गुलाम गौस, न्यू एज इस्लाम
२० अक्टूबर. २०१४
यह एक मुसल्लमा हकीकत है कि उस वक्त तक किसी
भी मुसलमान की तकफीर करना इस्लाम में नाजायज हराम है जब तक वह खुद खुले आम अपने
कुफ्र का इकरार ना कर ले। तथापि तालिबान के नजरिया साज़ जनाब काशिफ अली अल खैरी ने “नवाए अफगान जिहाद” मैगज़ीन के जुलाई २०१४ के शुमारे
में पुरे ज़ोर व शोर के साथ उन उलेमा पर ‘कुफ्र’ व ‘इल्हाद’ का आरोप लगाया
जिन्होंने आपरेशन जर्बे अज्ब की हिमायत की और इसे आतंकवादियों के खिलाफ एक जिहाद
करार दिया। इसके अलावा, उन्होंने पाकिस्तान के सभी ‘कुफ्फार’ और ‘मुर्तदीन’
को कत्ल करने के लिए स्वयंभू कानूनी जवाज़ पेश किया है। और इस तरह
उन्होंने केवल यह कि पुरी बेगैरती के साथ कुरआन व हदीस और उनके अर्थ का गलत इस्तेमाल
किया है और उन्होंने चारों इस्लामी फिकही मज़ाहिब की भी खिलाफवर्जी की है।
तालिबानी नजरिया साज़ जनाब काशिफ अली अल खैरी
के बयानों से मरकजी धारे में शामिल मुसलमानों को भविष्य में हमलों का खतरा शदीद हो
गया है जिन के बारे में उनका मानना है कि यह “मुशरिकों की
जमात” है। यह बात काबिले ज़िक्र है कि आई एस आई एल, तहरीके तालिबान, अलकायदा आदि जैसी दहशतगर्द संगठनों
का तथाकथित जिहाद विचारधारा के लोग सूफी मुसलमानों को कत्ल करने और इस्लामी
सांस्कृतिक विरासत (मज़ारों, कब्रों और पवित्र स्थानों) को
तबाह करने के लिए है। और वह यह काम तक्फीरिज्म के झूटे बहाने के तहत करते हैं
जिसका परिणाम हिंसा और ह्त्या है।
जनाब काशिफ के अनुसार लगभग तमाम पाकिस्तानी
मुसलमानों को कत्ल करना बिलकुल जायज है इसलिए कि वह काफिर और मुर्तद हैं। सूफी
मुसलमानों को काफिर करार देने और उनके कत्ल का जवाज़ पेश करने का उनका जज़्बा
इस्लामी तालीमात की सख्त खिलाफवर्जी है। आम मुसलमानों या सूफी मुसलमानों की तो बात
ही छोड़ दें गैर मुस्लिमों को भी कत्ल करना इस्लाम में नाजायज व हराम है।
किसी के ज़हन में यह सवाल पैदा हो सकता है कि
तालिबान जैसी दहशतगर्द संगठन पाकिस्तान, ईराक, अफगानिस्तान,
त्योनिस, लीबिया, मिस्र,
माली, शाम और तुर्की आदि में गैर वहाबी या सूफी
मुसलमानों की टार्गेट क्लिंग क्यों कर रहे हैं। इसके जवाब को बेहतर तरीके से
निम्नलिखित लाइनों में समझा जा सकता है।
इब्ने अब्दुल वहाब की तालीमात तालिबानी
दहशतगर्दी की बुनियाद हैं
मक्का मुकर्रमा के मुफ़्ती ए आज़म मौलाना शैखुल
इस्लाम अहमद जैनी दह्लानी रज़ीअल्लाहु अन्हु, (मृतक १८८६) अपने लेख “फितनतुल वहाबिया” में लिखते हैं:
“इब्ने अब्दुल वहाब के वालिद, भाई और मशाइख ने उसके बारे में जो जो कयास आराइयां कीं वह सब सच साबित
हुईं। इब्ने अब्दुल वहाब ने गलत और गुमराह कुन मोअतकेदात और मामूलात इख्तेरा किया
और कुछ जाहिल लोग से अपनी इताअत करवाने में कामयाब हो गया। गलत और गुमराह कुन
