सैयद मुजाहिद अली
30 मई, 2017
मैनचेस्टर में आतंकवादी हमले के बाद मुसलमानों की ओर से इस चिंता का व्यक्त करना सामने आया है कि एक पश्चिमी देश में होने वाले हमले पर दुख और गुस्सा और खेद जिस तरह व्यक्त किया जाता है, वह मुसलमान देशों में आतंकवाद या आतंकवाद उन्मूलन के नाम पर होने वाली खून खराबे पर देखने में क्यों नहीं आता। पिछले सप्ताह के दौरान एक अमेरिकी गायक के कॉन्सर्ट की समाप्ति के बाद एक 23वर्षीय लीबिया युवा सलमान उबैद ने आत्मघाती हमले में 22 लोगों को मार डाला था। सौ से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे। मृतकों में अधिक संख्या बच्चों या युवाओं की थी जो कॉन्सर्ट देखने के लिये मैनचेस्टर इरीना में एकत्र हुए थे। यह हमला 2006ब्रिटेन में होने वाले हमलों के बाद गर्मागर्म था और अचानक आतंकवादी घटना से यूरोप के अलावा अमेरिका ने भी गंभीर खेद व्यक्त किया था। अब ब्रिटिश एजेंसियां यह जानने की कोशिश कर रही हैं कि वे इस हमले को रोकने और हमलावर को घातक विस्फोट करने से पहले गिरफ्तार करने में क्यों सफल नहीं हो सके। यूं तो एक इंसान की जान के नुकसान पर भी दिल खून के आंसू रोता है। इस पर रंग और नस्ल या अकीदा और देश को विशेष नहीं किया जा सकता। इसलिए यह आपत्ति बजाय खुद निराधार,दुखद और अस्वीकार करने के योग्य है कि एक गैर इस्लामी देश में विस्फोट और हत्याओं पर खेद व्यक्त क्यों किया जाता है। इसके साथ ही यह कहना भी सही है कि कई मुस्लिम देश इस समय आतंकवादियों के निशाने पर हैं। इनमें पाकिस्तान भी शामिल है। जहां पिछले तीन साल के दौरान पाकिस्तानी सेना के लगातार कार्रवाई के बावजूद विरामी विनाशकारी हमले होते रहते हैं। इसके अलावा मध्य पूर्व और खासकर शाम में बर्बादी और आतंकवाद के कारण देश की आधे से अधिक आबादी घरों को छोड़ने पर मजबूर हो चुकी है और यह देश बल्कि पूरा क्षेत्र गृहयुद्ध की चपेट में है।
यह बात भी रिकॉर्ड का हिस्सा है कि दुनिया भर में जहां भी आतंकवाद का कोई घटना घटित होता है तो सभी देश बिना भेद भाव इसकी निंदा करते हैं। यह सवाल अपनी जगह पर महत्वपूर्ण है कि मुसलमान देशों में होने वाले हमलों में इस तरह प्रतिक्रिया सामने क्यों नहीं आता जो ब्रिटेन या यूरोप के किसी देश या राज्य में उत्पन्न होने वाले किसी दुखद घटना के बाद देखने में आता है। सिद्धांत रूप में मरने वालों पर अफसोस जाहिर करने की आलोचना की बजाय, यह सवाल इन मुस्लिम देशों के नेताओं और सरकारों से पूछने की जरूरत है कि वे अपने देश की जनता को आतंकवाद से बचाने में क्यों असफल हैं। पश्चिमी देशों में आतंकवाद पर सख्त प्रतिक्रिया की सबसे बड़ी वजह यह है कि इन देशों ने जनता की सुरक्षा के लिये मजबूत और विश्वसनीय प्रणाली का निर्माण किया है। जब भी कुछ तत्व प्रणाली को तोड़ कर लोगों को मारने में सफल होते हैं तो उस पर रंज रोष व्यक्त भी होता है। सरकार पूरी जिम्मेदारी से अपनी कोताही समीक्षा की कोशिश करती है और भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिये अधिक प्रभावी और सक्रिय प्रणाली स्थापित करने की कोशिश की जाती है। इसके विपरीत पाकिस्तान हो या मध्य पूर्व का कोई देश .... अपनी जनता की सुरक्षा के बारे में ऐसी जिम्मेदारी का प्रदर्शन देखने में नहीं आता। प्रभावित देशों में होने वाली तबाही के साथ कभी-कभी स्थानीय सरकारों और सत्ताधारी वर्ग के राजनीतिक हितों से जुड़े होते हैं। वे एक या दूसरे समूह के तत्वावधान करते हुए इस भयानक स्थिति को पैदा करने का कारण बनते हैं,जिससे व्यक्ति मारे गए और उनके जीवन असुरक्षित हो जाते है। यही कारण है कि इन देशों में आतंकवाद की घटनाएं भी अधिक संख्या में आए हैं और उन पर शासकों द्वारा किसी शर्मिंदगी या भावनात्मक जिम्मेदारी को व्यक्त व्यक्त करने की बजाय कोई न कोई बहाना तलाशने की कोशिश की जाती है। इस बुनियादी अंतर ही के कारण यूरोप और अमेरिका और अन्य जिम्मेदार देशों में लोगों की जीवन सुरक्षित हैं। जब भी उन्हें खतरा होता है, उस पर विरोध का अंतहीन सिलसिला भी शुरू हो जाता है।
