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Hindi Section ( 15 Feb 2012, NewAgeIslam.Com)

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The Role of Hadees in the Formation of Sharia शरीयत की तश्कील में हदीस का किरदार

 

मौलाना नदीमुल वाजदी

इस उम्मत में एक गिरोह हमेशा से ऐसा मौजूद रहा है जो कुरान को तो मानता है लेकिन हदीस को नहीं मानता, यह गिरोह मुनकरीने हदीस का गिरोह कहलाता है, आज से चौदह सौ साल पहले जब इस गिरोह की मौजूदगी का कोई तसव्वुर भी नहीं था सरकारे दोआलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम (स.अ.व.) ने उसकी पेशनगोई फरमा दी थी, हदीस में है, मैं तुम में से किसी को न पाऊँ कि मसनद पर तकिया लगा कर बैठे और जब मेरी कोई हदीस उसके सामने आए तो वह कहे कि मैं नहीं जानता हमने ये बात किताबुल्लाह में कहीं नहीं देखी जो हमारे लिए काफी है'' ( तिरमिज़ी: 37/5, रक़मुल हदीस: 2663)

अगर आज भी कोई हदीस का इंकार करता है तो ये कोई हैरत की बात नहीं है, यह उनका सरकारे दोआलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इरशाद मुबारक की सदाकत का आईना दार है, जहां तक दलाएल की बात है हर शख्स अपने मतलब की बात कह भी देता है और उसे दलाएल के ज़रिए मजबूत भी बना दिया है, हक़ीक़त अवाम से तो ओझल रहती है लेकिन अहले इल्म जानते हैं कि किस दलील में कितना वजन है और कौन सी बात कहाँ मौज़ू है और कहाँ गैरमुनासिब है, अब इसी लेख को लीजिए, लेखक ने अपने दावे के हक़ में जो दलाएल पेश किए हैं उनसे उनका दावा साबित भी हो रहा है या नहीं, इस पहलू पर उन्होंने ग़ौर करने की जरूरत ही नहीं समझी, कौन सी बात किस सेयाक़ व सबाक़ (संदर्भ)  में कही जा रही है यह भी बड़ी अहम है जिसे लेखक ने नज़रअंदाज किया है, अपने मतलब की कुछ आयतों को मुंतखब कर लेना और इस दावे के बरखिलाफ साफ सरीह और वाज़ेह आयात से सिर्फ नज़र कर लेना कितनी बड़ी जसारत है, शायद लेखक को इसका एहसास नहीं है।

बेहतर होगा कि हम फ़ितनए इन्कारे हदीस का जायेज़ा लें ताकि ये वाज़ेह हो सके कि कुरान और हदीस का रिश्ता चोली दामन का रिश्ता है, कुरान अगर मतन है तो हदीस इसकी शरह है, कुरान में अगर मबादी व उसूल बयान किये गये हैं तो हदीस में फरोग़ व ज़ुज़ियात पर बहस की गयी है, जो लोग ये दावा करते हैं कि वो सिर्फ कुरान से शरीयत को समझ लेंगे वो झूठ बोलते हैं। बिला शुब्हा कुरान शरीयत के एहकाम का अव्वलीन माखुज़ (स्रोत) और असल सरचश्मा (मूल स्रोत) है, लेकिन इसमें बेशुमार आयात मुजमल हैं जो तशरीह व तौज़ीह के बिना समझ में नहीं आतीं, मिसाल के तौर पर कुरआन में नमाज़ का हुक्म मुजमल तौर पर आया है, न उसमें रकात की तादाद बयान की गई है, न नमाज़ पढ़ने का तरीका बतलाया गया है और न नमाज़ के अवकात का तअय्युन किया गया है, उसी तरह ज़कात का मामला है, इसका भी हुक्म मतलक़ा आया है, न वो हद बयान की गई है जिस पर ज़कात है, न ज़कात के वजूब की शराएत व नेसाबे ज़कात की मिक्दार का ज़िक्र है, बाकी एहकामे शरिया का भी यही हाल है कि कुरआन में उनका जिक्र तो है लेकिन अजमाल के साथ, तफ्सील के लिए ज़रूरी है कि हर हुक्म की शराएत और अरकान वगैरह वाज़ेह हों, हदीस इसी वज़ाहत का नाम है, अगर सहाबा कराम रज़ि. अपनी ज़िंदगी में सरकारे दोआलम (स.अ.व.) की खिदमत में रह कर एहकाम का इल्म हासिल न करते तो उन पर अमल किस तरह होता, या तो हर शख्स अपनी मर्ज़ी और समझ के अनुसार काम करता या लाइल्मी को बहाना बनाता और तर्के अमल होकर बैठ जाता इसके बरअक्स सहाबा कराम रज़ि. ने सरकारे दोआलम (स.अ.व.) के इरशादाते आलिया के एक एक लफ़्ज़ को इस तरह महफ़ूज़ किया कि दुनिया जमा व तरतीब और तदवीन व हिफाज़त के इस मज़बूत नेज़ाम से शश्दर रह गई और क्या एक अब्स और लायानी काम के लिए सहाबा कराम रज़ि. अपनी ज़िंदगी का कोई लम्हा ज़ाया कर सकते थे।

