प्रखर
12
मई 2022
कुछ रोज़ पहले हैदराबाद में एक आदमी को इसलिए मार दिया गया क्योंकि उसने एक औरत से शादी की जो उसके मज़हब की नहीं थी। आदमी हिन्दू था और औरत मुसलमान है। नागराजू नाम का आदमी सुल्ताना नाम की औरत से शादी कर लेता है तो सुल्ताना के भाई बीच सड़क पर, भीड़ के सामने उसे मार-मार कर मौत के घाट उतार देते हैं। सड़क पर खड़े हुए लोग, बस देखते रहते हैं और अपने फ़ोन में वीडियो बनाते रहते हैं।
अगर यह बात आपको परेशान नहीं कर रही है तो मुझे आपसे और कुछ नहीं कहना है। अगर कर रही है तो मैं जानना चाहता हूँ कि आप विचलित हो रहे हैं या सिर्फ थोड़े-से परेशान हैं? क्या आपको अपने होने पर ख़ीज नहीं हो रही है? मुझे हो रही है और मैं उन सबके होने पर भी ख़ीज रहा हूँ जो इस बात से सिर्फ परेशान हैं। आप यह कहकर बात ख़त्म नहीं कर सकते कि आज के परिवेश में यह ख़बर सुनकर आप चौंके नहीं। हाँ, यह घटना नई नहीं है लेकिन आपका ऐसा कहना इसे सामान्य कर देगा, जो बिलकुल नहीं है। कहाँ है हमारे अन्दर की संवेदनशीलता? क्या हमारे अन्दर एहसास का रेश मात्र भी नहीं बचा है? हम सिर्फ इस्लाम की बात ही क्यों करें, कोई भी धर्म इतना निर्मम कैसे हो सकता है? यह सब देखकर लगता तो यही है कि आदमी संवेदना शुन्य हो चुका है और यह बात, और कुछ नहीं, सिर्फ भयावह ही हो सकती है।
यह एक घटना है और ऐसी ही हज़ारों घटनाएँ रोज़ होती हैं। यहाँ चाहे मअसला अलग हो, मगर मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि न-न करते हुए भी इसमें से ज़्यादातर जुर्म भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ ही हो रहे हैं। आए दिन एक वहशी भीड़ किसी-न-किसी को निगल लेती है, कभी माँसाहारी होने के नाम पर, कभी जय श्री राम न बोलने के नाम पर, कभी लव जिहाद के नाम तो कभी सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्हें और कुछ करना समझ में नहीं आया या फिर किसी ने एक भड़काऊ भाषण दे दिया था, कभी सिर्फ इसलिए कि उसने टोपी पहनी थी और कभी सिर्फ इसलिए क्योंकि वह इंसान वहाँ मौजूद था। ग़लत वक़्त पर ग़लत जगह होने के सबसे भारी जुर्माना आज के भारत में मुसलमान ही भर रहे हैं।
हालांकि, यह भी सही है कि इस्लाम में हमेशा से ही कट्टरपंथी लोगों का बोलबाला रहा है और यहाँ तक कि आज इस्लामी शासन-क्षेत्र और विचार-सीमा के इर्द-गिर्द जितने भी फ़ैसले लिए जाते हैं, वह सब इन्हीं रूढ़िवादी और कट्टरपंथियों के इशारों पर लिए जाते हैं। दारुल उलूम देवबंद की वेबसाइट पर एक कॉलम है, दारुल इफ्त, जहाँ आपको ऐसे-ऐसे सवालात देखने को मिलेंगे कि आप या तो अपना सर कंप्यूटर पर मार लेंगे या कंप्यूटर उठाकर अपने सर पर मार लेंगे, इसके अलावा और कुछ नहीं करेंगे। कट्टरता और धर्मान्धता हर धर्म का अभिन्न अंग ही होता है मगर इस स्तर की रूढ़िवादिता केवल इस्लाम में मिलती है।
आप इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखेंगे कि हर धर्म में कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी एक ऐसा दौर आया है जब धर्म-विरोधी कोशिशों ने एक उपकारी परिवर्तन की झलक दिखाने का प्रयत्न किया है। अलबत्ता, इस्लाम के इतिहास में ऐसा सूफीवाद के युग के अलावा कहीं देखने को नहीं मिलता, ख़ासकर आज के वक़्त में। आज के वक़्त में जहाँ पारम्परिक धर्म की, नयी पीढ़ियों को अपनी और खींचने की कोशिश नाकाम होनी चाहिए, उपमहाद्वीप के इलाक़े में इस्लाम और सनातन धर्मों कोशिश सफल होती नज़र आ रही है।
