तस्लीमा नसरीन
26 दिसंबर 2014
जबर्दस्ती, प्रलोभन और खून-खराबे के जरिये ही इतिहास में कुछ धर्मों ने दुनिया भर में अपनी जड़ें फैलाई हैं। लोगों को किसी भी तरीके से अपने धर्म में ले आने की मानव प्रवृत्ति आज की नहीं है, यह बहुत पुरानी है। पिछले कुछ समय से भारत में सामूहिक धर्मांतरण का जोर है। मुस्लिम संप्रदाय के लोगों को हिंदू बनाने की बात हो रही है। ईसाइयों की भी 'घर वापसी' हो रही है! कई जगह इसकी शुरुआत भी हुई। क्रिसमस के दिन उत्तर प्रदेश में धर्मांतरण का उतना हल्ला बेशक नहीं हुआ, लेकिन केरल में कुछ ईसाई जरूर हिंदू बने हैं। लेकिन ईसाइयों से भी अधिक मुस्लिमों को हिंदू धर्म में लाने पर जोर है। मुसलमान क्या हिंदू धर्म के प्रति आकृष्ट होकर हिंदू बन रहे हैं? यदि हिंदू धर्म के प्रति वे आकृष्ट हैं, तब तो कोई बात नहीं। किंतु ऐसा अगर दबाव में हो रहा है, तो इसका समर्थन नहीं किया जा सकता।
ऐसा सुनने में आ रहा है कि धर्मांतरण के लिए मुसलमानों पर दबाव डाला जा रहा है। जीवन धर्म से बड़ा है। इसलिए अपनी जान बचाने के लिए कोई भी दूसरे धर्म में चला जाना ज्यादा सुरक्षित मानेगा। धर्मांतरण के लिए, सुना है, पैसे भी दिए जा रहे हैं। यानी इसके पीछे प्रलोभन भी है। यह हू-ब-हू सूफी मुसलमानों और ईसाई मिशनरियों की पद्धति जैसी है। इसे 'घर वापसी' नाम दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि पहले तुम विवश होकर हिंदू से मुस्लिम बने थे, अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि अपने धर्म में यानी अपने घर में लौटो। घर वापसी के इसी अभियान के दौरान मैंने एक हिंदुत्ववादी नेता से पूछा कि यह घर वापसी कितने वर्षों बाद हो रही है? वह इस पर चुप रहे। मैंने ही उन्हें जवाब दिया, आठ सौ वर्षों के बाद।
यह सच है कि भारत के अधिकांश मुसलमान धर्मांतरित हैं। छोटी और नीची जाति के दरिद्र हिंदू, मानसिक रूप से तैयार किए जाने के कारण हो, रुपये-पैसे के लालच में हो, सूफियों के आचरण से मुग्ध होने के कारण हो, ब्राह्मणों के घृणा के कारण हो या मुसलमानों के हाथों पिटकर हो, मुस्लिम बने थे। सैकड़ों वर्षों से भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदुओं का धर्मांतरण हो रहा है। आज हिंदू कट्टरवादी जब इसका बदला लेना चाहते हैं, तो दिल्ली की सत्ता कांप रही है। हिंदुओं को मुस्लिम या ईसाई बनाया जा सकता है, लेकिन उन्हें हिंदू नहीं बनाया जा सकता। क्यों? इस तरह की विषमता स्वीकार्य नहीं है। हालांकि अब हिंदू धूमधाम के साथ मुस्लिमों को धर्मांतरित करने के काम में लगे हैं। लेकिन क्या पच्चीस करोड़ मुसलमानों का धर्मांतरण मुमकिन है? पच्चीस लोगों की घर वापसी से ही तो विवाद पैदा हो गया है। कुछ समय पहले आगरा में जो हुआ, वह इसी का नमूना है।