मोअतकेदात व मामूलात उलेमा ए इस्लाम के अकवाल से अलग थे। उनके गलत और गुमराह करने
वाले मोअतकेदात और मामूलात की वजह से मोमिनों पर कुफ्र व इल्हाद के आरोप लगाए जाने
लगे! इसने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की कब्र पर हाजरी और वसीले को शिर्क करार
दिया। इसके अलावा उसने दुसरे नबियों और सालेहीन की कबरों पर हाजरी और उनसे वसीले
को भी शिर्क करार दिया। उसने कहा कि, “नबी सल्लल्लाहु अलैहि
वसल्लम के नाम से वसीला करना शिर्क है। “उसने उन लोगों को भी
मुशरिक कहा जो दुसरे नबियों और सालेहीन से वसीला करते हैं।
“अपनी बिदआत को विश्वसनीय बनाने के लिए इब्ने
अब्दुल वहाब ने उन्हें इस्लामी स्रोत से भी सजाया और उसने इन हवालों को अपनी बिदआत
के सबूत में नकल किया जिनका प्रयोग किसी दुसरे मसाएल के अस्बात में किया जता है।
उसने झूटे बयान पेश किये और उसे खूबसूरती के साथ पेश करने की कोशिश की यहाँ तक कि
लोग उन पर अमल पैरा हो गए। और उसने लेखों में मुकालात लिख लिख कर प्रकाशित किये
यहाँ तक कि लोगों को इस बात का विश्वास हो गया कि अतीत के अक्सर मुवह्हिद (खुदा की
वहदानियत का इकरार करने वाले) काफिर थे।“
उसके नज़रियात ऐसे थे जिनसे मुसलमानों में
ज़बरदस्त फुट पैदा हो गया। और इस वजह से अतिवाद, बुनियाद
परस्ती और तमाम संभव हिंसापूर्ण तरीके दुनिया भर में फैलने शुरू हो गए। ऐसा इसलिए
हुआ कि इब्ने अब्दुल वहाब ने तमाम गैर वहाबी मुसलमानों को मुशरिक कहा और तमाम गैर
वहाबी मुसलमानों और गैर मुस्लिमों के खिलाफ अपने अनुयायिओं को ‘जिहाद’ करने का भी हुक्म दिया।
इब्ने अब्दुल वहाब के नक़्शे कदम पर चलते हुए
तालिबानी नज़रिया साज़ जनाब काशिफ अली ने भी सूफी और गैर वहाबी मुसलमानों को ‘कुफ्फार’ कहा है और उनके कत्ल का तथाकथित और
बेबुनियाद जवाज़ पेश किया है। आला हज़रत रज़ीअल्लाहु अन्हु जैसे सूफी उलेमा कराम ने
इब्ने अब्दुल वहाब नज्दी और इस्माइल देहलवी जैसे नजरिया साजों की तरदीद की है
जिन्होंने आम मुसलमानों को ‘मुशरिक’ करार
दिया था। इसलिए मुसलमानों की अक्सरियत अब भी मुसलमान है। इसलिए उन्हें ‘कुफ्फार’ कहना अब भी इस्लाम की खिलाफ वर्जी है।
जब अहम इस्लाम के स्रोत कुरआन व हदीस का
अध्ययन करते हैं तो हमें ऐसी अनगिनत आयतें और हदीसें मिलती हैं जिनमें मुसलमानों
के क़त्ल की सख्ती के साथ मुमानियत वारिद हुई है।
कुरआन मजीद मोमिन के क़त्ल को मना करता है
अल्लाह पाक का फरमान है:
“और जो लोग ईमानदार मर्द और ईमानदार औरतों को
बगैर कुछ किए द्दरे (तोहमत देकर) अज़ीयत देते हैं तो वह एक बोहतान और सरीह गुनाह का
बोझ (अपनी गर्दन पर) उठाते हैं।“ (३३:५८)
“इसी सबब से तो हमने बनी इसराईल पर वाजिब कर
