ज़िया उर रहमान, न्यु एज इस्लाम
कुरान और सूफी मत
बहुत ज़माने से मुसलमानों में यह मुद्दा बहस का विषय रहा है कि क़ुरान सूफ़ी मत को मान्यता देता है की नहीं? अलग अलग मुस्लिम विद्वानों ने अलग अलग मत दिया है. उलामा का एक वर्ग इस बात पर यक़ीन रखता है की सूफ़ी मत क़ुरान का एक हिस्सा है जबकि दूसरा वर्ग विशेषकर कट्टरपंथी कहते हैं कि सूफ़ी मत का इस्लाम से कोई मतलब नहीं बल्कि यह इस्लामी तालीमात के बिल्कुल विरुद्ध है. इक़बाल जिनका लालन पालन सूफ़ियाना माहौल में हुआ और जो क़ाद्रीया सिलसिले में बैअत भी हो चुके थे बाद में सूफ़ी मत के विरोधी हो गए और सूफ़ी मत के मानने वालो को अपनी मसनवी "एसरारे खुदी" में सुफि हज़रात को भेड़ों का समूह बताया.
उनके ख्याल से सूफ़ी शिक्षा मुसलमानों में उदासीनता (क़ुनोतियत) को बढ़ावा देता है और वो इसकी वजह से जीवन के संघर्ष की भावना खो देते हैं और तन्हाई पसंद हो जाते है. इसलिए उन्होंने कहा:
"निकल कर खानक़ाहों से अदा कर रस्मे शब्बिरी"
इसके विपरीत इस्लामी विद्वान और विचारक इब्न अरबी और शैख़ अहमद सिरहिन्दी जैसे इस्लामी विद्वान और सूफ़ी ने सूफ़ी मत को इस्लाम क़रार दिया. हालाँकि उनका संबंध सूफ़ी विचार "वाहदातुल वजूद और वाहदातुल शहूद" से था! बहरहाल हमें इन दोनों में उलझे बगैर क़ुरान में ही इसका जवाब तलाश करना चाहिए कि स्वयं क़ुरान सूफ़ी मत का समर्थक है या नहीं?
कुरान में अध्ययन के दौरान हमें कुछ आयतें ऐसी मिलती हैं जो सूफ़ी मत के कार्य का और उल्लेख का समर्थन करता है। कुरान कहता है:
अपने आपको उन लोगों के साथ थाम रखो, जो प्रातःकाल और सायंकाल अपने रब को उसकी प्रसन्नता चाहते हुए पुकारते है और सांसारिक जीवन की शोभा की चाह में तुम्हारी आँखें उनसे न फिरें। और ऐसे व्यक्ति की बात न मानना जिसके दिल को हमने अपनी याद से ग़ाफ़िल पाया है और वह अपनी इच्छा और वासना के पीछे लगा हुआ है और उसका मामला हद से आगे बढ़ गया है (अल-कहफ 28)
इस आयात में कुरान स्पष्ट रूप से लोगों से कहता है कि उन से धैर्य से पेश आयें जो हर समय अल्लाह की याद और उस के उल्लेख में संलग्न रहते हैं और उनकी अनुभूति के चाहने वाले हैं. क़ुरान उन्हें यह भी सलाह देता है कि ऐसे लोगों की सोहबत में रहें न कि ऐसे लोगों की सोहबत को छोड़कर सांसारिक विलासिता की तलाश में जुट जाएँ!
इस आयात में तीन नुक्ते खोजे जा सकते हैं। पहली यह कि कुरान लोगों को आदर्श व्यक्ति क़रार देता है जो हर समय सुबह व शाम अल्लाह के उल्लेख में संलग्न रहते हैं ताकि अल्लाह की नज़दीकी हासिल कर सकें। दूसरा बिंदु यह है कि लोगों को उनकी सोहबत में रहने की सलाह देता है अर्थात उन्हीं जैसा कार्य अपनाने की सलाह देता है क्योंकि अल्लाह की याद में हर समय मगन रहना ही अल्लाह के पास सबसे प्रिय कार्य हे. तीसरा बिंदु यह है कि भौतिक आसाइशों के लिए भागदौड़ करने से बेहतर अल्लाह के उल्लेख में मगन रहना है।
इसलिए, यह आयात सुफियाना एबादत यानी नमाज़ के अलावा अल्लाह से ख़ौफ़, एकांत में रोना और उसका नज़दीकी पाने की तलाश करने का समर्थन करता है। सूफ़ी सांसारिक बातों से अलग होकर हर समय याद इलाही में मगन रहते हैं और तनहाई में अल्लाह के सामने रोते हैं और नफ्स से बचाओ के लिए इलतेजा करते हैं।
इसी तरह की एक और आयात है जिसमें कुरान जो हर समय स्मरण में व्यस्त रहते हैं, धुतकारने, अपमानित करने और उन्हें दोषी समझ कर सज़ा देने या उनके खिलाफ फतवा लगाने से मना करता है!