यूरोप में होने वाले हमलों पर कुछ हद तक '' संतुष्टि '' व्यक्त करने वाले तत्व यह दलील भी सामने लाते हैं कि पश्चिम स्वयं बीजी हुई फसल काट रहा है। उसने खुद ही विभिन्न मुस्लिम देशों में युद्ध शुरू करके इस घृणा को काश्त किया था जो अब पश्चिम को भी अपनी चपेट में ले रही है। यह आपत्ति करने वाले इस प्रक्रिया में अपने देश के शासक, प्रभावशाली वर्गों, कुलीन और धार्मिक और राजनीतिक नेताओं के चरित्र को पूरी तरह भुला देते हैं। इसके अलावा इस बात को बहरहाल नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि मुसलमानों के विभिन्न समूहों ने किसी न किसी बहाने से दुनिया भर में विनाश और मनुष्यों को मारना शुरू किया है। मुसलमान देशों के नागरिक इसलिए अधिकांश उनके निशाने पर आते हैं क्योंकि वे '' आसान शिकार ''की हैसियत रखते हैं। आतंकवादियों को उनके देशों में आसानी से फैसिलिटेटर और अभिभावक उपलब्ध होते हैं। इसके अलावा एक त्रासदी के बाद कभी इसमें शामिल नेटवर्क खोजने और नष्ट करने की कोशिश नहीं की जाती। यह सारी कार्रवाई संबंधित देशों की सरकारों की राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक जरूरतों और आवश्यकताओं की मोहताज रहती है। आश्चर्य है कि जो तत्वों कसीर तादाद में मुसलमानों की हत्या और विनाश का कारण बन रहे हैं,जब वे किसी पश्चिमी देश में हमला करके कुछ गैर मुसलमानों को निशाना बनाने में सफल होते हैं तो उस पर संतुष्टि या कुछ हद तक खुशी व्यक्त करने के लिए क्या औचित्य है। सिद्धांत रूप में तो इन तत्वों के खिलाफ सार्वभौमिक निंदा का हिस्सा बनकर, ऐसे सभी तत्वों को नष्ट करने की कोशिश करनी चाहिए। खासकर इसलिए भी कि उनके गुमराह तत्वों ने इस्लाम के नाम का उपयोग करके आतंकवाद का सिलसिला शुरू किया है और उनकी इस युद्ध एडवेंचर्स में ज्यादातर मुसलमान ही निशाना बन रहे हैं। लेकिन सद अफ़सोस पश्चिम के खिलाफ घृणा व्यक्त करने के लिये कई लोग इस बुनियादी तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं।
यह बात भी बुनियादी महत्व की हामिल है कि पश्चिमी देशों में आतंकवाद में लिप्त तत्वों इस्लाम उत्कृष्ठता और मुसलमानों के अपमान का बदला लेने का दावा करते हुए कार्रवाई करते हैं। इसके विपरीत पश्चिमी देशों से कोई अतिवादी तत्व मुसलमान देशों में जाकर आतंकवाद के माध्यम से लोगों को मारने के काम में शामिल नहीं होते। इस स्थिति में सस्ती लोकप्रियता पाने के लिये कुछ राजनेता इस्लाम और मुसलमानों को इन स्थितियों का जिम्मेदार ज़रूर बताते हैं। लेकिन इस स्टैंड को अस्वीकार करने के लिये शक्तिशाली आवाज भी सामने आती रहती हैं। इसी तरह चाहे इसे स्वीकार किया जाए या अस्वीकार किया जाए लेकिन तथ्य अपनी जगह मौजूद रहेगी कि पश्चिमी देशों में आतंकवाद से मुकाबला करते हुए भी बुनियादी मानव अधिकारों को सुरक्षित रखने की कोशिश की जाती है। अगर इन देशों में नियंत्रण और दमन का वैसा ही प्रणाली का निर्माण कर दिया जाए जो कई मुस्लिम देशों में देखने में आता है तो उन देशों में मुसलमानों के समय जीवन तंग हो सकता है। मैनचेस्टर त्रासदी के बाद भी अधिकारियों ने बेहद जिम्मेदारी दिखाते हुए इसे इस्लामी या मुस्लिम हमला करार देने की कोशिश नहीं की। इसी तरह इस शहर की मुस्लिम आबादी ने भी इस हमले की निंदा और उस पर खेद व्यक्त करने में बढ़चढ़ कर स्थानीय लोगों के साथ भाग लिया। वास्तव में यही बेनुल मज़हबी और सांस्कृतिक सद्भाव चरमपंथ और आतंकवाद को समाप्त कर सकता है। मुसलमान आतंकवादी समूहों की तरह यूरोप में फलने फूलने वाले राष्ट्रवादी जातिवाद तत्वों भी अल्पसंख्यकों और बहुमत के बीच सम्मान और प्रेम के इस रिश्ते को निशाना बनाते हैं। यूरोप में होने वाले हमलों पर गंभीर प्रतिक्रिया की एक वजह इस महाद्वीप में बसे मुसलमानों के अधिकारों और समृद्धि और सुरक्षा से भी मशरूत है।
