सैयद एन असद, न्यू एज इस्लाम
अधिकतर मुस्लिम बिरादरियों में सदैव इसी प्रश्न को केन्द्रीय हैसियत प्राप्त होती है कि इस्लाम की रिवायत व दिनचर्या के लिए एक तार्किक और अमली दृष्टिकोण विकल्प करने के आवश्यकता है या यह संभव है भी कि नहींl इस प्रश्न पर हमारे सामने विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रिया आती हैंl जैसे परम्परागत शरई नियम पर अमल करने वाले अधिकतर मुसलमान इस बात के कायल हैं कि कभी भी इसमें सुधार नहीं की जा सकती क्योंकि वह इस्लाम को एक कामिल और मुकम्मल जीवन प्रणाली मानते हैं जिसमें कोई परिवर्तन संभव नहींl इसके अलावा ऐसे लोग भी मौजूद हैं जो हो सकता है कि शरीअत पर कठोरता के साथ अमल ना करते हों लेकिन इसके बावजूद सुधारों के खिलाफ हैं क्योंकि उनका मानना है कि सुधार का कोई भी प्रयास पश्चिम के मांगों के आगे सर झुकाने के बराबर हैl उनके लिए यह मुस्लिम तहजीब के लिए एक सामाजिक हार हैl
इसके अलावा ऐसे भी कुछ लोग हैं जो शब्द सुधार को ही एक समस्या कल्पना करते हैं क्योंकि उनके लिए इसका अर्थ ईसाइयत और यहूदियत की सुधारवादी आंदोलनों की तकलीद करना हैl इस प्रकार के मुसलामानों का ख्याल यह है कि मुस्लिम सुधारों का आन्दोलन मानवीय हस्तक्षेप से पाक इस्लाम की एक अकेली प्रकृतिक और शुद्ध धार्मिक हैसियत को समाप्त कर देगीl
तथापि, एतेहासिक घटनाओं के प्रकाश में इस प्रश्न का उत्तर पहले ही दिया जा चुका है कि मुस्लिम समाज की सुधार की जा सकती हैl सूचना और संसाधन तक पहुँच रखने वाले और विकसित देशों में या मुस्लिम देशों के बड़े शहरी केन्द्रों में रहने वाले मुसलामानों की एक बड़ी संख्या पहले ही अपने धार्मिक दिनचर्या को परिवर्तित कर चुकी हैl इस स्थिति में अधिकतर मुसलमान अपराध बोध के बिना एक दिन में पांच बार नमाज़ अदा नहीं करतेl अधिकतर मुस्लिम महिलाएं “हिजाब” का एहतिमाम नहीं करती हैं, और अगर उन्हें विकल्प दिया जाए तो वह रुबाअ (ऋण पर ब्याज) से भी बाज़ नहीं आतेl वहाँ मुस्लिम महिलाओं के लिए घर से बाहर काम पर निकलना एक आम बात हैl
मुस्लिम सुधार केवल अपरिहार्य ही नहीं हैं बल्की यह प्रकृतिक तौर पर रुनुमा होना प्रारम्भ भी हो चुकी हैl यह स्वीकार करना और यह मानना अब हमारे उपर है कि अधिकतर परिवर्तन समाज की अच्छाई के लिए हैंl मुस्लिम समाज में यह जो सुधार हुए हैं वह आंशिक तौर पर पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति के प्रभाव के कारण हैंl समकालीन शिक्षा और आजीविका में बेहतरी की मुसलामानों की जरुरत का दुसरे समाज के मानकों को अपनाने में अधिक दखल हैl इसमें सामाजिक सुधार (जैसे बहुविवाह या बच्चों की शादी को हतोत्साहित करना), शैक्षिक सुधार (जैसे आधुनिक लेखों का अध्ययन) या कानूनी सुधार (जैसे चोरी या बलात्कार की सज़ा में शरीअत के नियमों पर प्रतिबन्ध) भी शामिल हैl तथापि, मुसलामानों के बीच कुछ अविश्वसनीयता के साथ उन सुधारों के मिश्रित परिणाम बरामद हुए हैं क्योंकि यह परिवर्तन शरीअत पर आधारित नहीं हैंl
सऊदी अरब में वहाबी, दक्षिण एशिया में जामत ए इस्लामी और मिस्र में इख्वानुल मुस्लेमीन जैसी आधुनिक कट्टरपंथी आंदोलन शरई सिद्धांतों से विचलन के कारण बड़े पैमाने पर पैदा होने वाले अविश्वसनीयता के कारण से वजूद में आई हैंl