यकीनी तौर पर वो इस बात से आगाह थे कि अल्लाह तआला के नाज़िल करदह एहकाम को महज़ उसकी किताब से समझना मुमकिन नहीं है, जब तक कि ज़बाने रिसालत से इन एहकाम की तशरीह और तौज़ीह न हो, या या जब तक सरकारे दोआलम (स.अ.व.) को इन एहकाम के मुताबिक अमल करता हुआ हुआ न देख लें। सहाबा कराम रज़ि. और उनके बाद आने वाले मोहद्देसीन व फुक़हा ने किताब व सुन्न्त की गहराइयों में जाकर फ़िक़्ही मसाएल के इस्तेबात और उनकी तदवीन में अपनी उम्र लगा दें लेकिन एक गिरोह ऐसा पैदा हुआ जिसने उन सभी मेहनतों को लग़ु और रैग ज़रूरी करार दिया और दावा किया कि कुरान में हर चीज खोल खोल कर बयान कर दी गई, उसका कोई हुकम नबी की तशरीह और तौज़ीह का मोहताज नहीं है, यह गिरोह तीन तरह के नज़रियात को रखता है, एक ये कि रसूल की हैसियत महज़ एक कासिद और पैग़म्बर की होती है, असल अहमियत पैगाम की होती है और बुनियादी जरूरत इस पैगाम को समझने की है, पैगाम लाने वाले काम पैगाम पहुंचा कर खत्म हो जाता है, उससे ज़्याद उसकी इताअत किसी पर वाजिब नहीं, न सहाबा पर और न दूसरों पर। दूसरा नज़रिया ये है कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इरशादात और उनकी कौली व फेली तालीमात सहाबा रज़ि. के लिए तो वाजिबुलअमल थे, दूसरों के लिए न वो हुज्जत हैं और न वाजिबुल इताअत हैं, तीसरा नज़रिया ये है कि अगरचा रसूल अल्लाह (स.अ.व.) के इरशादात और आमाल व अफआल सब हुज्जत हैं और उम्मत के लिए उनकी इताअत ज़रूरी भी है, मगर क्योंकि वो हम तक काबिल एतेमाद ज़रिए से नहीं पहुंचे हैं इसलिए उन पर अमल नहीं किया जा सकता।

