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Hindi Section ( 5 Sept 2011, NewAgeIslam.Com)

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The Quran and Religious Tolerance क़ुरान और धार्मिक सहिष्णुता

वारिस मज़हरी

क़ुरान की एक अहम तालीम धार्मिक उदारता से सम्बंधित है। धार्मिक सहिष्णुता को इस्लाम में एक अहम सिद्धांत के तौर पर स्वीकार किया गया है, जिसका आधार क़ुरान की उदारता से सम्बंधित शिक्षाएं हैं। धर्म में ज़बर्दस्ती की गुंजाईश नहीं है, इन सिध्दांतों में से सबसे अहम है। क़ुरान कहता है किः

लाइकराहा फिद्दीने क़त्तबैय्येनर रुश्दो मेनल ग़य्ये (अलबक़राः256) ।

धर्म में ज़ोर जबर्दस्ती नहीं है। गुमराही के मुक़ाबले में हिदायत वाज़ेह और रौशन हो चुकी है।

इस आयत के नाज़िल होने से क़ुरान के धार्मिक उदारता का विचार और स्पष्ट हो जाता है। ये आयत हसीन नाम के एक अंसारी सहाबी के बारे में नाज़िल हुई, जिसके दो बेटे थे, जिन्हें, सीरिया के कुछ व्यापारी यहूदी बनाकर अपने साथ सीरिया ले गये थे। इनके बाप हसीन ने आकर रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) ये इसकी शिकायत की और इस बात की ख्वाहिश ज़ाहिर की कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) किसी को भेज कर उन दोनों बचपन में यहूदी हो जाने वाले लड़कों को (बग़ैर उनकी मर्ज़ी के- क्योंकि उन अंसारी सहाबी की सोच के मुताबिक वो दोनों अभी बच्चा थे) इस्लाम में लौटा कर ले आयें। इस पर क़ुरान की ये आयत नाज़िल हुई। (कुरतबीः182/3) क़ुरान स्पष्ट तौर पर कहता है कि इंसानों को इस बात का अधिकार हासिल है कि वो जो भी मज़हब या नज़रिया चाहें स्वीकार करें, क्योंकि ये खुद अल्लाह की मसलहत में से है कि सारे लोग एक तरीके (ईमान व इस्लाम) के पाबंद हो जाये।

अगर आपका रब चाहता तो दुनिया के तमाम लोग ईमान कबूल कर लेते। क्या लोगों को मोमिन बनाने के लिए आप उनके साथ ज़बर्दस्ती करेंगें (यूनुसः 99)

अगर अल्लाह चाहता तो तमाम लोगों को एक उम्मत बना देता (अलमायेदाः 48)

अल्लाह ने ही तुम्हें पैदा किया है, तो कुछ लोग तुम में से मोमिन हैं और कुछ लोग मुन्किर (अत्तग़ाबुनः2)

इस तरह ईमान और इंकार को एक अनन्त और प्राकृतिक सच्चाई के तौर पर स्वीकार किया गया है। क़ुरान का स्पष्ट ऐलान है कि  इस ईमान और इंकार का फैसला अल्लाह क़यामत के दिन करेगा। अल्लाह ताला क़यामत के दिन तुम्हारे बीच उन सब बातों का फैसला कर देगा जिनमें तुम मतभेद करते थे” (अलहजः69)। दुनिया में इंकार करने वालों को भी धर्म के मामले में आज़ादी हासिल है।

तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए है और मेरा दीन मेरे लिए (अलकाफेरूनः6)

और अपने अमल और किरदार के मामले में भीः

अल्लाह तुम्हारा और हमारा रब है। हमारे आमाल हमारे लिए हैं और तुम्हारे आमाल तुम्हारे लिए हैं (अलशूराः15)

क़ुरान में झूठे ईश्वर को भी बुरा भला कहने से रोक दिया गया है, क्योंकि इससे भावनाओं को ठेस पहुँचती है और कभी भड़क भी सकती हैं, और झूठे ईश्वर की इबादत करने वाले सच्चे ईश्वर को भी बुरा भला कहने लगेंगे। (अलअनामः108) क़ुरान में अहले बातिल (असत्य मार्ग) को अस्वीकार करने का जो तरीका बताया गया है वो खूबसूरत अंदाज़ में की जाने वाली बहस है न कि व्यंग, बुरा भला कहने और नफरत पैदा करने वाला तरीका है। क़ुरान में दूसरों के साथ सभी मामलों में इंसाफ का व्यवहार करने को कहा गया है। ईमान वालों से कहा गया है कि तुम इंसाफ कायम करने वाले बनो, चाहे इसका असर खुद तुम्हारे ऊपर पड़ता हो। (अन्निसाः135) क़ुरान के मुताबिक इंसाफ का मामला किसी एक या दूसरे समुदाय के साथ ख़ास नहीं है बल्कि ये पूरी इंसानियत के साथ आम है। इसलिए कोई भी अन्यायपूर्ण सिध्दांत या प्रक्रिया अपने लिए या अपनी क़ौम के लिए स्वीकार करना किसी भी तरह इस्लाम के मुताबिक नहीं होगा। क़ुरान कहता हैः

तुम्हें किसी क़ौम की दुश्मनी इस बात पर अमादा न करे कि तुम इंसाफ का रवैय्या अख्तियार न करो, इंसाफ करो (अलमायेदाः8)

क़ुरान में दूसरे मज़हब के मानने वालों को पूरी आज़ादी दी गयी है। इसलिए उन्हें अधिकार है कि वो अपनी मज़हबी किताबों के मुताबिक अपने फैसले करें। इसी तरह शराब, सुअर के गोश्त जैसी हराम चीज़ों  के इस्तेमाल से भी क़ुरान उन्हें नहीं रोकता। डाक्टर हमीदुल्लाह लिखते हैः

