याक़ूब ख़ान बंगश
23 सितंबर, 2013
पाकिस्तान में जब भी कोई आतंकवादी हमला होता है तो हर तरफ से नियमित निंदा का दौर शुरू हो जाता है। इसके बाद लोग हमेशा की तरह अपने व्यवसाय में लग जाते हैं, जब तक कि इसी तरह का एक और हमला होता है और इसके बाद फिर वही फिल्म दोहराई जाती है। ऐसा लगता है कि सब कुछ होता है, फिर भी कुछ नहीं होता। लोग इन हमलों की निंदा करते हैं, लेकिन फिर भी आतंकवादी बार बार हमारे बीच पाये जाते हैं। लोग मरने और घायल होने वालों को लेकर दुःखी होते हैं लेकिन इसके बाद जल्द ही वो इन सब बातों को भूल जाते हैं। लोगों को जब हमलों के बारे में पता चलता है तो वो उदास होते हैं, लेकिन बिरयानी के अगले दौर में हम ये सब भूल जाते हैं।
'विशेषज्ञों' से जब भी आतंकवाद के व्यापकता और पाकिस्तान में इसकी घातक विचारधारा के बारे में पूछा जाता है तो वो अक्सर ये कहते हैं, "लेकिन खामोश रहने वाले बहुसंख्यक उन्हें खारिज करते हैं"। लेकिन वास्तव में खबर ये है कि ये 'खामोश बहुसंख्यक' मुर्दा हो चुके है। एक लंबे समय से 'खामोश बहुसंख्यक' ज़िन्दा लोगों के अलावा मृत लोगों के लिए प्रयोग किया जाता रहा है। 1970 के दशक में वाटरगेट स्कैंडल के दौरान ही निक्सन ने 'खामोश बहुसंख्यकों' का हवाला दिया था जिसने उसका समर्थन किया था और जो वास्तव में मुर्दा ही थे। हमारी आबादी भी मुर्दा है जो आतंकवाद और इसकी विचारधारा का विरोध करती है। हमारी सामूहिक उदासीनता हमारे शब्दों और कार्रवाईयों से अधिक प्रभावी है। पिछले दशक या उससे पहले की बात तो जाने दीजिए इस अभिशाप ने हाल के महीनों में हमारी सेना के कई जवानों और नागरिकों की जान ले ली है, और हम अब भी बातचीत करना चाहते हैं। हमें ये सोचने से पहले मुर्दा होना चाहिए।
इस अभिशाप के और मज़बूत होने की एक वजह ये है और शायद ये हमारा पीछा भी नहीं छोड़ने वाला है, क्योंकि हमने अभी तक इस अभिशाप को गंभीरता से नहीं लिया है। ज़रा सोचिए, सिर्फ कुछ हफ़्ते पहले नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी ने मुख्य रूप से मीडिया के इशारे पर भारत के खिलाफ युद्ध उन्माद पैदा कर दिया था, लेकिन कभी तालिबान के खिलाफ कभी ऐसा उन्माद पैदा नहीं हुआ। 1947 के बाद से भारत ने पाकिस्तान में तालिबान के द्वारा मारे गये लोगों की संख्या के मुक़ाबले सिर्फ एक अंश को मारा है, लेकिन हम अभी भी हिंदुस्तान को अपना असल दुश्मन समझते हैं और उसके खिलाफ दृढ़ता से प्रतिक्रिया देते हैं। तालिबान ने व्यवहारिक रूप से एक दशक से भी अधिक समय से पूरे देश को बंधक बनाए रखा है और हमारे जीवन के लिए सबसे बड़ा खतरा है, लेकिन इसके बावजूद भी सेना के अधिकांश हिस्से का ध्यान भारतीय सीमा पर केन्द्रित है। इसलिए अगर तालिबानों को ही असली दुश्मन स्वीकार किया जाता है तो हमें उनके साथ वैसे ही पेश आना होगा और उन्हें समाप्त करने की अपनी प्रतिबद्धता को दिखाना होगा।
तालिबान के प्रति हमारी प्रतिबद्धता में कमी के कारणों में से एक ये है कि हमारा देश तेजी के साथ कट्टर और असहिष्णु होता जा रहा है। सच तो यह है कि हमारे देश की एक बड़ी आबादी भेदभाव करने वाली और उन्मादी है। ये बदलाव नया नहीं है। प्रारंभिक आधुनिक यूरोप में धर्म के कारण खून खराबे से लेकर ब्रिटिश भारत के 'सांप्रदायिक दंगों' तक धार्मिक कट्टरपंथी हर एक सदी में पाए गए हैं, और देशों को इन कट्टरपंथियों से निपटना पड़ा है।
इसी वजह से आधुनिक बनने की एक विशेषता ये है कि लोगों ने सीखा कि दूसरों को सिर्फ उनके धर्म की वजह से क़त्ल नहीं करना चाहिए। पश्चिमी देशों को इसे अपनाने में सैकड़ों बरस लगे और उम्मीद है कि इसे काफी हद तक हासिल किया जा चुका है। दक्षिण एशिया को इस मील के पत्थर हासिल करना अभी बाकी है। दरअसल पाकिस्तान में हम तेजी के साथ विपरीत दिशा में जा रहे हैं। हमारे भेदभाव भरे व्यवहार और उन्मादी होने की मिसालें इतनी हैं कि मुझे नहीं मालूम कि कहाँ से शुरु किया जाए। मैं सिर्फ ये कह सकता हूँ हम असहिष्णुता को सहन करते हैं!
कई साल पहले मैं पुराने पेशावर में घूम रहा था तभी संयोग से एक सुंदर सफेद मस्जिद के पास जाकर रुका जिसके बाहर हिस्से में फारसी में लिखा था। नज़दीक से देखने में पाया कि ये मस्जिद नहीं बल्कि मस्जिद के अन्दाज़ में बना एक चर्च था। इसको बनाने वालों ने इसे और सजाने और संवारने के लिए इसके बाहरी हिस्से को पश्तो और फारसी गीतों से सजाया था। मैं ने पूरे चर्च को देखा और मैं इसके निर्माण पर आश्चर्य चकित था जिसने खूबसूरती और कौशल के साथ ईसाईयत को स्थानी लोगों से जोड़ा था और अक्सर दक्षिण एशिया के चर्चों में महसूस होने वाले विदेशी एहसास को दूर किया था। ये सुन कर बड़ी तकलीफ़ हुई कि आतंकवादियों ने रविवार को इस चर्च पर हमला कर दिया। ये चर्च पश्तो संस्कृति के ईसाई धर्म में स्वागत और आने वालों मिशन के द्वारा स्थानीय संस्कृति को स्वीकार करने का प्रतिनिधित्व करता था। स्पष्ट रूप से आतंकवादी इस कड़ी को तोड़ना चाहते थे।
1883 में, इस चर्च को 'सभी संतों' के लिए समर्पित कर दिया गया था, लेकिन इस खूनी रविवार को सफेद चर्च वास्तव में इन नए शहीद संतों के खून से धोया गया।
याकूब खान बंगश, फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज में इतिहास विभाग के अध्यक्ष हैं।
स्रोत: http://tribune.com.pk/story/608128/the-silent-majority-is-dead
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