ये लोग जिनको आम भाषा में मुनकरीने हदीस कहा जाता है अपने पास कुछ दलाएल भी रखते हैं, जैसे ये कि कुरान को अल्लाह ने आसान बनाकर उतारा है, जो किताब ज़िक्र और फहम के लिए इतनी सहेल और आसान हो उसे समझने के लिए किसी हदीस की जरूरत नहीं होनी चाहिए, अल्लाह का इरशाद है: वलक़द यस्सर नल कुरआना लिज़्ज़िक्रे (अलक़मर: 17) और हमने क़ुरआन को ज़िक्र के लिए आसान कर दिया है  यकीनन कुरान ज़िक्र व तज़कीर और वाज़ व नसीहत के लिए आसान है, मगर इसमें कहीं ये नहीं कहा गया कि शरई एहकाम के इसनेबात के लिए भी ये किता आसान बना दी गयी है। उसके बरअक्स सरकारे दोआलम  (स.अ.व.) से फरमाया गया हमने कुरान आप पर इसलिए उतारा है कि आप लोगों को वाज़ेह करके बतला दें कि क्या नाज़िल किया गया है (अलनहेल: 44) अगर कुरान इतना ही आसान है तो सरकार दोआलम (स.अ.व.) को बयान का मोकल्लफ़ ऐलान करने की ज़रूरत ही नहीं है, इसका मतलब यह हुआ कि कुरान की हैसियत एक मतन की है और सरकारे दोआलम (स.अ.व.) इस मतन के शारेह और इसमें पोशीदा इसरार व हकम के मोबैय्यन हैं, इस गिरोह का कहना ये भी है कि  कुरान में जगह जगह आयात बीनात कहा गया है, जिसका मतलब यह है कि कुरानी आयात बिल्कुल  खुली और वाज़ेह हैं, न उनमें किसी तरह की पेचीदगी है और न कुछ बातें पर्दए ख़फ़ा में रखी गई हैं, क्या इससे ये साबित नहीं होता कि कुरान फ़हमी के लिए हदीस की जरूरत नहीं है, हालांकि यह एक फरसूदा दलील है, बिलाशुब्हा अल्लाह ने एक जगह नहीं कई जगहों पर आयात को बीनात की सिफ़त से मुतसफ किया है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि कुरान को हर किस व नाकिस समझ सकता है, या समझ कर अमल कर सकता है, जिन लोगों ने भी ज़खीरए हदीस और अक़्वाले सहाबा रज़ि. से बेनियाज़ होकर कुरान फ़हमी की दुनिया में कदम रखा है उन्होंने ठोकरें ही खाई हैं, कहीं उन्हें ये महसूस हुआ कि आयात में तआरुज़ है, कहीं कुरआन के बयानातइंसानी अक्ल के दायरे में नहीं समा सके और वो तजुर्बात और मुशाहिदात के खिलाफ महसूस हुए, कुछ लोगों ने अक्ली घोड़े दौड़ाए और गुमराह हुए और कुछ ने अपने अज्ज़ का ऐतेराफ किया और कदम पीछे हटाए और ये माना कि आयात बीनात का ये मफ्हूम नहीं है जो हम समझ रहे हैं बल्कि तौहीद व रिसालत, जज़ा व सज़ा और आखिरत वगैरह से मुतल्लिक जो कुछ इस किताब में फरमाया गया है वो इतना वाज़ेह और मुदल्लल है कि उसे समझना दुश्वार नहीं है।

इसके बावजूद लोग उसे समझते नहीं या समझना नहीं चाहते, सरकारे दोआलम (स.अ.व.) की बशरियत को भी मौज़ए बहस बनाकर आपके इरशादात वा अकवाल के वाजिबुल एताअत होने से इन्कार किया गया है, उसका हासिल ये है कि जब कुरान में ये बात आप (स.अ.व.) की ज़बान मुबारक से साफ कर दी गयी: अन्नमा आना बशरुन मिस्लोकुम (अल-कहफ: 110) मैं तुम्हारी तरह का एक इंसान हूँ फिर ये मुतालेबा करना कि अपने ही जैसे एक इंसान के क़ौल या अमल की इताअत की जाये मज़हका-खेज़ लगता है, पहला तो हम अपनी ज़िंदगी में अपने ही जैसे कितने लोगों की इताअत करते हैं, क्या इससे ये साबित नहीं होता कि इंसान होना लायक़े इताअत होने के मुनाफी नहीं है, फिर ये और इस तरह की आयात जिस स्याक़ में नाज़िल की गयी है उनका हरगिज़ ये मतलब नहीं है जो समझा गया, बल्कि यह मुशरिकीन मक्का के अफसाना तराज़ियों और इल्ज़ाम तराशिोंयो के ज़िम्न में बयान की गयी एक हकीकत है, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बारे में कभी कभी वो यो सोचा करते थे और बरमला इसका इज़हार किया करते थे कि आप कोई माफ़ूक़ुल फितरत हस्ती हैं इसलिए उनका मुतालेबा होता था कि आप कुछ मोजेज़ात दिखलाएँ, इसके जवाब में आप (स.अ.व.) ब- हुक्मे खुदा ये इरशाद फरमा देते थे कि मैं तुम्हारी ही तरह एक इंसान हूँ, मोजेज़ात मेरे अख्यारात से मदरा हैं, मुझमें और तुममें फर्क इतना है कि मुझ पर वही नाज़िल की जाती है, ये और इस तरह के कुछ दलाएल की बुनियाद पर मुनकरीने हदीस ने कीमती ज़खीरे से सिर्फ नज़र कर लिया जिसे हम हदीस कहते हैं, वह हर हुक्म की दलील किताबुल्लाह में तलाश करने लगे, अगर उन्हें कोई हुक्म किताबुल्लाह में नहीं मिलता तो वो उसे नाकाबिले अमल तसव्वुर करते हैं।

