वारिस मज़हरी (उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
गैर मुस्लिमों के साथ मवालात या दोस्ती का मसला कुछ अहम समस्याओं में से एक है, क्योंकि एक तरफ इसकी पूरी बहस को सीधे कुरान से लिया गया है तो दूसरी ओर वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक स्थिति में गैर मुस्लिमों के साथ बेहतर संबंध बनाये बिना काम नहीं चलने वाला है और इसे सभी स्वीकार करते हैं। कुरान में विभिन्न स्थानों पर कुफ़्फ़ार व मुशरिकीन और यहूदो नसारा से दोस्ती की मुमानिअत की गई है। सबसे पहले सूरह आले इमरान की आयत संख्या 27 में इसका ज़िक्र इस तरह किया गया है ' मोमेनीन अहले ईमान को छोड़ कर काफिरों को अपना रफीक़ और दोस्त हरगिज़ न बनायें जो ऐसा करेगा उसका अल्लाह से कोई ताल्लुक नहीं। हाँ ये माफ़ है कि तुम उनके ज़ुल्म से बचने के लिए ऐसा तर्ज़े अमल अख्तियार कर जाओ, मगर अल्लाह तुम्हें अपने आप से डराता है और तुम्हें उसी ओर पलट कर जाना है’। इस आयत की तशरीह में मौलाना अशरफ अली थानवी रह. लिखते हैं:'' कुफ़्फ़ार के साथ तीन किस्म के मामले होते हैं मवालात यानी दोस्त, मदारात यानी ऊपरी खुश और मवासालत यानी एहसान व नफा-रसानी'' (बयानुल कुरान 217/1) इनके मुताबिक: मवालात तो किसी हाल में जायेज़ नहीं, औऱ मदारात तीन हालतों में सही है। एक दफाए ज़रर के लिए। दूसरे उस काफ़िर की मसलहते दीनी यानी तवक़्क़ो हिदायत के लिए। तीसरे इकराम ज़ीफ के लिए।'' मुफ्ती मोहम्मद शफी साहब रह. ने मआरिफुल कुरान (जिल्द-1, पारा:3 पेज: 1347) में इस तशरीह को अख्तियार किया है। लेकिन गैर मुसलमानों के साथ ताल्लुकात का एक चौथा दर्जा मामलात का उन्होंने इज़ाफ़ा किया है, जो उनके अनुसार'' सभी गैर मुस्लिमों के साथ जायेज़ है, बजुज़ ऐसे कि इन मामलों से आम मुसलमानों को नुक्सान न पहुंचता हो। मुफ्ती मोहम्मद शफी साहब रह. ने मवालात की ताबीर '' कल्बी व दिली दोस्ती व मुहब्बत'' से की है। (ऐज़ा, पेज: 135)
मौलाना थानवी रह. और मौलाना शफी रह. ने जिस मौकफ का इज़हार किया है, अक्सर उलेमा का मौकफ यही रहा है जो आमतौर पर इस या इस क़बील की दूसरी आयात की तशरीह में अनदेखी कर दी जाती है। पहला बुनियादी सवाल तो यही है कि मवालात का सही अर्थ क्या है? दूसरे यह कि मवालात के हुक्म का ताल्लुक आम हालात से है या मख्सूस या मोतईय्यन से। दूसरे अल्फाज़ में मोताल्लिका आयात में ज़मानो मकान के फर्क के बिना सभी गैर मुस्लिमों के साथ मुसलमानों के ताल्लुकात के ओमूमी नौइयत को उसूली सतह पर ज़ेरे बहस लाया गया है या में इसमें एक इश्तशनाई नौइयत का बयान है। उलेमा की अक्सरियत का मानना है कि ये ओमूमी नौइयत का बयान है। इसका इत्लाक़ ज़मानो मकान के फर्क के बगैर सभी गैर मुस्लिमों पर होता है। मुसलमानों को गंभीरता के साथ अपना दोस्त बनाने और दिली ताल्लुक कायम करने से रोक दिया गया है। हिंदुस्तान में तहरीके आज़ादी में उलेमाए देवबंद के मुखालिफ उलेमा की एक बड़ी जमात ने इंडियन नेशनल कांग्रेस समेत और अंग्रेजों के साथ अदम मवालात की तहरीकों में शामिल होने से इसलिए मुकम्मल तौर पर मना कर दिया कि सभी तहरीकों में मुसलमानों के साथ हिन्दू शामिल थे। इनका उसूली मौकफ ये था कि अंग्रेजों के साथ साथ हिन्दुओं से भी अदम मवालात होना चाहिए क्योंकि उनकी नज़र में अंग्रेजों के मुकाबले में हिंदू ज़्यादा बड़े दुश्मन थे। (तफ्सील के लिए ऊषा सान्या की किताब 'डिवीजनल इस्लाम एण्ड पालीटिक्स इन ब्रिटिश इंडिया, का नवां अध्याय)