किसी की हत्या करना ही जब दण्डनीय अपराध है तो धर्म या जाति के नाम पर किसी की हत्या करना मानव प्रजाति का निम्नतम स्तर पर पहुँच जाना ही हो सकती है। भारत देश में यह बहुत समय से होता आया है और होता भी रहेगा, ख़ासकर अल्संख्य वर्ग के लोगों के साथ। भारत में लोकतंत्र होना और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में आपका अस्तित्व उतना ही बड़ा झूठ है, जितना बड़ा झूठ है भारत में धर्मनिरपेक्षता होना। मैं इस बर्बर झुण्ड को समाज कहते हुए भी कतरा रहा हूँ। यह झुण्ड समाज हो ही नहीं सकता। यह जंगली लोगों का कोई झुण्ड ही है जिसने बर्बरता की सारी हदें पार करने की ठान ली है। जब तक भारत में लोकतंत्र सच नहीं हो जाता तब तक विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में आपका अस्तित्व एक विषाक्त झूठ ही रहेगा।
ऐसे माहौल में हर समझदार व्यक्ति यही चाहेगा कि देश और समाज के नेता व अन्य लीडर लोग कुछ पहल करें मगर यह लीडर लोग और नेता तो ख़ुद इस बर्बर झुण्ड का नेतृत्व करने में व्यस्त हैं। वह कैसे इस समाज का उद्धार या एक पहल ही करेंगे। जब हमारे सुप्रीम लीडर और मंत्रालयों में बैठे नेता ख़ुद इसी रास्ते पर चलकर उस जगह पहुँचे हैं तो यह बात तो इन वहशी झुण्डों के लीडरों को प्रेरित करती होगी और करे भी क्यूँ नहीं, हम उदाहरण से ही तो सीखते हैं। इस बात को सोचना भी मुझे गवारा नहीं है कि ऐसे लोग हमारे नेता हैं, हमारे देश की बागडोर ऐसे बर्बर सोच रखने वाले लोगों के हाथ में हैं।
यह उम्मीद लगाना तो बेवक़ूफ़ी ही होगी कि एक दिन यह समाज इस पूतिक धर्म को त्याग देगा मगर आज के हैवान ने तो इतनी भी गुंजाइश नहीं छोड़ी है कि हम यह उम्मीद लगा लें कि एक देश में, एक समाज में, अनेक धर्मों के लोग एक साथ रह सकें। ग़ालिब की एक ग़ज़ल का मतला और मक़्ता याद आता है - 'कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नज़र नहीं आती', 'काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब', शर्म तुम को मगर नहीं आती।'
मौजूदा सरकार ने महज़ धर्म या जाति की राजनीति ही नहीं की है, उन्होंने देश को इस क़दर खोखला कर दिया है कि इसे उभरने में अब कुछ साल नहीं बल्कि सदियाँ लगेंगी। 5 साल पहले तक जिस देश को अपने ऊपर इस बात का गर्व था कि वह विश्व भर में उभरती हुई एक प्रबल शक्ति है, उस देश में आज नौकरी करने की उम्र में जितने लोग हैं, उनमें से मात्र 43% लोग ही अपना रोज़गार कमा रहे हैं। अशोभनीय यह है कि हमारा कट्टर दुश्मन पाकिस्तान, 48% रोज़गार के साथ हमसे आगे है।
मौजूदा सरकार ने देश को इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है कि आज भारत में ‘आर्थिक संकट’ और ‘धार्मिक उन्माद’ हर गली-कूचे में घूम रहा है, और अपनी चपेट में भारत की 57% कामगार जनता और 100% जीवित जनता को ले चुका है। और यह बहुत जायज़ और साधारण बना दिया जाएगा अगर हमारे माननीय मंत्री एवं सभासद इस सबको एक प्रबल राष्ट्र के नव-निर्माण में होने वाली संपार्श्विक क्षति या 'कोलैटरल डैमेज' कहें। चुनाँचे, जो बेरोज़गार हैं, वह और कुछ नहीं तो कम-से-कम सरकारी महक़मों की पैरवी तो कर ही रहे हैं, और वह भी पूरे ख़ून-पसीने के साथ।