मुनकरीने हदीस का ये तर्ज़े फिक्र कितना गुमराह करने वाला है इसका अंदाज़ा खुद कुरानी तशरीहात से लगाया जा सकता है, अगर एक तरफ अल्लाह तआला ने अपने लिए हुक्म, एक्तेदार और अख्तियार जैसी सिफात बयान की हैं तो दूसरी तरफ अपने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अक़वाल व आमाल को अम्मत के लिए वाजिबुल एताअत भी करार दिया है,  मुनकरीने हदीस के पास इन आयात का क्या जवाब है जिनमें इरशाद फ़रमाया गया: आप फरमा दीजिए कि अगर तुम अल्लाह से मोहब्बत करते हो तो मेरी इत्तेबा करो अल्लाह भी तुम से मोहब्बत करेगा (आल इमरान: 31) ऐ ईमान वालो! अल्लाह की इताअत करो और रसूल अल्लाह (स.अ.व.) और साहिबे अम्र (अमीर, हाकिम आदि)  की इताअत करो, अगर किसी मामले में तुम्हारे अंदर नेज़ा व इख्तेलाफ हो तो अल्लाह और उसके रसूल की तरफ रुजू करो अगर अल्लाह और क़यामत पर यक़ीन रखते हो, और यही उम्दा तरीका है (अल-निसा: 59)

क़सम है आपके रब की, कि मोमिन शुमार नहीं होंगे जब तक अपने एख्तेलाफात में आपको हकम तस्लीम न कर लें और जो फैसला आप फरमाएं उस पर तरद्दुद न करें और उसे मोकम्मल तौर पर तस्लीम कर लें (अल-निसा: 80) किसी मुसलिम मर्द और औरत के लिए जायेज़ नहीं कि अल्लाह व रसूल के फैसले के बाद हील व हुज्जत करे, जो अल्लाह और रसूल की नाफरमानी करेगा वह खुले तौर पर गुमराह होगा (अल-अहज़ाब: 36) पैग़म्बर जो कुछ तुम्हें दें इसको ले लो और जो मना करें उससे रुक जाओ (अल-हशर: 7) जिसने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की इताअत की उसने अल्लाह की इताअत की (अल-निसा: 80)अल्लाह और रसूल की इताअत करो शायद तुम पर रहम की जाये (अल-इमरान:132) आप फरमा दीजिए कि अल्लाह और रसूल की इताअत करो अगर तुम ने  रौगरदानी की तो (समझ लो कि) अल्लाह काफिरों को दोस्त नहीं रखता ' (अल-इमरान:32) वो (पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनको अच्छे कामों का हुक्म देते हैं और बुरे कामों से रोकते हैं और उनके लिए पाकीज़ा चीज़ो को हलाल करते हैं और बुरी चीज़ो को हराम क़रार देते हैं (अल-आराफ:157)  मुसलमानों का क़ौल जब उनको अल्लाह और उसके रसूल की तरफ बुलाया जाता है ताकि वो उनके दरम्यान में फैसला कर दें ये है कि वो कह दें कि हमने सुन लिया और उसको मान लिया (अल-नूर:51)

