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Hindi Section ( 31 Aug 2014, NewAgeIslam.Com)

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Islam and Humanity- Part- 1 इस्लाम और मानव-समाज – भाग - 1

 

मधुर सन्देश संगम प्रकाशन न0 7

इस्लाम

और

मानव-समाज

सैयद मुहम्मद इक़बाल

मधुर सन्देश संगम

अबुल फज़्ल इन्कलेव जामियानगर, नई दिल्ली-25

पहली बारः    1993 2000

तीसरी बारः   1995 4000

दयावान, कृपाशील अल्लाह के नाम से

इस्लाम और मानव-समाज

इन्सान की ज़रुरत

धरती पर बसने वाले जानदारो में इंसान ही सब से श्रेष्ट है। उस की ताक़त और बड़ाई बुनियादी तौर से उसके विवेक और बुद्धि में निहित है। उसे ज्ञान और बुद्धि जैसी असीम चीज़ देकर प्रकृति ने इसकी श्रेष्टा का एलान खुद ही कर दिया है। अपनी तमाम श्रेष्टाताओं के बाद भी मनुष्य अपनी ज़रुरतों में मजबूर-सा रहता है और जब तक उसकी ज़रुरतें पूरी न हो जायें, वह चिन्तित और दुखी रहता है। ये ज़रुरतें जन्म से मौत तक फैली हुई हैं और कुछ तो मरने के बाद भी रहता हैं।

ये ज़रुरतें अनगीनत हैं। कुछ तो वे हैं जिनके बिना इन्सान ज़िन्दा ही नहीं रह सकता। मुख्यः ये तीन हैं- हवा, पानी और खाना। इन के बाद कपड़े और घर हैं। फिर शुरु होता है उन ज़रुरतों का सिलसिला, जो  मानव समाज के विकास के लिए ज़रुरी हैं या फिर किसी व्यक्ति विशेष की ज़रुरतें।

इन्सान के बुनियादी ज़रुरतों की ज़िम्मेदारी प्रकृति ने स्वयं ले रखी है। किसी भी जानदार की पहली ज़रुरत-हवा समान रुप से हर जगह मौजूद है। पानी भी काफ़ी मात्रा में उपलब्ध है। भोजन और अन्य ज़रुरतों की पूर्ति के लिए साधन और अवसर प्रदान कर दिये गये हैं और उन को उपयोग में लाने के लिए बुद्धि मिली हुई है। बुद्धि को काम में लाकर विकास की नई मंज़िलें तय की जा सकती हैं। इसी तरह इन्सान के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी भी प्रकृति ने अपने ही पास रखी हैं।

प्रकृति की इस व्यवस्था को, जो उसने इन्सान के लिए की है, ज़रा निकट से देखने पर आंखे उसकी विचित्रता में गुम हो जाती हैं। बच्चे के जन्म लेते ही माँ के शरीर में उसके लिये सब से उपयुक्त और पौष्टिक आहार दूध के रुप में बनना शुरु हो जाता है। ज़मीन पर क़दम रखने से पहले उसे कितने सामानों से सजाया जाता है। देखने के लिये आंखें, सुनने के लिए कान, चलने के लिए पैर, बोलने के लिए जीभ और होंठ और सब से बढ़ कर सोचने के लिए दिमाग़। जन्म के समय वह एक बेबस-सा प्राणी होता है, जिसे माँ-बाप जैसा अपरिहार्य सहारा न मिले तो शायद वह ज़िन्दा ही न रह सके। कैसी उत्तम व्यवस्था प्रकृति ने की है।

क्या धर्म इन्सान की ज़रुरत है?

