वारिस मज़हरी (उर्दू से हिंदी अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
मुसलमानों का मज़हबी रवैय्या समाजिक मसले के रुप में बहस का एक विषय है। देखने की बात ये है कि मुसलमानों का मज़हबी रवैय्या समाजिक मसले के रूप में क्या सकारात्मक या नकारात्मक भूमिका अदा करता है। अपनी खूबी या खामी के साथ ये रवैय्या किस तरह मुस्लिम समाज पर असर डाल रहा है, और इसके फायदा और नुक्सान पहुँचाने क्या वाले नतीजे सामने आ रहे है। इस रवैय्ये के किन सकारात्मक पहलुओं को उभारने और किन नकारात्मक पहलुओं को दबाने की ज़रूरत है। वग़ैरह?
इसमें किसी को शक नहीं हो सकता कि इस वक्त तमाम दूसरे समाजों के मुकाबले में मुस्लिम समाज पर मज़हब का असर सबसे ज़्यादा है। दूसरों के मुकाबले में मुस्लिम अवाम मज़हब से ज़्यादा जुड़े हुए हैं। यही बात उन लोगों को खटकती और परेशान रखती है जो मज़हब और समाज में दूरी रखने में यक़ीन रखते हैं और मज़हब की समाजिक मामलों में दखलअंदाज़ी को इंसानी समाज के लिए खतरे का लक्षण मानते हैं। उनकी बनी बनाई ज़हनियत (मानसिकता) ये हैं कि मुस्लिम समाज की तरक्की और खुशहाली में सबसे बड़ी रुकावट खुद मज़हबे इस्लाम ही है। अब खुद मुसलमानों में भी ऐसे विद्वान शामिल हो गये हैं जो इसी राग को अलाप रहे हैं। अलबत्ता बड़ा तब्का वो है जो मज़हब की बुनियादी हक़ीकत को तस्लीम करते हुए इसके बाहरी अमल को पूरी तरह अस्वीकार करने पर ज़ोर देता है। इस तब्के का मज़हब से बेज़ारी का एक बल्कि बुनियादी सिरा पश्चिम के नास्तिक विचार से जा मिलता है, जिसे तरक्की पसंद (प्रगतिशील) के रूप में स्वीकार कर रखा है। लेकिन माफी के साथ कहा जा सकता है कि इसका दूसरा सिरा हमारे उस मज़हबी रवैय्ये से मिलता है, जो सिरे से मज़हबी नहीं है। सिर्फ इस पर मज़हब का लेबल लगा हुआ है। हम खुद भी इसको मज़हबी बताते हैं और दूसरे भी इसी तरह से इसकी व्याख्या करते हैं। मैं यहाँ इसकी चंद मिसालें पेश करने की कोशिश करूँगा।
इस्लाम के संदर्भ के साथ हमारे यहाँ सांस्कृतिक रुझान पर ज़ोर है या दूसरे शब्दों में कहें तो संस्कृति को मज़हब का हिस्सा मान लिया गया है। हालांकि संस्कृति हमेशा स्थानीय सतह के समाजिक व आर्थिक हालात की पैदावार होती है। उन्हीं के अधीन होती है और इनमें तब्दीली से संस्कृति के रूप और कल्पना में फर्क़ आता चला जाता है। इसकी एक मिसाल ये है कि मक्का के लोग अंसार के मुक़ाबले में औरतों से मशविरा करने या उन्हें किसी मामले में शामिल करने को गलत मानते थे। मदीना हिजरत करने के बाद हज़रत उमर (रज़ि.) की एक बीवी ने जब किसी बात के सिलसिले में अपनी राय देनी चाही तो ये बात हज़रत उमर (रज़ि.) को बहुत बुरी लगी। इस पर आपकी बीवी ने कहा कि उमर (रज़ि.) खुद आप (सल्लल्लाहू अलैहे वसल्लम स.अ.व.) की बेटी रुसलूल्लाह को मशविरा देती है। हज़रत उमर (रज़ि.) ने आप (स.अ.व.) से इस सम्बंध में पूछा और मुतमइन हुये। कुछ मुहाजिरीन का ये एहसास था कि मदीना आने के बाद उनकी औरते जैसे उनके कंट्रोल से बाहर निकल गयीं हैं।
तमाम इस्लामी इलाके अपनी अपनी संस्कृतियों के मानने वाले हैं। उनको एक लड़ी में पिरोना मुमकिन नहीं है। संस्कृति और धर्म के फर्क को नज़रअंदाज कर देने की वजह से बहुत से फिक़ही मशविरे शरीअत का हिस्सा बन गये। हालांकि उनका ताल्लुक महज़ उस वक्त और जगह से था। इस लिहाज से हदीसः “जो किसी कौम की मुशाबहत (रूप) अख्तियार करे, वो उन्हीं में से है” (मिन तशबेहा बेक़ौम फहुम मन्हुम- अबु दाऊद, मसनद अहमद) इस हदीस को इस संदर्भ में रखे बग़ैर इसकी सही और काबिले अमल ताबीर तक पहुँचना मुमकिन नहीं।