ये चंद आयात बतौर मिसाल बयान की गई हैं वरना इस नौइयत की और भी आयात हैं उनसे साबित होता है कि अल्लाह की इताअत के साथ साथ अल्लाह के रसूल की इताअत भी जरूरी है, बल्कि रसूल की इत्तेबा और इताअत अल्लाह की क़ुरबत और उसकी मोहब्बत के हुसूल का ज़रिया है, अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का मंसब ही ये है कि वो लोगों को खैर की दावत दें, बुराई से रोकें, उनके सामने हलाल व हराम के एहकाम बयान फरमायें, लोगों के नेज़ाआत एख्तेलाफात में फैसला फरमाएं, और अब जब आप फैसला सादर फरमा दें फिर किसी मुसलमान के लिए उसे कुबूल करने में तरद्दो न होना चाहिए, अगर किसी ने जरा भी एख्तेलाफ किया या  फैसला मानने में पसोपेश किया तो उसके कुफ़्र में कोई शुबीहा नहीं है क्या आप (स.अ.व.) के इरशादात, तालीमात और आमाल को नज़रअंदाज़ करके इताअत और इत्तेबा के कोई मानी हैं, अगर सब कुछ कुरान ही है तो इताअते रसूल और इत्तेबाए रसूल का हुक्म ही बेमकसद नज़र आता है, इसका मतलब यह है कि रसूल अल्लाह (स.अ.व.) के क़ौल व अमल की भी इत्तेबा भी ज़रूरी है और ये कोई मन घड़ंत अकीदा नहीं है बल्कि खुद कुरान ने उसे ज़रूरी बताया है, बल्कि क़ुरआन ने तो यहाँ तक कह दिया है कि जो कुछ फरमाते हैं वो वही से ही फरमाते हैं, कि आप ख्वाहिशे नफ़्स से कलाम नहीं करते बल्कि जो कुछ कहते हैं वो वही होती है जो उनकी तरफ़ से नाज़िल की जाती है (अल-नजम: 4)

इसीलिए उलेमा ने किताब व सुन्नत दोनों को वही इलाही करार दिया है, फर्क सिर्फ ये है कि किताबुल्लाह वही मतलु है यानी नमाज़ वगैरह में उसकी तिलावत की जाती है और हदीसे रसूल (स.अ.व.) वही गैर-मतलू है यानी उसकी तिलावत नहीं की जाती, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने किताब के साथ हिकमत का भी जिक्र फरमाया है, अक्सर उलेमा की राय ये है कि यहां हिकमत से मुराद हदीसे रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम है, फरमायाः अल्लाह तआला ने अहले ईमान पर बड़ा एहसान फरमाया है कि उनमें उन ही में के एक (शख्स को) रसूल (बनाकर) भेजा जो उन्हें अल्लाह की आयात पढ़कर सुनाते हैं, उनको पाकीज़गी का दर्स देते हैं और उन्हें किताब व हिकमत की तालीम देते हैं (अल इमरान: 164) उलेमा और मोहक्केकीन का खयाल है कि हिकमत किताब के अलावा कोई चीज़ है, इसे हम दीन के इसरार और शरीअत के एहकाम भी कह सकते हैं, इसी को उलेमा ने सुन्नत कहा है, इसलिए इमाम शाफ़ई रह. फरमाते रमतफरमतफरमतकहते हैं कि  अल्लाह ने कुरान में  हिकमत का भी ज़िक्र फरमाया है  मैंने कुरान से शगफ रखने वाले अहले इल्म से सुना है कि हिकमत से मुराद सुन्नते रसूल अल्लाह (स.अ.व.) है, पहले कुरआन का ज़िक्र किया गया फिर उसके बाद मुतसेला लफ्ज हिकमत लाया गया, इससे पहले रसूल अल्लाह (स.अ.व.) की बअसत को बतौर एहसान भी जिक्र कहा गया है, हिकमत को किताब के साथ मिला कर लाने से यही वाज़ेह होता है कि इससे मुराद सुन्नते रसूल अल्लाह (स.अ.व.) है डॉ. मुस्तफा अलसबाई ने इमाम शाफ़ई रह. की राय से इत्तेफाक़ करते हुए लिखा है कि इमाम शाफ़ई रह. यकीनी तौर पर हिकमत को सुन्नत मानते हैं, क्योंकि यहां लफ्ज़ अलहिक्मा का अतफ अलकिताब पर किया गया है जिसका मफ्हूम ये है कि दोनों चीजों किताब और हिकमत में मगायरत हो यानि दोनों अलग अलग हों, और ये मुनासिब नहीं कि किताब के साथ सुन्नते रसूल (स.अ.व.) के अलावा किसी चीज का ज़िक्र किया जाए खासकर उस वक्त जब कि अल्लाह बासते नबवी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को बन्दों पर बतौर उस वक्त ज़िक्र फरमा रहे हैं, इससे साबित हुआ कि जिस तरह कुरान का इत्तेबा ज़रूरी है, उसी तरह सुन्नत की इत्तेबा भी ज़रूरी है। (अल-सुन्नतः व मकानताहा अल-तशरीह अल- इस्लामी:69)