और जो लोग सुबह व शाम अपने परवरदिगार से दुआ करते हैं और उसके चाहने वाले हैं उनको मत निकालो! उनके हिसाब (कर्मों) की जवाबदेही तुम पर कुछ नहीं और तुम्हारे हिसाब की जवाबदेही उन पर कुछ नहीं अगर उन्हें निकालोगे तो ज़ालिमों में होजाओगे। (अल इनाम: 53)
इस आयात में साफ तौर पर मुसलमानों को आदेश दिया गया है कि अल्लाह के स्मरण में लगे लोगों को समाज से मत निकालो और उन्हें गलत न समझो। अगर वह दिन रात सुबह व शाम याद और स्मरण में मगन रहते हैं और अल्लाह की मुहब्बत में हर समय मस्त रहते हैं तो यह उन का अपना अमल है इसके लिए दूसरे मुसलमान जवाबदेह नहीं हैं और जो लोग उनकी तरह हर समय अल्लाह की याद में मगन नहीं रहते उनके लिए यह सूफ़ी जवाबदेह नहीं हैं। इसलिए, जो लोग उन्हें गलत समझ कर उनके साथ तरह तरह की ज़्यादती करते हैं दरअसल वही लोग खिलाफ इस्लाम काम करते हैं। यानी ज़ालिमों में से हैं।
कुरान की कुछ आयतें सूफ़िया के उल्लेख (ज़िक्र) जिली व ज़िक्र खफी के समर्थन में मालूम होती हैं। मसलन यह आयतें देखें:
अपने रब को अपने मन में प्रातः और संध्या के समयों में विनम्रतापूर्वक, डरते हुए और हल्की आवाज़ के साथ याद किया करो। और उन लोगों में से न हो जाओ जो ग़फ़लत में पड़े हुए है। '' (अल अराफ़: 205)
पुकारो अपने रब को रो रो कर और चुपके चुपके। (अल आराफ़: 54)
'' और पढ़े जा नाम अपने रब काऔर छूट कर चला आ उसकी तरफ सबसे अलग होकर। '' (अल मुज़ाम्मिल: 8)
लेता रह नाम अपने रब का सुबह व शाम (अल दहर 25)
और उसकी पाकी बोलते रहो सुबह वशाम (अल फ़तह 9)
और जो उसके (अल्लाह) नज़दीक रहते हैं सरकशी नहीं उसकी इबादत से और ना ही आलस्य करते हैं उसकी याद करते हैं रात और दिन नहीं थकते। '' (अल अंबिया: 20)
ऊपर के सभी आयतें मुसलमानों को हर समय स्मरण में व्यस्त रहने की सलाह देती हैं और सभी सूफ़ी किराम का यही काम होता है कि शौक से अल्लाह की मुहब्बत और उसकी नज़दीकी पाने के लिए हर वक़्त याद और ज़िक्र में मगन रहते हैं। मुसलमानों का कोई वर्ग स्मरण में इतना मशगूल नहीं रहता। खुद कुरान एक जगह यह कहता है कि जिसका दिल यादे एलाही से एक पल भी लापरवाह हो जाता है शैतान उसके दिल में प्रवेश कर जाता है। इसलिए, सूफ़ी हज़रात शैतान को अपने दिल में कभी दाखिल नहीं होने देना चाहते क्योंकि वह दिल में खुदा को बसाए रहते हैं और इसीलिए वह हर समय अल्लाह की याद में व्यस्त रहते हैं!
इन आयतों में सुबह व शाम का शब्द इस्तेमाल किया गया है जिससे यह बहाना खोजा जा सकता है कि सुबह व शाम का मतलब सुबह व शाम की इबादतें हैं उनसे हमेशा का मतलब लेना सही नहीं है लेकिन सूरे अल अंबिया में दिन रात का शब्द भी उपयोग किया गया है। इसलिए, सुबह और शाम और दिन रात से कुरान चौबीस घंटे यानी जागने की हालत में ज़िक्र इलाही का मतलब लेता है! बल्कि कुछ सूफ़िया किराम तो हालते ख्वाब में भी उल्लेख में संलग्न रहते हैं और इस तरह शैतान को एक पल के लिए भी अपने दिल में जगह नहीं देते।
इन आयात से यह बखूबी स्पष्ट हो जाता है कि सूफ़ी हज़रात का सूफी मत इस्लाम या कुरान के खिलाफ नहीं बल्कि ठीक क़ुरानी तालीमात पर आधारित है।
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