ज़ात पात का समाजी भेदभाव इस्लाम की बुनियादी शिक्षा के खिलाफ़ है। इस्लाम इन भेदभावों को खत्म करने, रंग, नस्ल, पेशा, ग़रीबी, अमीरी की बुनियाद पर खड़ी होने वाली गैरबराबरी की दीवार को ढहाने के लिए आया था, लेकिन इन दीवारों ने जिन पर मध्यकाल में सामंती व्यवस्था की इमारत खड़ी की गयी थी, मुस्लिम समाज को ज़ात-पात, बिरादरी और क़बीले के नाम पर इतने हिस्सों में बाँट दिया है कि मुसलमानों का समाजी वजूद बिल्कुल बिखर कर रह गया।
मस्जिदों की गैर-ज़रूरी तामीर (निर्माण) व सजावट पर खर्च ने एक रुझान की शक्ल अख्तियार कर ली है। मस्जिदों को सादा और कुशादा (विस्तृत) होना चाहिए। इस हद तक मज़बूती भी कि किसी तरह के खतरे का अंदेशा न हो, लेकिन इस वक्त जो शानदार मस्जिदें बन रही हैं उनमें महज़ मज़हबी जोश ही नज़र आता है। इसलिए इनकी तामीर व सजावट में जो लोग सबसे ज़्यादा माली मदद करते हैं, बल्कि कहना चाहिए कि जिनके बुलंद हौसलों की बुनियाद पर मस्जिद की बुलंद इमारत खड़ी की जाती है, वो नमाज़ और मज़हब पर अमल के दूसरे मामले में सबसे ज़्यादा पीछे होते हैं। कुछ लोग अपने बुरे कामों को इस तरह के अच्छे कामों के पर्दे में छिपाते हैं और बुरे काम करने की मानसिकता वाले लोग इस तरह के अच्छे काम से अपने आप को सुकून देते हैं। इसकी बहुत सी मिसालें पेश की जा सकती हैं, लेकिन मसलेहतन ऐसा करना बेहतर मालूम नहीं होता। ऐसा महसूस होता है कि मदरसों व मस्जिदों पर ज़्यादा ध्यान देने की वजह से दूसरे अहम समाजिक ज़रूरतों पर से अवाम की तवज्जोह हट गयी है। इसलिए हमारे यहाँ अच्छे तालीमी इदारे, अवाम की भलाई के इदारे और अस्पताल न के बराबर पाये जाते हैं।
हिंदुस्तान जैसे साझा संस्कृति वाले समाज में मुसलमानों और गैरमुसलमानों के बहुत से समाजिक मसले एक हैं। उदाहरण के तौर पर मुसलमानों में दहेज की और हिंदुओं में तिलक की रस्म पायी जाती है। मज़हब के नाम पर अंधविश्वास कमोबेश दोनों जगह मौजूद हैं। धर्म की नैतिकता और मूल्यों को भौतिकता और पश्चिम के सेकुलर-उदारवादी विचारों से जो खतरे हैं, मुसलमानों की तरह ही दूसरे समुदाय भी इसे महसूस कर रहे हैं। सच्चाई ये है कि आज ये फर्क करना मुश्किल हो गया है कि गैरमुस्लिम समाज के मुक़ाबले में मुस्लिम समाज की हद (सीमा) कहाँ से शुरु होकर कहाँ पर खत्म होती हैं? ऐसे में समाज सुधार की कोशिशों में सांप्रदायिक व आपसी सहयोग ज़रूरी है। लेकिन इससे हट कर हमारी बनावटी धार्मिकता इन मामलात में दूसरों से दूरी रखने को ही मज़हबी ज़रूरत समझती है। हालांकि दाई (दावत देने वाले) क़ौम की हैसियत से ऐसा करना इस्लाम से तआर्रुफ (परिचय) का भी अहम ज़रिया है। हां, अलबत्ता इसकी ये क़ीमत तो चुकानी ही पड़ेगी कि मुस्लिम समाज की खराबियाँ दूसरे समाज के समाने भी बेनक़ाब होंगी।
सामूहिक जीवन के आधार की हैसियत रखने वाले ऐसे कई मूल्य हैं जो गैरमुस्लिम समाज की सामूहिक तरक्की की बुनियाद हैं, और इस्लाम में भी उनकी वही अहमियत है। इन मूल्यों से महरूमी ने मुस्लिम समाज के पतन में अहम रोल अदा किया है। इस सम्बंध में पाकिस्तान के चंद बड़े आलिमों में से एक बड़े देवबंदी मौलाना ज़ाहिदुल राशिदी साहब के ख्यालात पेश करता हूँ – मौलाना ने एक पाकिस्तानी पत्रिका को इण्टरव्यु देते हुए इस सवाल के क जवाब में जवाब में कि मुसलमानों के पतन का क्या कारण है? कहा कि, चारों ख़लीफ़ा के बाद हम कोई मज़बूत राजनीतिक व्यवस्था नहीं बना सके... रसूलुल्लाह (स.अ.