धर्म परिवर्तन करने का अधिकार सबको होना चाहिए। बाल की स्टाइल बदली जा सकती है, पोशाक और फैशन में तब्दीली की जा सकती है, राजनीतिक दल, नीति-आदर्श, पति और पत्नी बदले जा सकते हैं, तो धर्म क्यों नहीं बदला जा सकता? इसमें आखिर बुराई क्या है? धर्म ऐसा कौन-सा निश्चल पत्थर है कि उसे हटाया नहीं जा सकता? मनुष्य जब चाहे, तब उसे अपना धर्म बदलने की इजाजत मिलनी चाहिए। असल में, धर्म परिवर्तन व्यापक अर्थ में मानवाधिकार का ही हिस्सा है। इसलिए मनुष्य धर्म बदलना चाहता है, या धर्म के बंधन से मुक्त होकर नास्तिक बन जाना चाहता है, यह उसका अधिकार है, और होना चाहिए। मैं तो बचपन से ही धार्मिक विश्वासों से मुक्त हूं। किसी भी शिशु को वस्तुतः उसकी धार्मिक पहचान से देखने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। शिशु किसी धार्मिक विश्वास के साथ पैदा नहीं होता। उस पर उसके मां-पिता का धर्म लाद दिया जाता है। सभी बच्चे विवश होकर अपने मां-पिता के धर्म को ही अपना धर्म मान लेते हैं। अच्छा तो यह होता कि बच्चे के बड़े होने पर, उसके समझदार होने पर उसे पृथ्वी के समस्त धर्मों के बारे में बताया जाता, और फिर वह अपनी इच्छा और विवेक से अपने धर्म का चयन करता अथवा अनिच्छा होने पर नहीं करता। जब राजनीति में दीक्षित होने के लिए बालिग होना जरूरी है, तो धर्म से जुड़ने के लिए भी ऐसा कोई प्रावधान होना चाहिए।
यह सुनने में भले ही अजीब लग रहा है, लेकिन धर्मांतरण के मामले में हिंदू समाज के लोग आज मुस्लिमों का ही अनुकरण कर रहे हैं। मुस्लिम समाज के कट्टरवादी तत्व हिंदुओं और ईसाइयों को अपने समाज में लाने की कोशिश करते रहे हैं, तो अब हिंदू भी ऐसा कर रहे हैं। अपने धर्म में लाने के लिए मुस्लिम हिंसा और दबाव की रणनीति बनाते रहे हैं, हिंदू भी ऐसा कर रहे हैं या करने की बात कह रहे हैं। फिर उनमें और आपमें फर्क क्या रहा? पाकिस्तान से बांग्लादेश तक मुस्लिम कट्टरवादियों की निंदा की जाती है। दोनों जगहों पर हिंदुओं और ईसाइयों को समाज में डर-डरकर रहना पड़ता है। इसी कारण पाकिस्तान में रह रहे हिंदू भागकर भारत आ जाते हैं और वापस अपने वतन नहीं लौटना चाहते। पाकिस्तान और बांग्लादेश में कट्टरवादियों के हावी होने के कारण ही ये दोनों मुल्क विकास के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ सके। भारत तो इन दोनों देशों की तुलना में बहुत-बहुत आगे है। ऐसे में अगर भारत भी उसी रास्ते पर चलकर आगे बढ़ेगा, तो वह दुनिया को क्या संदेश देगा?
ऐसा सुनने में आया है कि भारत में धर्मांतरण विरोधी एक कानून बनाने की बात हो रही है। यह कुछ ज्यादा ही है। जीवन में किसी भी मत या वैचारिकता को बदलने का अधिकार मनुष्य को है, फिर लाजिमी तो यही है कि धर्म बदलने का अधिकार भी रहे। जो संविधान गणतंत्र और मानवाधिकार की बात करता है, वह धर्मांतरण विरोधी कानून की बात नहीं कहेगा। मैं यही समझ नहीं पाती कि लोगों में धर्म के विलुप्त हो जाने का इतना भय क्यों है। धर्म को क्या ताकत से रोका जा सकता है? अगर ऐसा संभव होता, तो कई प्राचीन धर्म आज इतिहास बनकर नहीं रह जाते। मानवता को धर्म नहीं, बल्कि मनुष्य के प्रति मनुष्य की संवेदना और प्रेम ही बचाएगा। क्या इसके लिए हम तैयार हैं?
Source: http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/freedom-to-change-religion-hindi/
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