ज़खीरए हदीस की अनदेखी कर शरीयत पर अमल करना अक्लन भी नाकाबिले फहेम है क्योंकि अल्लाह ने अपनी किताब में जितने भी ऐहकाम बयान फरमाये हैं वो सब मुजमल बयान फरमाये हैं, उनकी तफ्सील हदीस में मिलती है, अगर इन तफ्सीलात को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए तो कुरान के ऐहकामात पर किस तरह अमल होगा, नमाज़ दीन का अहम सुतून और बुनियादी रुक्न है, कुरान में जगह जगह नमाज़ पढ़ने का हुक्म दिया गया है, लेकिन कहीं भी इसका तरीका बयान नहीं किया गया, न उसकी शराएते सेहत ज़िक्र की गई, न ये बयान किया गया कि दिन रात में कितनी नमाज़ें हैं और कौन सी नमाज़ कब अदा होगी और किस नमाज़ में कितनी रिकतें हैं, यह सभी बातें हदीस हैं, उसी तरह कुरान में सिर्फ फरमा दिया गया कि ज़कात अदा करो लेकिन ये ज़कात कब फर्ज़ होगी, उसका नेसाब क्या है, मिकदारे ज़कात क्या है, होलान होल अमवाल जाहिर व बातिना की तफ्सीलात कुरान में कहीं भी नहीं हैं, जबकि इन तफ्सीलात का इल्म हासिल किये बगैर फरीज़ए ज़कात की अदायगी मुमकिन नहीं, इसी तरह रोज़ो के बारे में फरमाया गया है कि जिस शख्स को रमज़ान का महीना मिले वो रोज़ा रखे रोज़ा क्या है, किन चीज़ों से रोज़ा टूटता है, किन चीजों से रोज़ा नहीं टूटता है ये चीजें कुरान में नहीं हैं बल्कि हदीस में हैं, हज और उमरा अल्लाह के लिए पूरा करो  लेकिन इन दोनों की तक्मील की क्या सूरत होगी, कुरान में कहीं भी इसका जिक्र नहीं है, जबकि हदीस में इन इबादतों की मुकम्मल तफ्सील मिलती है।

इबादात पर ही क्या मौकूफ है, निकाह, तलाक , रज़ाअत, हज़ानत, तेजारत, अजारह रहेन, वसीयत वगैरह के एहकाम भी कुरान में मुख्तसरन बयान किये गये हैं, उनसे शरीयत का रुख तो मोतइय्यन होता है और मंशए खुदावंदी का भी इल्म होता है, लेकिन इनमें से किसी का हुक्म भी इस नौईयत का नहीं कि इस पर अमल किया जा सके, इल्ला ये कि हदीसे रसूल (स.अ.व.) से मदद ली जाए। इसीलिए उम्मत का इस पर इजमा है कि कुरआन के बाद इस्लाम का दूसरा अहम माखुज़ हदीस है, जिस तरह कुरान बाऐतेबार सबूत के क़तई और यक़ीनी है उसी तरह हदीसों का वो बड़ा हिस्सा भी क़तई और यक़ीनी है जो तवातिर से साबित है, जिस तरह कुरान से शरीयत के एहकाम भी साबित होते हैं और मंसूख भी इसी तरह हदीसों से भी एहकाम साबित होते हैं और मंसूख भी,  जो लोग हर हुक्मे शरई के लिए कुरान से दलील तलब करते हैं वो शरीयत के दूसरे अहम तरीन माखुज़ की अहमियत से वाकिफ नहीं हैं।

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