राम पुनियानी , न्यू एज इस्लाम
23 दिसंबर 2023
एक सप्ताह पहले 13 दिसंबर 2023 को दो युवक संसद भवन की सुरक्षा व्यवस्था को चकमा देते हुए
दर्शक दीर्घा से सदन के अंदर कूद गए, जहां उन्होंने पीले रंग की एक गैस हवा में छोड़ी। इससे सदन में
हंगामा मच गया। पूरी योजना चार युवाओं द्वारा बनाई गई थी जो बेरोजगारी की ओर देश का
ध्यान आकर्षित करना चाहते थे। इन युवाओं में से एक ऑटो रिक्शा चालक और एक किसान था, एक सरकारी नौकरी हासिल करने के
लिए परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था और एक दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी था। इन सभी को कर्नाटक
से निर्वाचित बीजेपी सांसद प्रताप सिम्हा द्वारा दर्शक दीर्घा के पास उपलब्ध करवाए
गए थे। इनमें से दो, जो भवन के अंदर घुसे थे, ने अपने जूतों में गैस के कैन छुपाए हुए थे। साल 2001 में इसी दिन (13 दिसंबर) संसद पर आतंकी हमला
हुआ था और युवाओं के सदन में कूदने से पहले सांसदों ने उस हमले में शहीद हुए लोगों
को श्रद्धांजलि दी थी।
युवाओं के जिस समूह ने इस घटना की योजना बनाई थी, उसमें स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त
42 वर्ष की नीलम आजाद और 22 वर्ष के सागर शिंदे शामिल थे।
जिस समय उनके दो साथी सदन के अंदर गैस छोड़ रहे थे उस समय ये लोग संसद भवन के प्रांगण
में यही कर रहे थे। नीलम आजाद हरियाणा के जींद से हैं। उनके पास एमए, एमएड और एमफिल की डिग्रियां हैं।
इसके अतिरिक्त वे नेशनल एलीजिबिलिटी टेस्ट (नेट) भी उत्तीर्ण कर चुकी हैं। वे अब भी
बेरोजगार हैं। युवाओं ने अंदर जो नारे लगाए उनमें शामिल थे ‘तानाशाही खत्म करो’, ‘संविधान की रक्षा करो’, ‘जय हिन्द’ और ‘वंदे मातरम’। उनका उद्धेश्य बेरोजगारी के
गंभीर संकट की ओर देश का ध्यान खींचना भी था।
ये सभी लोग भगतसिंह फैन्स क्लब नामक एक सोशल मीडिया ग्रुप के
सदस्य हैं। वे एक सोशल मीडिया प्लेटफार्म के जरिए एक-दूसरे के संपर्क में आए थे। उनका
प्रेरणास्त्रोत था भगतसिंह की ठीक इसी तरह की कार्यवाही। सन् 1929 में भगतसिंह और उनके मित्र बटुकेश्वर
दत्त ने सेन्ट्रल असेम्बली की दर्शक दीर्घा से एक बम सदन में फेंका था। उन्होंने बम
फेंकने के पहले यह सुनिश्चित किया कि उससे किसी को चोट न पहुंचे। दोनों क्रांतिकारियों
ने ब्रिटिश औैपनिवेशिक शासन के विरोध में पर्चे भी सदन में फेंके थे।
इन युवाओं, जिन्हें अवैध गतिविधियां निरोधक अधिनियम (यूएपीए) के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया
है,
ने बढ़ती हुई बेरेजगारी
के मुद्दे को राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में लाने का अत्यंत प्रभावी प्रयास किया
है। भगतसिंह और उनके कामरेडों ने बम फेंकने का निर्णय इसलिए लिया था क्योंकि उन्हें
अच्छी तरह पता था कि समाचारपत्रों में उनके विचारों को कोई स्थान नहीं मिलेगा। इस समय
भी स्थिति ठीक यही है। मुख्यधारा का मीडिया, जिसे ‘गोदी मीडिया’ का अत्यंत उपयुक्त नाम दिया गया है, का आम लोगों के सरोकारों और परेशानियों के प्रति पूर्णतः उपेक्षापूर्ण
रवैया है। बढ़ती मंहगाई, हंगर इडेक्स में भारत की गिरती स्थिति और बेरोजगारों की दिन-ब-दिन बड़ी होती फौज
मीडिया को न तो नजर आ रही है और ना ही उसे इनसे कोई मतलब है।
मोदी ने 2014 के आम चुनाव के लिए प्रचार के दौरान वायदा किया था कि सत्ता
में आने के बाद बीजेपी की सरकार हर वर्ष रोजगार के दो करोड़ अवसर निर्मित करेगी। असल
में हुआ इसके उलट। नोटबंदी के कारण लघु उद्योगों और गांवों और छोटे शहरों में करोड़ों
लोगों ने अपनी नौकरियां और काम-धंधे खो दिए। यह सरकार बड़े कॉरपोरेट घरानों के पूर्ण
नियंत्रण में है और रोजगार के अवसरों के सृजन के बारे में सोच भी नहीं रही है। उल्टे
कुछ कुबेरपति (नारायण मूर्ति) लोगों से हफ्ते में 70 घंटे काम करने के लिए कह रहे हैं। असंगठित क्षेत्र में प्रति
कार्यदिवस काम के घंटे पहले ही 8 से बढ़कर 12 हो चुके हैं।
‘द इकानामिक टाईम्स’ में प्रकाशित एक खबर कहती है
कि “सेंटर फॉर मानिटरिंग इंडियन इकोनॉमी” के आंकड़ों के अनुसार बेरोजगारी