इसका थोड़ा अधिक श्रेय हमारे देश के गृह मंत्री श्री अमित शाह जी को जाता है, जिन्होंने यह सुनिश्चित किया है कि देश के गली-कूचों में घूमते हुए नाटक मण्डली के किरदार 'विकास' की असली पहचान कोई न जान सके। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में 'आर्थिक संकट और ‘धार्मिक अतिवाद' के नाम से बदनाम 'विकास' का आधार कार्ड और नागरिकता के काग़ज़ उन्होंने उन गायों को खिला दिए हैं जो आजकल दिल्ली यूनिवर्सिटी के हंसराज कॉलेज में 'गर्ल्स हॉस्टल' की जगह पर निर्मित स्वामी दयानन्द सरस्वती गौ-संवर्द्धन एवं अनुसंधान केंद्र में बँधी हुई हैं।
आप हमारे नियुक्त अधिपतियों से यदि इस मामले में पूछ-ताछ करेंगे, तो वह इस डर से कि कहीं पार्टी से न निकाल दिए जाएँ, यही कहेंगे कि जो भी है, जैसा भी है, हमारे देश का मुस्तक़बिल बहुत रोशन है, शायद। इस रोशन मुस्तक़बिल की मशाल अपने हाथ में लिए एक ऐसा तबका चल रहा है, जिसे भीड़ कहना भी सही नहीं होगा। वह न ही भीड़ है, न ही लोग हैं, वह एक झुण्ड है, जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर भी किया है। महज़ परछाइयों का एक झुण्ड, जो हाथों में पकड़ी हुई मशाल की रौशनी से ही बनता है और उसी रौशनी के फलस्वरूप उभरती हुई परछाइयों में गुम भी हो जाता है। किसी के हाथ नहीं आता; न ही अधिपतियों के और न ही अधिपतियों के अधीन किसी सेन्यबल या शक्तियों के।
हमारे अधिपतियों ने इस झुण्ड को पालतू समझ पर पाला तो है लेकिन अब यह झुण्ड वहशी होकर, उनकी पकड़ और नज़र से बहुत दूर, बहुत आगे निकल चुका है; ठीक वैसे ही जैसे टाइम मैगज़ीन ने भारतीय जनता पार्टी को हिंदुत्व के बाघ पर सवार बताया था, जिसकी लगाम सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से उनके हाथ में है। न ही वह उसकी रफ़्तार को थाम सकते हैं और न ही उसपर से उतर का भाग ही सकते हैं।
इस झुण्ड के लिए अंग्रेज़ी में एक शब्द का प्रयोग किया गया है - विजिलैंटिस्म, या अतिसतर्कता, ऐसा गूगल ने मुझे बताया है, या फिर, निरर्थक चौकीदारी। यह सतर्कता या चौकीदारी हमेशा से ही निरर्थक तो रही ही है और समाज पर हावी भी बनी रही है। जब यह जंगली होकर अधिपतियों की पहुँच से बहुत दूर निकल गई, इसने निचले स्तर के आतंकवाद की शक्ल ले ली है।
यह आतंकवाद अब सिर्फ भौतिकवादी नहीं रह गया है बल्कि इसने मनोवैज्ञानिक आतंकवाद की शक्ल ले ली है और इस आतंकवाद के निशाने पर मुख्यतः मुस्लिम तबक़ा ही है। यह वक़्त की दरकार है कि इस बात को अब खुलकर किया जाना चाहिए। जिन गली-कूचों में ‘आर्थिक संकट’ और ‘धार्मिक उन्माद’ घूम रहा है, उन्हीं गली-कूचों में यह बात भी फ़ैलनी चाहिए।
पाकिस्तान को भारत से आगे बताने की जो बात है, यह बात सारे ज़माने में जिसका
ज़िक्र होना भी चाहिए था, जो किसी पब्लिक लाइब्रेरी में रखे अखबार की तरह एकदम आसानी से उपलब्ध है;
यह बात बहुत लोगों को नागवार
गुज़रेगी और मज़हबी वहशत से अंधा झुण्ड, ख़ुद को देशभक्तों की टोली बताते हुए, फिर से देश के गली-कूचों में उतर आएगा और ख़ुद को 'विकास' के किरदार में ढाल लेगा,
और 'संपार्श्विक क्षति' या 'कोलैटरल डैमेज' के नाम पर क़त्ल कर देगा कुछ आँखों का, कुछ सपनों का, कुछ आवाज़ों का, कुछ उम्मीदों का, और बहुत से जज़्बात का लेकिन, सारी ज़िंदगियाँ बच जाएँगी, जैसे बचा ली गई थीं हज़ारों, लाखों ज़िंदगियाँ कोरोना काल में।
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