में इराक में कहर बरपा किया, और दुनिया भर में हजारों निरपराधों को महज सन्देह के आधार पर सलाखों के पीछे धकेल दिया और यातनाएं दीं।
बहुत कम लोग इस हकीकत से वाकिफ हैं कि कई अन्तरराष्ट्रीय विवादों को सुलझाने में नार्वे ने अपने स्तर पर हमेशा पहल की है। पड़ोसी मुल्क श्रीलंका जिन दिनों लिट्टे के साथ हथियारबन्द संघर्ष में मुब्तिला था, उन दिनों दोनों पक्षों के बीच शान्ति वार्ता सम्पन्न कराने में नार्वे की अहम भूमिका रही है। इतना ही नहीं, विगत कुछ समय से इस्राइल की नीतियों के खिलाफ उसके अन्तर्राष्ट्रीय बहिष्कार की जो मुहिम धीरे धीरे जोर पकड़ रही है, उसमें भी नार्वे की सहभागिता है। नार्वे की जनता के ताजा मूड को बयान करता एक खुला खत पिछले दिनों यूरोप के कई अखबारों में प्रकाशित हुआ है। ब्रेविक के आतंकी हमले में अपने पांच दोस्तों को खो चुका सोलह साल एक का किशोर लिखता है कि 'तुम लाख कहो, मगर सच्चाई यह है कि तुम हार रहे हो। अपनी कातिलाना हरकत से तुमने नये नायकों को पैदा किया है।'
उम्मीद की जानी चाहिए कि नार्वे और उसकी जनता अपने हालिया गुजरे अतीत को भूलते हुए, उसे एक दु:स्वप्न मानते हुए, नया पन्ना पलटे और इस मामले में भी नजीर बने कि अलग-अलग सम्प्रदायों, अलग अलग राष्ट्रीयताओं के लोगों को साथ लेकर कैसे आगे बढ़ा जा सकता है। यह कहना भले ही आसान हो, मगर उसका अमल उतना ही कठिन है। इसकी वजह समुदाय विशेष के खिलाफ चतुर्दिक व्याप्त घृणा का माहौल है, जो एक सहज बोध बना हुआ है।
यूरोपियन पुलिस संगठन (यूरोपोल) की हाल के वर्षों की रिपोर्टों के कुछ अंश यूरोप के सन्दर्भ में इस्लामिक आतंकवाद की वस्तुस्थिति बयां करते हैं। जानने योग्य है कि आम धारणा के विपरीत आतंकवादी घटनाओं के सन्दर्भ में वह बेहद मामूली खिलाड़ी हैं। आंकड़ों के मुताबिक 2007 से 2010 के बीच के अन्तराल में महज ऐसी छह घटनाएं देखी जा सकती हैं, जिनके लिए इस्लामिक अतिवादियों को जिम्मेदार माना जा सकता है. यह ऐसा कालखंड है जिस दौरान यूरोप में आतंकी घटनाएं कम होती गयी हैं। उदाहरण के लिए अगर 2007 में 581 घटनाएं हुई तो 2010 तक आते-आते इनकी संख्या 249 ही देखी गयी। आतंकी घटनाओं का अधिकतर हिस्सा अलगाववादियों के जिम्मे आता है, जो मुख्यत: फ्रान्स और स्पेन में सक्रिय हैं। इनमें एक श्रेणी ऐसे लोगों और संगठनों की है जो यूरोप में रह कर आजादी चाहते हैं। उदाहरण के लिए स्पेन का ईटीए। वहीं दूसरी श्रेणी ऐसे अलगाववादियों की है जिनके संघर्ष दुनिया के दूसरे कोने जैसे कोलम्बिया, कुर्दिस्तान में चल रहे हैं, जो यूरोप में भी हंगामा करके मसले की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं।
प्रश्न उठना लाजिमी है कि यदि यूरोप के अन्दर इस्लामिक आतंकवाद कोई बड़ा खतरा नहीं है तो इस्लाम को आतंकवाद के साथ जोड़ने या उसके समकक्ष रखने की योजनाएं क्यों फलती-फूलती रही हैं। तथ्य बताते हैं कि विगत दशक में मुस्लिम विरोधी हिंसा पश्चिमी समाजों का हिस्सा बन गयी है, इसमें राज्य की संरचनाओं एवं समाज में इन तबकों के खिलाफ कायम मौन पूर्वाग्रह एवं भेदभाव की संरचनात्मक हिंसा का मसला भी शामिल है। हम इस बात को यूं भी देख सकते हैं कि जब तक यह पता नहीं चला कि आतंकी हमले को ब्रोविक ने अंजाम दिया है, तब तक आतंकवाद के 'विशेषज्ञों' एवं पत्रकारों ने आसानी से मान लिया था कि यह जेहादी आतंकवादियों की कार्रवाई है, जो नार्वे की सेना की अफगानिस्तान में उपस्थिति का विरोध करने के लिए है। स्टार न्यूज ने किसी फर्जी जेहादी संगठन के नाम का भी उल्लेख किया, जिसने कथित तौर पर इस आतंकी हमले की जिम्मेदारी ली थी।
यूरोप में आकार ले रहे इस ईसाई उग्रपंथ का बहु संस्कृतिवाद पर हमला या उन नीतियों की मुखालफत जो सहिष्णुता की बात करती हैं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की हिमायत करती हैं, एक तरह से हमें मुख्यधारा के राजनेताओं व मुख्य विपक्षी पार्टियों के बयानों की भी याद दिलाता है 'इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली' के सम्पादकीय में लिखा गया है कि बुश जूनियर से लेकर फ्रांस के सरकोजी और ब्रिटेन के कैमरून और जर्मनी के मर्केल तक इसी किस्म के विचारों को बार-बार प्रसारित किया जाता रहा है और उन्हें मुख्यधारा का विमर्श बना दिया गया है। इन बातों का निचोड़ यही है कि मुसलमान पश्चिम पर हावी हो रहे हैं। यहां लोकसंख्या के आधार पर जबरदस्त परिवर्तन होनेवाला है, मुसलमान हिंसक और मध्ययुगीन होते हैं, पश्चिमी मूल्यों को बहुसंस्कृतिवाद से खतरा है, आदि। ब्रोविक के बहाने हम इस कटु सच्चाई से वाकिफ होते हैं कि ऐसे विचार और राजनीतिक पोजिशन्स, जो कुछ दशक पहले अतिवादी व पूर्वाग्रहों से लैस मानी जाती थी, अब 'मुख्यधारा' के केन्द्र में धड़ल्ले से पहुंच रहे हैं।
घृणा के विचारों का यूरोपीय राजनीति की मुख्यधारा में पहुंचना हमें बरबस भारत की परिस्थिति याद दिलाता है, जहां हम इसी तर्ज पर 'बहुसंख्यकवादी' रुझानों को राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा बनते देखते हैं, जिन्हें हम बहुंसख्यकवादी दृष्टिकोण की बढ़ती लोकप्रियता, धार्मिकता की अत्यधिक अभिव्यक्ति, समूह की सीमाओं को बनाए रखने पर जोर, घोर साम्प्रदायिक घटनाओं पर जागरूकता की कमी, अल्पसंख्यकों के अधिकारों के प्रति असहमति के रूप में परिलक्षित होते देखते हैं।
स्रोतः समय लाइव
URL: https://newageislam.com/hindi-section/well-balanced-precedent-freedom-terror/d/5364