दिया था कि जो शख्स किसी को न जान के बदले में और न मुल्क में फ़साद फैलाने की सज़ा
में (बल्कि नाहक़) क़त्ल कर डालेगा तो गोया उसने सब लोगों को क़त्ल कर डाला और जिसने
एक आदमी को बचा दिया तो गोया उसने सब लोगों को बचा लिया और उन (बनी इसराईल) के पास
तो हमारे पैग़म्बर (कैसे कैसे) रौशन मौजिज़े लेकर आ चुके हैं (मगर) फिर उसके बाद भी
यक़ीनन उसमें से बहुतेरे ज़मीन पर ज्यादतियॉ करते रहे।“ (५:३२)
इस आयत में शब्द ‘नफ्स’ का इस्तेमाल बराबर तौर पर मुसलमानों और गैर
मुस्लिमों दोनों के लिए किया गया है। इसलिए किसी भी इंसान का ज़ुल्मन खून करना
इस्लाम में नाजायज और हराम है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका धर्म क्या है।
इसलिए, किसी भी गैर वहाबी मुस्लिम का खून करना उतना ही सख्त
गुनाह है जितना कि पूरी इंसानियत का क़त्ल करना है।
कुरआन का फरमान है:
“और जिसका खून करना अल्लाह पाक ने हराम कर
दिया है उसको कत्ल मत करो, हाँ मगर हक़ के साथ तुम को ताकीदी
हुक्म है ताकि तुम समझो”। (६:१५१)
अल्लाह ने एक कौम को दूसरी कम का मज़ाक उड़ाने
से मना किया फरमाया है:
“ऐ ईमान वालों! मर्द दोसरे मर्दों का मज़ाक ना
उडाएं संभव है कि यह उनसे बेहतर हो और ना औरतें औरतों का मज़ाक उडाएं संभव है यह
उनसे बेहतर हों।“ (४९:११)
मुसलामानों के जान की हुरमत हदीसों में:
अब हम निम्नलिखित हदीसों पर गौर करते हैं:
“किसी मुसलमान को गाली देना फिस्क है और उसे
मारना कुफ्र है।“ (सहीह बुखारी जिल्द ९, किताब ८८, हदीस नम्बर १९७)
इस्लाम ने एक मोमिन की ज़िन्दगी को कितना
कीमती बनाया है इसका अंदाजा इस बात से आसानी से लगाया जा सकता है कि इंसान के खून
की हुरमत काबे की हुरमत से भी अधिक है। क्या तालिबानी अस्करियत पसंदों की नज़र से
यह हदीस नहीं गुजरी?
हज़रत अबू हुरैरा रज़ीअल्लाहु अन्हु बयान करते
हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि:
“तुममें से कोई भी अपने भाई की तरफ हथियार ना
उठाए इसलिए कि वह यह नहीं जानता की शैतान इस हथियार से किसी को नुक्सान पहुंचा
सकता है जिसकी वजह से जहन्नम उसका मुकद्दर बन सकता है” (सहीह
मुस्लिम, किताबुल फ़ज़ाइल, (किताबुल बिर
वल सलात वल अदब) इमाम हाकिम ने इस हदीस को अल मुस्तदरक, बेहकी
अल सुनन अल कुबरा में रिवायत कीया है।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह भी फरमाया
कि: जो शख्स अपने भाई की तरफ हथियार उठाता है फरिश्ते उस पर लानत भेजते हैं अगर चह
वह उसका अपना भाई ही क्यों ना हो और उस वक्त तक लानत भेजते रहते हैं जब तक वह
हथियार रख ना दे। (सहीह मुस्लिम, इमाम तिरमिज़ी भी यही हदीस अल
सुनन में रिवायत करते हैं, इमाम हाकिम अल मुस्तदरक में इसे
रिवायत करते हैं, इमाम बेहकी इस हदीस को सुनन अल कुबरा में
रिवायत करते हैं)