जो मुसलमान खुद को “प्रगतिशील” समझते हैं वह पहले से ही पैदा हो चुके परिवर्तन को अपनाते हैं लेकिन उनका यह भी मानना है कि इससे आगे बढ़ना ख़तरनाक हैl वह केवल कुढ़ को उन रुढ़िवादी मुसलामानों से अलग करने पर ज़ोर देते हैं जो पैदा होने वाले परिवर्तन की निंदा करते हैंl “प्रगतिशील” मुसलमान शरीअत के कानून को नए अर्थ दे कर उन परिवर्तनों का कारन पेश करते हैं जिन्हें वह कुबूल कर चुके हैंl जैसे वह कहेंगे कि मुसलमान महिलाऐं घर से बाहर काम कर सकती हैं क्योंकि उन्हें इस्लाम में बराबर अधिकार प्राप्त हैंl
दुनिया भर में इस्लाम के प्रसारण और प्रकाशन के लिए शरीअत को मानवाधिकार के वैश्विक घोषणा के अनुसार होना आवश्यक हैl हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि जो शिक्षा जो व्यक्तिगत विकास, संसाधनों की प्राप्ति, स्वतन्त्रता और विभिन्न समूहों के साथ सद्भाव और खुशियों की परम प्राप्ति में सहायक हैं केवल वही इस्लाम के वास्तविक उद्देश्य और उसकी रूह की नुमाइंदगी करती हैंl इसके विपरीत जो इस्लामी शिक्षाएं मानवीय क्षमताओं को कम करने, अविश्वसनीयता, नाखुशगवारी और बारआवरी की क्षमताओं में कमी पैदा करने वाली हैं वह झूट हैं, और इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कितना प्रसिद्ध आलिम उसका प्रकाशन कर रहा हैl
गर खुद हामरे धार्मिक रहनुमाओं की जिंदगी बंजर, असंतुष्ट और बे वक़अत है तो हमें उनकी सदाकत अपर सवाल करने की आवश्यकता हैl इस्लाम के एक इमानदार रहनुमा को एक सलाहकार होना चाहिए, जिसे सार्थक अंदाज़ में अपनी ज़िन्दगी समस्याएं हल करने का हुनर आता हो और जो अपने अनुयायियों के साथ अपने अनुभव का साझा कर सकता होl
इसके अलावा, इस्लामी इतिहास की एक निष्पक्ष अंदाज़ में नए सिरे से पैमाइश की जानी चाहिए, ताकि प्राचीन हस्तियों की झूटी प्रशंसा से लोग गुमराह ना होंl मूल सिद्धांत कि जिससे मुसलामानों को मदद मिलेगी यह है कि परिवर्तन जीवन का एक अपरिहार्य भाग हैl इस्लाम एक वैश्विक धर्म बन चूका है क्योंकि जिस तरह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने सिद्धांतों की शिक्षा दी उसने आपके समकालीन लोगों को प्रबुद्ध और सशक्त बना दिया थाl इसलिए कि उन्होंने दूसरों के साथ अपने मामलों में न्याय का रास्ता अपनाया, शिक्षा को कद्र की निगाहों से देखा, अजनबियों का स्वागत किया, तो अंधविश्वास को अस्वीकार किया, रंग व जाति की रुकावटों को दुसर किया और महिलाओं और गुलामों जैसे पीड़ित वर्गों को अधिक अधिकार प्रदान किए, उनकी इबादत सीधे और करिश्माई थी, और उनके कर्मों का परिणाम यह हुआ कि दुनिया भर में उनका प्रभाव फ़ैल गयाl सुधार का रथ यह है कि इस्लाम को सशक्त बनाने वाली सार्वभौमिक शिक्षाओं को सफलता के साथ हर जमाने के अनुसार पेश किया जा सकता हैl
सक्रीय सुधारों से कई लाभ सामने आएँगेl मुसलमान कुरआन और हदीस की शिक्षाओं की फिर से व्याख्या इस अंदाज़ में कर सकते हैं कि जिस से इस दौर में वह सशक्त और प्रबुद्ध बनेगे और दूसरों को भी बनाएंगेl अगर इस प्रकार के सुधार को हकीकत का रूप दे दिया जाए तो मुसलमान अपने बुनियादी मूल्यों से अलग हुए बिना खुद को विकास के रास्ते पर लाने के काबिल हो जाएंगेl
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