ज़हरा नसरीन देहलवी
इस्लाम ने औरत को उच्च स्थान और मर्तबा दिया है। इस्लाम ने इंसान को जो सम्मान दिया है इसमें पुरुष और महिला दोनों बराबर के भागीदार हैं, और वह इस दुनिया में अल्लाह के आदेश में बराबर, इसी तरह आख़िरत में इनाम में भी बराबर हैं। अल्लाह तआला ने इसी ओर इशारा करते हुए कहा है:
وَلَقَدْ کَرَّمْنَا بَنِي آدَمَ وَحَمَلْنَاھُمْ فِي الْبَرِّ وَالْبَحْرِ وَرَزَقْنَاھُم مِّنَ الطَّیِّبَاتِ وَفَضَّلْنَاھمْ عَلَ کَثِیرٍ مِّمَّنْ خَلَقْنَا تَفْضِیلًا
महिला का हर मुसलमान की जीवन में प्रभावी भूमिका है। सालेह और नेक समाज की नींव रखने में महिला ही पहला मदरसा है, जब वह अल्लाह की किताब और सुन्नत रसूल का पालन करती होl क्योंकि अल्लाह की किताब और सुन्नते रसूल को थाम लेना ही हर अज्ञानता और गुमराही से दूरी का कारण हैl कौमों की गुमराही का सबसे बड़ा कारण अल्लाह की शरीअत से दूरी है जिसको अंबिया ए किराम कौमों के कल्याण के लिए लेकर आए।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:
'' ترکت فیکم امرین لن تضلوا ما تمسکتم بھما کتاب اللہ وسنتی ''
अनुवाद:मैं तुम्हारे अंदर दो चीजें छोड़ कर जा रहा हूँl जब तक इन दोनों को मजबूती से थामे रखोगे कभी गुमराह न होगे.एक अल्लाह की किताब और मेरी सुन्नत।
कुरआन में महिला के महत्व और स्थान के बारे में कई एक छंद मौजूद हैंl औरत चाहे माँ हो या बहन हो, पत्नी हो या बेटी हो, इस्लाम ने उनमें से प्रत्येक के अधिकार व फ़राइज़ को विस्तार के साथ वर्णन किया है।
माँ का धन्यवाद करना,उसके साथ भलाई से पेश आना और सेवा करना महिला के महत्वपूर्ण अधिकारों में से हैlहुस्ने सुलूक और अच्छे आचरण से पेश आने के संबंध में माँ का अधिकार पिता से अधिक है, क्योंकि बच्चे के जन्म और प्रशिक्षण के संबंध में माँ को अधिक पीड़ा का सामना करना पड़ता हैl और इस्लाम ने इन सभी कष्टों को सामने रखते हुए मां को अधिक हुस्ने सुलूक का हकदार करार दिया है,जो इस्लाम का महिलाओं पर बहुत बड़ा अहसान हैl इरशादे बारी तआला है:
"وَصَّیْنَا اْلِانْسَانَ بِوَالِدَیْہِ حَمَلَتْہُ اُمُّہٗ وَھْنًا عَلٰی وَھْنٍ وَفِصٰلُہٗ فِی عَامَیْنِ اَنِ اشْکُرْ لِی وَلِوَالِدَیْکَ اِلَیَّ الْمَصِیْرُ ''
अनुवाद: हमने इंसान को उसके माता-पिता के बारे में समझाया है, उसकी माँ ने दुख पर दुख उठाकर उसे गर्भावस्था रखा और उसके दूध छुटाई के दो वर्षों में है कि तू मेरा और अपने माता-पिता का धन्यवाद कर, (तुम सभी को) मेरी ही ओर लौटकर आना है। (सूरह लुकमान: 14)
इस्लाम ने औरत को अपमान और गुलामी जीवन से मुक्त कराया और ज़ुल्म व शोषण से मुक्ति दिलाई। इस्लाम ने इन सभी बुराई को समाप्त कर दिया जो महिला के मानव गरिमा के खिलाफ थीं और उसे अनगिनत अधिकार प्रदान किए जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
1- अल्लाह नें निर्माण के स्तर में महिला और पुरुष को बराबर रखा है। मनुष्य होने के नाते महिला वही स्थान है जो पुरुष को प्राप्त है, इरशाद रब्बानी है:
'' یا ایھا الناس اتقوا ربکم الذی خلقکم من نفس واحدۃ وخلق منھا زوجھا وبث منھما رجالا کثیرا و نساء ''