यहाँ तक कि ड्रामे में भी किसी मुसलमान की
तरफ चाक़ू, खंजर, तलवार, या बंदूक जैसे किसी हथियार से इशारा करना इस्लाम में हराम है। गैर जरूरी
तौर पर किसी मुसलमान को खौफज़दा करना एक मुसलमान के लिए सख्त ममनूअ है। अभी हमें
हदीस से यह सबक हासिल हुआ कि जो शख्स किसी मुसलमान पर हथियार उठाता है अल्लाह के
फरिश्ते उस पर लानत भेजते हैं।
इमाम बेहकी ने सुनन अल कुबरा, सुनन इब्ने माजा और इमाम अल राबई ने अपनी मुसनद में निम्नलिखित हदीस नकल
की है जिससे यह साबित होता है कि बातों से भी किसी मुसलमान को मारने में मदद करना
ममनूअ है:
“जो शख्स किसी मुसलमान को शब्दों के माध्यम
से भी क़त्ल करने में मदद करता है वह कयामत के दिन इस हाल में पेश किया जाएगा कि
उसकी आँखों के बीच वह शब्द लिखे हुए होंगे और वह अल्लाह की रहमत से मायूस होगा।“
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने
फरमाया कि: “एक सच्चा मुसलमान वह है कि जिसकी जुबान और
हाथ से दुसरे तमाम मुसलमान सुरक्षित हों; एक सच्चा मुसलमान
वह है कि जिससे लोगों की ज़िन्दगी और माल व दौलत महफूज़ हो; और
एक सच्चा मुजाहीद है जो अपने नफ्स पर काबू रखता हो और उसे खुदा की इताअत पर मजबूर
करता हो, और एक सच्चा मुहाजिर वह है जो उन तमाम चीजों को
तर्क कर दे जिसे अल्लाह ने ममनुअ करार दिया है। उस परवरदिगार की कसम जिसके कब्ज़े
कुदरत में मेरी जान है वह शख्स कभी जन्नत में नहीं जाएगा जिसका पड़ोसी उसके ज़ुल्म व
ज़्यादती से महफूज़ ना हो। (यही हदीस दुसरे शब्दों के साथ बुखारी शरीफ, मुस्लिम शरीफ, तिरमिज़ी, निसाई,
अबू दाउद, अहमद बिन हम्बल, दारमी, इब्ने हबान, बेहकी,
निसाई सूनन अल कुबरा, इब्ने अबी शैबा, अब्दुर्रज्जाक, अबू याअला और हमीदी में भी मरवी है।)
हज़रत अबू हुरैरा रज़ीअल्लाहु अन्हु बयान करते
हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: “जो हमारे खिलाफ हथियार उठाए वह हम में से नहीं है, और
जो हमसे बदद्यानती करे वह भी हम में से नहीं है” (मुस्लिम
शरीफ जिल्द-१, पृष्ठ-५८)
उपर्युक्त तमाम कुरआनी आयतों और हदीसों से
मुसलमानों को क़त्ल करने की मनाही सख्ती के साथ साबित होती है। इसलिए तालिबानी
आतंकवादियों के पास मुस्लिम भाइयों को क़त्ल करने के लिए कोई शरई बुनियाद नहीं है।
उनके पास खुद को इस्लाम, कुरआन, हदीस, शरीअत, जिहाद या किसी भी
इस्लामी इस्तेलाह से जुड़ने का कोई धार्मिक जवाज़ नहीं है बल्कि यह तो वह लोग हैं जो
मज़लूमों और बेगुनाहों का क़त्ल कर के इस्लाम और मुसलामानों को दुनिया भर में बदनाम
कर रहे हैं। क्या ऐसे दहशत गर्दाना अमल के माध्यम से भला इस्लाम लोगों के दिलों
में घर बना सकता है? नहीं, हरगिज़ नहीं।
(जारी____)
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