क़ुरान में ये अजीबो ग़रीब सिध्दांत मिलता है कि हर धार्मिक समुदाय को पूरी व्यक्तिगत अज़ादी दी जाये, यही नहीं सिर्फ विश्वास की आज़ादी न हो बल्कि वो अपनी इबादत अपने तरीके से कर सकें और अपने ही क़ानून और अपने ही जजों के ज़रिए से अपने मुक़दमात का फैसला भी करायें। रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) के समय में व्यक्तिगत आज़ादी सभी को हासिल थी। जिस तरह मुसलमान अपने दीन, इबादत, क़ानूनी मामलों, और दूसरे अन्य मामलों में पूरी तरह आज़ाद थे, उसी तरह दूसरे समुदाय के लोगों को भी पूरी तरह आज़ादी थी। (ख़ुतबात बहावलपुर, पेज,418, इस्लामिक बुक फाउण्डेशन, नई दिल्ली, वर्ष 2000)

क़ुरान में दो तरह के मुन्किरों (इंकार करने वाले) का ज़िक्र किया गया है। एक वो जो मुसलमानों के खिलाफ जंग पर अमादा थे, जो मुसलमानों को उनके मज़हबी और समाजी अधिकार देने के लिए तैयार न थे और जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) और आप पर ईमान लाने वालों को अपने ज़ुल्म व यातना का शिकार बनाया, उन्हें उनके घर और उनेक वतन से निकाल दिया। क़ुरान में उनके खिलाफ सख्ती और उनके ज़ुल्म से रक्षा के लिए जंग की इजाज़त दी गयी है, जबकि दूसरी तरह के वो मुन्करीन हैं जो मुसलमानों के साथ लड़ने पर अमादा नहीं, जिन्होंने मुसलमानों को घर छोड़ने पर मजबूर नहीं किया, उनके साथ क़ुरान में नरमी और नेकी मामला करने की शिक्षा दी गयी है। (अलमुमताहनाहः8)। अहम बात ये है कि क़ुरान बड़े से बड़े दुश्मन को एक सशक्त दोस्त की शक्ल में देखता है। इसलिए क़ुरान कहता है किः बुराई को भलाई से ख़त्म करो, और फिर वही शख्स जिसके और तुम्हारे बीच दुश्मनी है, तुम्हारा बेहतरीन दोस्त हो जायेगा। (फसलतः34), क्योंकि हर व्यक्ति को एक खास स्वाभाव का पैदा किया गया है और वो अपने स्वाभाव के मुताबिक चीज़ों को पसंद करता है। ये बाहरी कारक होते हैं, जो उसे सच और हक़ को स्वीकार करने में रुकावट बनते हैं। रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) की मश्हूर हदीस है किः

हर बच्चा एक खास प्रकृति (स्वाभाव) का पैदा होता है, फिर उसके मां-बाप उसे यहूदी, ईसाई या मजूसी बना देते हैं। (मुस्लिम किताबुल क़द्र)

इसलिए क़ुरान बुनियादी तौर पर इस स्वाभाव को सम्बोधित करता है, जिसके लिए नफरत और सख्ती की नहीं बल्कि  मोहब्बत और नरमी की जरूरत है। पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) के बारे में क़ुरान कहता है कि वो नैतिकता के चरम बिंदु पर थे। (अलक़लमः4) और आप (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) का एखलाक़ हज़रत आयेशा (रज़ि.) के मुताबिक क़ुरान था। (कान खलक़ुलकुरान) (मुस्लिम)। आप (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) ने फरमायाः

दावतुल मज़लूम वअन कान काफिरा अलैसा दौनहा हेजाब (मसनद अहमद)

मज़लूम चाहे काफिर हो, उसकी पुकार के दरम्यान कोई पर्दा हायल नहीं है

क़ुरान की एक आयत में मुसलमानों को ये हुक्म दिया गया है कि वो लोगों के मुशरिक होने के बावजूद भी उनकी माली मदद करने से गुरेज़ न करें। इसलिए कि उनको हिदायत देना उनका नहीं बल्कि खुदा का काम है। (अलबक़राः272) ग़ैरमुस्लिम वाल्दैन (मां-बाप) के लिए क़ुरान में हुक्म दिया गया है कि उनके साथ नेकी और अच्छाई का मामला करो। (लुक़्मानः15)

आप (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) ने जिस क़ुरानी एख्लाक़ की तालीम दी थी वो ये कि तुम मौकापरस्त न बनो, कि कहने लगो कि अगर लोग हमारे साथ अच्छा मामला करें, तो हम उनके साथ अच्छा मामला करेंगे, और अगर वो हमारे साथ बुरा मामला करेंगे, तो हम भी उनके साथ बुरा मामला करेंगे। बल्कि तुम खुद को इस बात का आदी बनाओ कि अगर तुम्हारे साथ कोई बुराई के साथ पेश आये तब भी तुम उसके साथ भलाई के साथ पेश आओ। रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) से साबित है कि आप (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) ने नजरान के ईसाई वफ्द (दल) को मस्जिदे नब्वी में अपने मज़हब के मुताबिक इबादत की इजाज़त दी।

(उर्दू से हिंदी अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)

URL for English and Urdu Article: https://newageislam.com/urdu-section/the-quran-religious-tolerance-/d/3909

URL: https://newageislam.com/hindi-section/the-quran-religious-tolerance-/d/5411


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