अनुवाद: ऐ लोगों! अपने रब से डरो जिसने तुम्हें एक जान से पैदा किया और उसी से उसका जोड़ा बनाया और इन दोनों से कई पुरुष और महिला फैला दिए (निसा: 1)
2- पुरुष और महिला दोनों में से जो कोई अमल करेगा उसे अल्लाह से पूरा और बराबर इनाम मिलेगा। इरशाद रब्बानी है:
''فَاسْتَجَابَ لَکُمْ رَبُّکُمْ أَنِّي لاَ أُضِیعُ عَمَلَ عَامِلٍ مِّنکُم مِّن ذَکَرٍ أَوْ أُنثَی بَعْضُکم مِّن بَعْضٍ ''
अनुवाद ''तो उनकी प्रार्थना सुन ली उनके रब ने कि मैं तुम में काम वाले की मेहनत अकारत नहीं करता पुरुष हो या महिला तुम आपस में एक हो। (आले इमरान: 195)
3- इस्लाम से पहले नवजात बच्ची को जिंदा जमीन में गाड़ दिया जाता था। यह रस्म न थी बल्कि मानवता की हत्या था। लेकिन जब इस्लाम आया तो ऐसी बच्चियों को जिंदा दफ़न होने से निजात मिली।
4- इस्लाम ने औरत को प्रशिक्षण दिया और नुफ़्क़ा का अधिकार दिया कि उसे रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और इलाज की सुविधा '' वालियुल अम्र '' की तरफ से मिलेगी।
5- महिला सम्मान और मर्यादा को कलंकित करने वाले जाहिलियत के दौर के प्राचीन निकाह जो वास्तव में व्यभिचार थे, इस्लाम ने उन सब को बातिल करके महिला को सम्मान दिया।
6- इस्लाम ने पुरुषों की तरह महिलाओं को भी स्वामित्व दिया है। वे न केवल खुद कमा सकती है बल्कि विरासत के तहत प्राप्त होने वाली संपत्ति की मालिक भी बन सकती है। इरशाद बारी तआला है:
'' لِّلرِّجَالِ نَصیبٌ مِّمَّا تَرَکَ الْوَالِدَانِ وَالْأَقْرَبُونَ وَلِلنِّسَاءِ نَصِیبٌ مِّمَّا تَرَکَ الْوَالِدَانِ وَالْأَقْرَبُونَ مِمَّا قَلَّ مِنْہُ أَوْ کَثُرَ نَصِیبًا مَّفْرُوضًا ''
अनुवाद: पुरुषों का उस माल में एक हिस्सा है जो माँ-बाप और नातेदारों ने छोड़ा हो; और स्त्रियों का भी उस माल में एक हिस्सा है जो माल माँ-बाप और नातेदारों ने छोड़ा हो - चाह वह थोड़ा हो या अधिक हो - यह हिस्सा निश्चित किया हुआ है (सूरह निसा: 7)
7- आकाए दो जहां सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने महिला को बतौर माँ सबसे अच्छा व्यवहार का हकदार करार दिया।
हज़रत अबु हुरैरा रज़ियल्लाहू अन्हू से रवायत है कि एक आदमी हुज़ूर नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बारगाह में हाज़िर होकर अर्ज़ गुज़ार हुआ या नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम!मेरे हुस्ने सुलूक के सबसे लायक कौन है?आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया तुम्हारी माँ, अर्ज़ किया फिर कौन है? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: तुम्हारी माँ, अर्ज़ किया फिर कौन है? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फिर कहा तुम्हारी माँ, अर्ज़ किया फिर कौन है? कहा तुम्हारे पिता। (बुखारी शरीफ)
8- वह समाज जहां बेटी के जन्म को अपमान और लज्जा का कारण बताया जाता था। इस्लाम ने बेटी को न केवल सम्मान और आदर का स्थान प्रदान किया बल्कि उसे विरासत का हकदार भी ठहराया। इरशाद रब्बानी है:
'' یُوصِیکمُ اللّہُ فِي أَوْلاَدِکُمْ لِلذَّکَرِ مِثْلُ حَظِّ الْأُنثَییْنِ فَإِن کُنَّ نِسَاءً فَوْقَ اثْنَتَیْنِ فَلَھُنَّ ثُلُثَا مَا تَرَکَ وَإِن کَانَتْ وَاحِدَۃً فَلَھَا النِّصْفُ ''
अनुवाद:'' अल्लाह तुम्हें आदेश देता है तुम्हारी औलाद के बारे में बेटे का हिस्सा दो बेटियों बराबर है फिर अगर निरी लड़कियों हों अगरचे दो से ऊपर तो उन्हें तुर्कह दो तिहाई और अगर एक लड़की हो तो उसके लिए आधा है''। (निसा: 11)
9- कुरआन में जहां महिला के अन्य सामाजिक और सामाजिक स्तर के अधिकार का निर्धारण किया है वहाँ बहन के रूप में भी उसके अधिकार बयान किए गए हैं। बतौर बहन महिला विरासत का अधिकार बताते हुए कुरआन हकीम में इरशाद फ़रमाया गया:
‘‘وَإِن کَانَ رَجُلٌ یُورَثُ کَلاَلَۃً أَوِ امْرَأَۃٌ وَلَہُ أَخٌ أَوْ أُخْتٌ فَلِکُلِّ وَاحِدٍ مِّنْھُمَا السُّدُسُ فَإِن کَانُواْ أَکْثَرَ مِن ذَلِک فَھمْ شُرَکَاءُ فِي الثُّلُثِ مِن بَعْدِ وَصِیۃٍ یُوصی بِھَآ أَوْ دَیْنٍ غَیْرَ مُضَآرٍّ’’
अनुवाद: और अगर किसी ऐसे पुरुष या महिला तुर्कह बटना हो जिसने माता-पिता बच्चों कुछ न छोड़े और माँ से उसका भाई या बहन है तो उनमें से प्रत्येक को छठा फिर अगर वह भाई बहन एक से अधिक हों तो सब तिहाई में शरीक हैं मृतक की वसीयत और देन निकालकर जिसमें उसने नुकसान न पहुंचाया हो। (निसा: 14)
10- कुरआन हकीम ही व्यावहारिक शिक्षाओं का असर था कि हुज़ूर नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पत्नी से हुस्ने सुलूक की हिदायत फ़रमाई। इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि ''हुज़ूर नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बारगाह में एक व्यक्ति उपस्थित होकर अर्ज़ गुज़ार हुआ या रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम!मेरा नाम अमुक अमुक गज़वह में लिख लिया गया है और मेरी पत्नी हज करने जा रही है। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: तुम वापस चले जाओ वापस चले जाओ और अपनी पत्नी के साथ हज पर चले जाओ। 'और इसी शिक्षा पर सहाबा रज़ियल्लाहु पालन करते रहे। (बुखारी, किताबुल जिहाद)
11- हुज़ूर नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने महिलाओं के लिए भी अच्छी शिक्षा और प्रशिक्षण को उतना ही महत्वपूर्ण और आवश्यक करार दिया है जितना कि पुरुषों के लिए। यह किसी तरह उचित नहीं कि महिला को कम दर जीव समझते हुए उसकी शिक्षा और प्रशिक्षण की अनदेखी कर दी जाए। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद है:
अनुवाद:अगर किसी व्यक्ति के पास एक दासी हो तो वह उसे अच्छी शिक्षा दे और उसे खूब शिष्टाचार मजलिस सिखाए, फिर स्वतंत्र करके इससे विवाह करे तो उस व्यक्ति के लिए दोहरा इनाम है। (बुखारी, किताबुल जिहाद)
उपरोक्त कुरानी आयतों और हदीसे तैयबा से यह अम्र बिलकुल स्पष्ट है कि इस्लाम ने औरत को समाज में सम्मानजनक स्थान और बार देने के साथ साथ उसके अधिकार भी निर्धारित कर दिए जिनकी बदौलत वह समाज में सम्मान और गरिमा के साथ शांती के साथ जीवन बिता सकती है।
जोहरा नसरीन देहलवी बीए ऑनर्स, जामिया मिलिया इस्लामिया की छात्रा हैंl
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