संपादकीय
उर्दू से अनुवाद, न्यू एज इस्लाम
मई से जुलाई, 2020
यदि मुस्लिम समाज की महिलाओं को, और विशेषतः पाकिस्तान जैसे तथा कथित “इस्लाम के किले” से संबंध रखने वाली महिलाओं को, उनके कुरआन में ताकीद किये हुए बराबरी के हक़ और आर्थिक खुदमुख्तारी दे दी जाए, तो मानवीय आँख यह नज़ारा देख कर आश्चर्य चकित रह जाएगी कि कम से कम बड़ी तादाद में शादी शुदा महिलाएं अपने मौजूदा पतियों और परिवार को छोड़ कर घर से भाग जाएंगी। गैर शादी शुदा में से कितनी महिलाएं खुद मुख्तारी मिलते ही अपने घरों की “कैद” से निकल भागेंगी, यह मामला अभी पेंडिंग में रखते हैं। हो सकता है कि उनमें वह भी हों जिनके पास कोई विकल्प घर, ठिकाना या पनाहगाह त्वरित रूप से उपलब्ध ही न हो। लेकिन फिर भी वह अपनी मौजूदगी स्थाई कैद, स्थाई 24 घंटे की पुर मुशक्कत जिंदगी, और मर्दों की स्थाई गुलामी से छुटकारा मिलने पर इस बात की प्रवाह करेंगी कि घरों से निकल कर वह त्वरित रूप से कहाँ जाएंगी। उनकी आर्थिक स्थिरता उन्हें यह विश्वास दिलाने के लिए काफी होगा कि वह बहर हाल अपने लिए कोई भी ऐसा ठिकाना तलाश कर लेंगी जहां वह आज़ादी का सांस ले सकें और एक सुख भरी अपनी मर्ज़ी की ज़िन्दगी गुज़ार सकेंगी। याद रहे कि 80 % महिलाएं अपने घरों में एक मुशक्कत से भरे जीवन की केवल इसलिए पाबंध हैं कि वह आर्थिक रूप से आत्म निर्भर नहीं हैं। वरना वह कभी भी मर्द की गुलामी और एक पुरे कुंबे की गैर मशरूत और हमा वक्ती नौकर की हैसियत से खुबुल न करेंगी। इस वास्तविकता के सुबूत के लिए कुछ ऐसे घरों का विश्लेषण किया जा सकता है जहां खातूने खाना आत्मनिर्भरता की मंजिल तक पहुँच कर अपने मामलों में अपने फैसले करने की ताकत हासिल कर चुकी है।
मानो या न मानो, यह कयामत की स्थिति है जिसे इस मुस्लिम समाज ने इस्लामी शैली के नाम पर अपनी महिलाओं पर थोपा है। और यह एक बहुत ही संगठित सामूहिक तरीके से कवर किया गया है जिसमें लफ्फाज़ी और चापलूसी मिली मुनाफिकत का उपयोग किया जाता है। यह फिरऔन बन कर उसके आगे खुराक व पोशाक एक एहसान के तौर पर फेंकते हैं। यह बदबख्त बाहर की दुनिया में जो चाहे करते फिरते हैं। जब कि उसी दुनिया को अपनी महिलाओं के लिए निषेध करार देते हैं। यह बदबख्त तलाक का हक़ भी केवल अपने लिए ही विशेष रखते हैं। और जानते हैं कि खुला लेने के लिए अदालत से रुजुअ करने की ताकत और साधन 95 प्रतिशत औरत के पास मौजूद ही नहीं है। उन्हें यह भी खूब इदराक है कि पैसा तो यह खुद कमाते हैं, इसलिए औरत उनकी दस्तनगर है। और इसी लिए वह भाग कर कहीं नहीं जा सकती। अगर जाएगी तो खाएगी कहाँ से? और उसे अपनी इज्जत गंवा देने का डर लगा रहे गा। अर्थात औरत की ज़ात और शख्सियत को इतना मोहताज और हकीर बना दिया गया है कि वह एक मजबूर महज़ बन कर रह गई है और मर्द के इशारों की गुलाम। और उसके हाथों इज्ज़त के लुट जाने का खौफज़दा___कहा जाता है कि बच्चे भी औरत की मजबूरी बन जाते हैं। और उनकी खातिर भी मर्द की गुलामी से फरार होने की राह इख्तियार नहीं कर सकती। इस बिंदु में कुछ प्रतिशत हकीकत तो मौजूद है, लेकिन यह सरासर दुरुस्त भी नहीं है। जहां घरों में औरतों की हैसियत कनीजों के बराबर कर दी गई है वहाँ उन्हें बच्चों से भी कोई मुहब्बत बाकी नहीं रहती। और वह बेबस व बेकस रह कर अपने लिए एक आज़ाद ज़िन्दगी का ख्वाब देखती रहती हैं। और अपनी ज़िन्दगी भर्की ना तमाम हसरतों पर आंसू बहाती रहती हैं।
क्या ऐसा समाज गैर इस्लामी या गैर कुरआनी नहीं है? ज़रा सोच कर जवाब तलाश करें। क्या हम सब अल्लाह पाक के हुक्म: ”يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ كُونُواْ قَوَّامِينَ بِالْقِسْطِ “ की खुली खिलाफवर्जी में ज़िन्दगी नहीं गुज़ार रहे? क्या औरत के साथ कस्त अर्थात न्याय स्थापित करना हमारी सरीश्त से ही गायब नहीं है? क्या हमारे निकाह व तलाक के नियम सबके सब गैर कुरआनी नहीं हैं, क्या हमें चौदह सौ साल की अरब कल्चर की गुलामी के बाद अब अपने आंतरिक नियमों में जौहरी परिवर्तन की जरूरत नहीं है? क्या हमें अब औरत को मर्द के बराबर अधिकार दे कर खुद को अल्लाह की नज़र में ” قَوَّامِينَ بِالْقِسْطِ “ की साफ में ले आने की आवश्यकता है?