शेख मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब तो यहां तक कहते हैं कि'' मुसलमानों का ईमान सही हो ही नहीं सकता चाहे वह मोहिद और शिर्क को तर्क करने वाला हो, जब तक कि वह मुशरिकीन के साथ अदावत न रखे और उनके तई बुग़्ज़ और अदावत का इज़हार न करे। (इल बादाहु वलमुशरिकीन व अलनसरीह अलहम बिल अदावतः वलबिग़्ज़ मजमूअतः अलरमसाइल वा अलमसाइल अलनजलदिया 291/4) यहां संदर्भ के हिसाब से मुशरिकीन शब्द का प्रयोग हुआ है। वरना उनके साथ उनके उलेमा व मुफस्सिरीन के नज़दीक कुरान की विभिन्न आयतों के आधार पर जिनमें कुफ़्फ़ार व मुशरिकीन के साथ यहूद व नसारा से भी तर्के मवालात का हुक्म दिया गया है। ये हुक्म सभी गैर मुस्लिमों के लिए आम है।
हकीकत ये है कि मवालात की ये तशरीह इंसानी अक्ल और फितरत दोनों से मआरिज़ है। गौर करने की बात ये है कि इस्लाम में अहले किताब की औरतों से निकाह की इजाज़त मुसलमानों को दी गई है। जिस पर सहाबा हज़रात रज़ि. के वक्त से लेकर आज तक अमल होता चला आ रहा है। इंसान फितरी तौर पर मजबूर है कि वो अपनी बीवियों और माओं से कल्बी दोस्ती और दिली मोहब्बत कायम करे। सवाल ये पैदा होता है कि क्या इस मामले में इस्लाम एक मुसलमान को रोक देगा कि वह अपनी गैर मुस्लिम बीवी या माँ से प्यार न करे? और ये कि'' सिर्फ ज़ाहिरी खुश खल्की'' (मदारात) से काम चलाए? क्या ऐसी स्थिति में सुखद वैवाहिक जीवन की कल्पना भी की जा सकती है? हकीकत ये है कि इस्लाम एक फितरी दीन है। वो फितरते इंसानी के खिलाफ नहीं जा सकता।
असल बात ये है कि कुरान में मवालात की आयात का ताल्लुक न तो सभी मुसलमानों से है और न सभी गैर मुसलमानों से। इनके असल मोखातिब वो मुसलमान हैं जिनके और गैर मुसलमानों की किसी जमात के बीच तनाव और युद्ध की स्थिति कायम हो। इस पर इस हुक्म के इत्लाक़ की सही शर्त ये है कि ये जंग खालिस इस्लामी बुनियादों पर लड़ी जा रही हो। यानी वो सचमुच इस्लाम के कलमे की हिफाज़त और उसको बुलंद करने के लिए लड़ी जा रही हो न कि सिर्फ अपने क़ौमी मकासद व मफ़ादात के लिए। जिसके जायेज़ होने में डॉक्टर इसरार आलम (पाकिस्तान) के अनुसार कोई संदेह नहीं लेकिन उस पर जिहाद फी सबीलिल्लाह का इत्लाक़ नहीं किया जा सकता (डॉक्टर साहब ने अपनी मुख्तलिफ तहरीरों में इस पहलू पर जोर दिया है)
क़ाबिले मुलाहिज़ा पहलू ये है कि जिस तरह जिहाद और क़ताल से मोताल्लिक़ मुख्तलिफ आयात को उनके असल सेयाक व सबाक़ (संदर्भ) से हटा कर इनका इत्लाक़ और ओमूमी मफ्हूम मुराद नहीं लिया जा सकता है, जिस पर मौजूदा सभी उलेमा का इत्तेफाक़ है इसी तरह मवालात की आयात का, उनको उनके पसे-मंज़र या शाने नोज़ूल के तहत रखकर ही सही अर्थ निकाला जा सकता है। जैसे कुरान कहता है कि, तुम उनको जहाँ भी पाओ कत्ल करो (अल-बकरह 191) अगर वो पीछे मुड़ें तो तुम उन्हें पकड़ो और और कत्ल कर दो, वो जहां भी मिलें (अल-निसा: 89) उलेमाए असलाफ में एक तादाद ऐसी रही है जो सूरेः तौबा की आयत 29 से गैर मुस्लिमों के साथ अच्छे बर्ताव की हिदायत करने वाली आयात को मंसूख तसव्वुर करती रही है लेकिन अब जम्हूर का इस पर इत्तेफाक़ है कि ये और इस तरह की आयात इस सूरते हाल के साथ खास हैं जब मदीना में मुसलमानों की मामूली और कमज़ोर जमात को मदीना के यहूद और मक्का के मुशरिकीन के साथ वजूद की जंग दरपेश थी। दोनों पक्ष एक दूसरे के सामने पंक्ति जोड़कर थे। उनका ताल्लुक आम और सामान्य स्थिति से नहीं है। मवालात की आयात ऐसी स्थिति से संबंध रखती हैं और उनका हुक्म उन्हीं जैसी स्थिति के साथ विशेष है। मौलाना अमीन अहसन इस्लाही '' तदब्बुरे कुरान '' में लिखते हैः कुफ़्फ़ार को दोस्त और हलीफ बनाना उसी हालत में ममनू है जब ये मुसलमानों के बामुकाबिल हों। अगर यह स्थिति न हो तो इसमें कोई कबाहत नहीं है''। (412/2) आल-इमरान की आयत 28 की तशरीह में लिखते हैं: '' फरमाया कि मुसलमानों के लिए जायेज़ नहीं है कि काफिरों को अपना वली बनायें लेकिन इसी के साथ 'मिन दूनल मोमिनीन'' की क़ैद है। यानी काफिरों के साथ सिर्फ इसी किस्म की मवालात जायेज़ है जो मुसलमानों के बिलमुकाबिल और उनके मफाद और मसालेह के खिलाफ हो '' (ऐज़ास: 67) मवालात से मोताल्लिक इन आयात में हालांकि मुसलमानों को मोखातिब बनाया गया है लेकिन, जैसा कि क़र्तबी और साहबे तदब्बुरे कुरान ने इसकी वज़ाहत की है इसमें असल खिताब मुनाफिकीन से है जो मदीना के यहूद की मुसलमानों के साथ साज़िशों में उनके आलएकार कार बने हुए थे। या उन मुसलमानों से है, जिनका ताल्लुक़ हिजरत के बाद भी कुछ ज़ाती मसालेह के तहत मुशरिकीन मक्का से कायम था। जब अपने वजूद और ईमान की हिफाज़त के लिए मुसलमानों के दुश्मनों से जंग मुसलसल छिड़ गई तो कतई तौर पर मक्का के मुशरिकीन और मदीना के यहूदियों के साथ दोस्ती की मुसलमानों को मुमानिअत कर दी गई।
इसकी सबसे बड़ी दलील सूरेः मुम्तहन्ना की आयात हैं। इस सूरेः की पहली ही आयत में अपने औऱ खुदा के दुश्मनों को दोस्त बनाने से मना किया गया है और जुर्म ये बताया गया है कि हक़ के इनकार के साथ इन्होंने रसूलल्लाह स.अ.व. और उस पर ईमान लाने वाले मुसलमानों को उनके घरों (देश) से निकाल बाहर किया। फरमाया गया कि '' अगर वो तुमको पा जाएँ तो तुम्हारे दुश्मन बन जाएं इस मफ्हूम की वज़ाहत आगे की आयत नम्बर 8 और 9 से होती है जिनमें कहा गया है कि तुम्हें अल्लाह सिर्फ उन लोगों की मोहब्बत से रोकता है जिन्होंने दीन के बारे में तुमसे लड़ाईयां लड़ीं और तुम्हें देश निकाला दिया और देश निकाला देने वालों की मदद की। जो लोग ऐसे कुफ़्फ़ार से मोहब्बत करें वो बिल्कुल ज़ालिम हैं। इसलिए मौलाना अमीन अहसन इस्लाही ने ज़ेरे बहस मुमतहेन्ना की आयात के ज़ेल में अपने मौकफ को मज़ीद वाज़ेह करते हुए लिखा है कि '' मवालात की ये मुमानिअत सभी कुफ़्फ़ार के हक़ में नहीं है बल्कि सिर्फ उनके हक़ में है जिन्होंने दीन के मामले में तुम (मुसलमानों) से जंग की। और तुम (मुसलमानों) को जिला-वतन किया। (तदब्बुरे कुरान: 334/8)
स्रोतः सहाफत, नई दिल्ली
URL for English article: http://www.newageislam.com/islam-and-pluralism/does-quran-allow-muslims-close,-intimate-interaction-with-non-muslims?-/d/6549
URL for Urdu article: http://www.newageislam.com/urdu-section/problem-of-cooperation-with-the-non-muslims--غیر-مسلموں-کے-ساتھ-موالات-کا-مسئلہ/d/6552
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