की सकल दर, जो सितंबर में 7.09 प्रतिशत थी, पिछले माह बढ़कर 10.05 प्रतिशत हो गई। यह मई 2012 के बाद से अब तक की उच्चतम दर है। इसी अवधि में ग्रामीण बेरोजगारी
की दर 6.2 प्रतिशत से बढ़कर 10.82 प्रतिशत हो गई। शहरी बेरोजगारी
में मामूली गिरावट आई और यह 8.44 प्रतिशत रही।
इसी समाचारपत्र ने 1 नवंबर 2023 को प्रकाशित एक खबर में लिखा, “पिछले महीने इंफोसिस लिमिटेड
और विप्रो लिमिटेड सहित कई ऐसी भारतीय कंपनियों, जो तकनीकी सेवाओं की आउटसोर्सिंग करती हैं, ने घोषणा की है कि वे नए स्नातकों
को काम देने की अपनी योजनाओं को विराम दे रही हैं। इसका मतलब यह है कि कॉलेजों से निकलने
वाले हजारों इंजीनियरिंग डिग्रीधारी बेरोजगार रहेंगे”। इस सबके बीच प्रजातांत्रिक
विरोध के लिए स्थान और अवसर सिकुड़ते जा रहे हैं। विश्वविद्यालयों में विद्यार्थी यूनियनों
के चुनाव नहीं होने दिए जा रहे हैं और ऐसे सेमिनारों का आयोजन भी बाधित किया जा रहा
है जिनमें सरकार की आलोचना की आशंका हो।
संसद में जो हुआ वह स्पष्टतः कुंठित विद्यार्थियों और युवाओं
द्वारा अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त करने का प्रयास था। इसमें कोई संदेह नहीं कि जो तरीका
इन युवाओं ने अपनाया वह सही नहीं था। मगर क्या इन युवाओं के खिलाफ यूएपीए जैसे कड़े
और भयावह कानून के अंतर्गत मामला दर्ज करना उचित है? राहुल गांधी ने बढ़ती बेरोजगारी और मंहगाई को इस घटना के लिए जिम्मेदार बताया है। मगर विपक्ष
की मांग के बावजूद गृह मंत्री इस घटना पर संसद में वक्तव्य देने से बचते रहे हैं। जो
स्पष्ट दिख रहा है उसे देखने और समझने की बजाए प्रधानमंत्री मोदी कह रहे हैं कि यह
संसद की सुरक्षा व्यवस्था को भेदने का गंभीर मामला है और इसके पीछे कौन से तत्व हैं
इसका पता लगाया जाना जरूरी है। यह सही है कि इस घटना ने संसद की सुरक्षा व्यवस्था की
पोल खोल दी है। चार साधारण युवा ‘अभेद्य सुरक्षा’ को बहुत आसानी से भेदने में सफल रहे हैं। मगर इसे कोई गंभीर षड़यंत्र बताकर मूल
मुद्दे से ध्यान हटाने की बजाए सरकार को बेरोजगारी की समस्या के सुलझाव की दिशा में
काम करना चाहिए।
यह साफ है कि ये युवा किसी आतंकी या अतिवादी समूह या संगठन से
जुड़े हुए नहीं हैं। यह भी अच्छा है कि इनमें से कोई मुसलमान नहीं है। वरना इस घटना
का इस्तेमाल भी इस्लामोफोबिया को और हवा देने के लिए किया जाता। इन युवाओं ने यह बता
दिया है कि भगतसिंह को केवल शाब्दिक श्रद्धांजलि देने से काम नहीं चलने वाला है। हमें
उनके दिखाए रास्ते पर चलना होगा। भगतसिंह जनांदोलनों के हामी थे। अपने जीवन की शुरूआत
में वे हिंसा के समर्थक थे परंतु बाद में उन्होंने हिंसा का रास्ता त्याग दिया था।
वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि केवल आम लोगों की गोलबंदी के बल पर ही हम आजादी हासिल
कर सकते हैं। उन्होंने सेन्ट्रल असेंबली में किसी को मारने के लिए नहीं बल्कि ‘बहरों को सुनाने के लिए’ बम फेंका था। यह अत्यंत गर्व
और प्रसन्नता की बात है कि मुसीबतों के भंवर में फंसे हमारे युवा भगतसिंह को अपने मार्गदर्शक
के रूप में देख रहे हैं।
पूरे घटनाक्रम को उसके सही संदर्भ में समझा और देखा जाना चाहिए।
गोदी मीडिया की तर्ज पर इसके पीछे कोई खतरनाक षड़यंत्र ढूंढ़ने का प्रयास नहीं होना चाहिए।
युवाओं का उद्धेश्य एकदम साफ है और यह भी साफ है कि वे किसी भी किस्म की आतंकी विचारधारा
से प्रेरित नहीं हैं और उनके एकमात्र प्रेरक और मार्गदर्शक हमारे स्वाधीनता संग्राम
के महानतम क्रांतिकारी भगतसिंह हैं।
यह तो कोई नहीं कह सकता कि अपनी बात रखने के लिए इन युवाओं ने
जो तरीका अपनाया वह ठीक था। मगर उन्हें खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने या उनके पीछे
किसी बड़ी शक्ति को ढूंढ़ने की कोशिश करने की बजाए उनके दर्द, उनके सरोकार और उनके संदेश को
समझने की कोशिश होनी चाहिए। यही हमारे देश के प्रजातांत्रिक होने का सुबूत है।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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