व.) ने खिलाफत स्थापित करने को मुसलमानों की आम मर्ज़ी पर छोड़ दिया और अवाम की राय पर भरोसा किया, लेकिन हम लोग इस परम्परा को बरकरार नहीं रख सके, जबकि यूरोप ने इसे अपना लिया। (2) चारों खलीफ़ा के ज़माने में लोक कल्याणकारी राज्य की जो कल्पना सामने आ रही थी हम उसका सिलसिला बरकरार नहीं रख सके और ये परम्परा भी हमसे यूरोप ने छीन ली। (3) साइंस और टेक्नोलोजी के क्षेत्र में युरोप को रास्ता दिखाकर हम खुद इस राह से हट गये और मैदान यूरोप के हवाले कर दिया। (अलशरिआ गुजरांवाला, फरवरी 2005, ब-हवाला आबे हयात, लाहौर, जनवरी 2005)
हमारी सतही मज़हबी सोच के नाम पर हम सिर्फ मज़हब की घटनाओ और प्रतीकों के प्रशंसक हैं जबकि इसमें कई ऐसी चीज़ें शामिल हैं जिसका शायद ही मज़हब से कोई रिश्ता है, लेकिन इस पर हमारी प्रतिभा खर्च हो रही है। इस्लामी रूप पर जितना ज़ोर है रूहानी हालत और नैतिक रूप से दुरुस्त होने पर उतना ज़ोर नहीं है। इसलिए दीन के हवाले से और दीनदार की शक्ल में दुनिया का कारोबार इस दौर का अहम और निहायत फायदा देने वाला कारोबार बन चुका है।
हक़ीक़त ये है कि हमारी सतही मजहबी सोच ही है, जिसने मिसाल के तौर पर राय जाहिर करने की आज़ादी पर पाबंदी लगा रखी है, इससे हमारी ज़हनी तौर पर दिवालियापन की पोल खुल जायेगी, जबकि आज का मुस्लिम समाज राय की आज़ादी का सबसे बेहतरीन नमूना पेश करता है। कोई भी बात जो आम मज़हबी सोच से अलग हो, नहीं कही जा सकती है, वरना इस पर उदारवादी और आधुनिकता वादी होने की फब्तियाँ कसी जाती हैं, जो आलोचकों की निगाह में दीन से बग़ावत के बराबर है। मिस्र जैसे देशों में कई ऐसे उदारवादियों को अपनी जान गँवानी पड़ी। हालांकि कलम का जवाब तलवार से देना ये बताता है कि हम उस सवाल या ऐतराज़ का जवाब इल्मी सतह पर देने के काबिल नहीं हैं। हमारी तथाकथित धार्मिकता मुस्लिम समाज में उग्रवाद को रोकने के बजाये उसको शह देने की वजह बन रहा है, क्योंकि ऐसे रूझान रखने वाले इस्लाम का हवाला देते हैं।
पाकिस्तान के उग्रवादियों ने बुनियादी तौर पर अवाम के इसी बे-रूह और सतही मजहबी रवैय्ये का फायदा उठाया है। इस बे-रूह और सतही मज़हबी रवैय्ये की हक़ीक़त को मौलाना महमूद हसन (शेखुल-हिंद) के ख्यालात की रौशनी में देखने और परखने की कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने अपने शागिर्द मौलाना मनाज़िर अहसन गीलानी की इस बात पर कि मुसलमानों को रसूलुल्लाह (स.अ.व.) से इस क़दर मोहब्बत है कि वो अपने वाल्दैन की तौहीन तो बर्दाश्त कर सकते है, लेकिन आप (स.अ.व.) की तौहीन और बेइज़्ज़ती बर्दाश्त नहीं कर सकते। फरमाया कि “दर हक़ीक़त आप (स.अ.व.) की बेइज़्ज़ती में (मुसलमानों के) अपनी बेइज्ज़ती का एहसास छिपा हुआ है। (इससे दरअसल) मुसलमानों की मर्यादा और अहं को चोट पहुँचती है कि जिसे वो अपना पैग़म्बर और रसूल कहते है, तुम उसका अपमान नहीं कर सकते। चोट दरअसल उस पर पड़ती है लेकिन आभास होता है कि पैग़म्बर की मोहब्बत ने उनको बदला लेने पर अमादा कर दिया है।” (तर्जुमान दारुल ऊलूम, दिल्ली, जनवरी 2002)
बहरहाल समाजिक समस्या के पैदा होने और बढ़ाने में मुस्लिम अवाम का सतही मज़हबी रवैय्या एक अहम कारण है। हमें ये फर्क करना होगा कि जिस तरह हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं है उसी तरह मज़हब की तरह दिखने वाला हर रवैय्या मज़हबी नहीं होता है। वो मज़हब के नाम पर समाज में तबाही का ज़रिया और उसकी खुशहाली और तरक्की में बहुत बड़ी रुकावट है।
(उर्दू से हिंदी अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
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