तेजी से बदलते इस प्राचीन, जंग खाए हुए समाज में महिलाओं को अपने परिवार और अपने जीवन के लिए स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार देना अब समय की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है। समाज में बड़े बदलाव हो रहे हैं। इन बदलावों का नतीजा है कि शहर के हर फैमिली कोर्ट में हर महीने हजारों महिलाएं तलाक या खुला के लिए अर्जी दाखिल कर रही हैं। ज्यादातर मामले ऐसे होते हैं जहां शादी कुछ दिनों, कुछ हफ्तों या बस कुछ महीनों से चल रही हो और महिला अलग होने की मांग कर रही हो। यह निश्चित रूप से हमारे पुरुष प्रधान समाज के लिए एक चेतावनी और सबक है क्योंकि यह स्पष्ट रूप से साबित करता है कि आधुनिक मुस्लिम महिला अब पुरुषों की आर्थिक और सामाजिक श्रेष्ठता बल्कि फिरऔनियत को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है।
हमारा व्यक्तिगत अनुभव यह है कि वह समय दूर नहीं जब हमें पश्चिमी समाज की स्वीकार्य शर्तों को स्वीकार करना होगा जिसके तहत महिलाओं के अधिकारों का पुनर्मूल्यांकन और पुनर्परिभाषित किया गया है। और न केवल पुरुषों के समान अधिकार दिए जाते हैं, बल्कि श्रेष्ठ अधिकार भी दिए जाते हैं। अब कोई भी पुरुष अपनी इच्छा किसी महिला पर नहीं थोप सकता। तलाकशुदा पुरुष महिला को अपनी सारी संपत्ति का आधा मुआवजा देने के लिए बाध्य है। महिला को यह भी अधिकार है कि वह जब चाहे तब पुरुष को अपने जीवन से बाहर निकाल सकती है। पुरुष के हिंसा पर महिला केवल एक फोन काल पर उसे पुलिस के हवाले कर सकती है।
वह समय शायद बीत चुका है, या बीतने वाला है, जब सामाजिक मांगों, तुच्छ पारिवारिक परंपराओं या बच्चों के प्यार के सामने, तीव्र घृणा और तनाव के बावजूद, एक जोड़े को अपने शेष जीवन के लिए एक साथ रहने के लिए मजबूर किया जाता है। और ज़िन्दगी सरासर तिश्नगी और अभाव के कारण जीवन किसी नर्क के जीवन से कम नहीं था। यह कितना क्रूर प्रतिबंध था, और किसी अथॉरिटी द्वारा क्या लगाया गया था जिसने पुरुषों और महिलाओं के सारे जीवन को निगल लिया था? पुरुष तो फिर भी बाहरी दुनिया में अपनी भड़ास निकल कर घर आया करता था, लेकिन गरीब महिला को घर की चारदीवारी में कैद घुट घुट कर मर जाती थी, जब कभी महिलाओं के एक शिक्षित वर्ग ने अपनी इन्ही मजबूरियों के खिलाफ आवाज़ उठाई तो उसे इस पुरुष प्रधान बे रहम समाज में बे हयाई और फहाशी का मसला बना दिया गया। उन महिलाओं की किरदार कुशी की जाती रही और उनकी ज़ातियात को पारा पारा किया जाता रहा। मर्दों की इस दुनिया में औरत का अपने लिए आवाज उठाना बहुत बड़ा गुनाह हो गया है, जिसके लिए उसे मानहानि और धार्मिक फतवे का शिकार होना पड़ा है। लेकिन याद रहे कि यह आग अभी भी मौजूद है और अंदर ही अंदर तेजी से भड़क रही है। यदि यह समाज अपने आप में सुधार नहीं करता है, तो यह आग अपने खर्मने हस्ती को जलाकर राख कर देगी। उत्पीड़ित समाज भीतर से गंदगी और क्षय से भरे हुए हैं, और उनके चरित्र के पैमाने पर बर्बाद ही माने जाते हैं, भले ही उनका बाहरी वैभव कुछ हद तक बना रहा हो। क्या यह हमारे क्रूर समाज का मामला नहीं है, जिसने अपनी आधी बेहतर और अधिक सम्मानजनक आबादी को गुलाम बना लिया है?
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Urdu Article: In Pakistani Society Woman Is Free or A Slave? پاکستانی معاشرے میں عورت آزاد ہے یا غلام؟
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