इस संबंध में एक बड़ी गलतफहमी यूरोप की राजनीतिक और सैन्य रणनीति और आतंकवादी घटनाओं को मिला कर देखने से पैदा होती है। यूरोप और अमेरिका के कई नीतियों से मतभेद हो सकता है लेकिन शाम हो या इराक, अफगानिस्तान या पाकिस्तान ....... ये देश इन नीतियों को स्थानीय सरकारों और राजनीतिक नेताओं के सहयोग से ही पूरा करते हैं। इसलिए 9/11 के बाद अफगानिस्तान पर हमला हो या शाम और इराक में फलने फूलने वाले आतंकवादी संगठन आईएसआईएस के खिलाफ कार्रवाई, उन्हें आतंकवादियों की तबाहकरी से मिलाना सही तरीका नहीं है। कौन नहीं जानता कि पाकिस्तानी क्षेत्रों में ड्रोन हमले पाकिस्तानी सरकारों की मिलीभगत से किए जाते थे या आईएसआईएस पर हमलों में क्षेत्र के सारे देश शामिल हैं। इन हमलों में अगर नागरिक मारे जाते हैं तो उस पर खेद व्यक्त भी सामने आता है और इन घटनाओं की जांच भी की जाती हैं। इसकी तुलना में आतंकवादी केवल निर्दोष, निहत्थे नागरिकों को मारने के लिये हमले करते हैं और ऐसी किसी भी सफलता पर खुशी के शादयाने बजाते हैं। यूं तो कोई भी युद्ध किसी भी मामले में स्वीकार्य नहीं है। इसमें बर्बादी और इंसानों की मौत के सिवा कुछ हासिल नहीं होता। लेकिन इसके साथ ही यह स्वीकार करने की जरूरत है कि कोई सेना जब संगठित तरीके से हमले करती है तो वह किसी न किसी स्तर पर राष्ट्रीय या वैश्विक नियमों के सामने जवाबदेह होता है। जबकि आतंकवादी ऐसे सभी कानूनों को खारिज करते हुए केवल विनाश और मौत के प्रसार के लिये हमले करते हैं।
हाल ही में सऊदी अरब में अरब इस्लामी शिखर सम्मेलन में मध्य पूर्व में ईरान के खिलाफ टकराव प्रतिबद्धता व्यक्त किया गया है। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प इस अवसर पर मौजूद थे और उन्होंने अरबों इस युद्ध एडवेंचर्स शौक और ईरान दुश्मनी योजना राजनीतिक लाभ उठाने की पूरी कोशिश की। ऐसे में ट्रम्प और अमेरिका को अक्षर आलोचना करने से पहले सऊदी शासकों की आकेबत न अन्देशाना नीतियों को अस्वीकार करना होगा। इसी तरह अगर मध्य पूर्व में गठबंधन सेना और अफगानिस्तान में ईसाफ के संचालन में होने वाले अवैध नुकसान की गणना करना है तो सऊदी अरब ने यमन में जो तबाही फैलाई है और बिना उद्देश्य जिस तरह इंसानों का खून बहाया जा रहा है और जीवन अपच की गई है ...... इस पर भी सवाल उठाने पड़ेंगे। इतिहास में अधिकांश संयुक्त ने अत्याचार किए होंगे। अभी भी राजनीतिक और आर्थिक हितों के लिये कई देश क्रूर नीतियों को अपनाते हैं लेकिन उनका हवाला देकर मैनचेस्टर या किसी भी शहर में मासूम इंसानों को मारने के किसी घटना का समर्थन नहीं किया जा सकता।
इस समय दुनिया भर के मुसलमान और विशेष रूप से यूरोपीय देशों में बसे मुसलमान बहुत कठिन स्थिति का सामना कर रहे हैं। इस मुश्किल से निकलने के लिये बौद्धिक सद्भाव और अत्याचार के खिलाफ मिलकर संघर्ष करने का संकल्प करना बेहद जरूरी है। ऐसी स्थिति में किसी आतंकवादी की क्रूर कार्रवाई का समर्थन नहीं किया जा सकता।
Source: http://www.humsub.com.pk/65330/syed-mujahid-ali-536/
URL for Urdu article: https://www.newageislam.com/urdu-section/terrorists-network-simple-muslims-/d/111376
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