समाजशास्त्रियों ने इंसान को एक सामजिक प्राणी कहा है। यह बात किसी हद तक सही जरुर है, मगर यह केवल इन्सान की विशेषता नहीं, इस लिए कि यह तत्व तो मधुमक्खियों, हिरनों और चिंटियों में अधिक प्रबल नजर आता है। समाजिक प्राणी की जगह यदि उसे नैतिक प्राणी कहा जाये, तो ज़्यादा सही होगा यही तो अन्य प्रणियों की तुलना में उसकी श्रेष्टा भी है।

इस नैतिकता का स्रोत क्या है? वह क्या चीज़ है जो मानवता से निःस्वार्थ प्रेम, कमज़ोरों और अन्य इन्सानों से अच्छा व्यवहार, दूसरों दुख दर्द में काम आना, खुद कष्ट उठा कर दूसरों की सेवा करना, अच्छे और बुरे की परख, माँ, बेटी और पत्नी के बीच अन्तर करना सिखाती है? क्या भौतिकवाद से यह चेतना पैदा हो सकती है? नहीं, यह सब कुछ केवल धार्मिक आस्था और अनुभव से ही सम्भव है।यहाँ एक और प्रश्न उभरता है कि धर्म क्या है?

धर्म आस्था की उस शक्ति का नाम है, जो इन्सान को आंतरिक पवित्रता प्रदान करती है तथा उसके चरित्र में एक क्रांति लाती है। किसी ने ठीक ही कहा है कि धर्म इन्सान की अपनी पशुता पर उसकी नैतिकता की विजय का दूसरा नाम है।

मानव जीवन को ज़रा गहराई से देखा जाए ते यह बात स्पष्ट रुप से समाने आती है कि मनुष्य की आवश्यकताएं केवल भौतिक ही नहीं, नैतिक भी हैं। प्रकृति ने जहाँ मनुष्य की जरुरतों का प्रबंध किया है, वहीं नैतिक और आध्यात्मिक जरुरतों की अनदेखी नहीं की है।धार्मिक विश्वास के कारण ही मनुष्य अपनी भौतिक इच्छाओं को नैतिक सीमाओं में रह कर पूरा करता है। इसी के कारण वह भौतिक लाभ और हानि से ऊपर उठकर बड़े – से – बड़े बलिदान के लिए तैयार हो जाता है। धर्म ने नैतिक तत्व को उभारा भी है और उसे प्रबल बनाने का भी प्रबन्ध किया है। नैतिकता का यही तत्व इन्सान के अन्दर निःस्वार्थ भाव पैदा करता है। इसी के कारण इन्सान किसी भौतिक लाभ, प्रशंसा और ख्याति से निर्लिप्त सेवा और त्याग का प्रदर्शन करता है। जिस तरह मनुष्य का जैविक अस्तित्व हवा पानी और भोजन के बिना सम्भव नहीं, उसी तरह उसके नैतिक एवं आध्यात्मिक अस्तित्व के लिए धर्म भी जरुरी है।

हमारे ज़माने का फ़ितना

मानव सभ्यता का इतिहास बताता है कि विकास हर युग में होता रहा है और हर युग अपने वर्तमान में अधुनिक ही था। परन्तु हमारे युग में आधुनिकता एक फ़ितना, एक बिगाड़ एक कड़ी परीक्षा बन गयी। डारविन (DARWIN) की किताब (ORIGIN OF SPECIES) से प्रेसट्राँइका (PRESTROICA) तक आजीब-अजीब विचार सामने आये और मनुष्य को प्रकृति के नियमों के विरुद्ध चलाने का प्रयास होता रहा। भौतिक विकास ने थोड़ी देर के लिये मनुष्य को इस धोखे में डाल दिया कि उसका अस्तित्व केवल भौतिक ही है और भौतिक ज़रुरतों की पूर्ति ही तक उसके सारे प्रयासों का अंत है।मानवता का ज़िक्र राजनैतिक दुनिया में तो हुआ पर भौतिकवाद के हाथों मानवता एवं मानव मूल्यों का ह्वास ही होता रहा। इस माहौल में मानवता और नैतिकता भी एक उपभोग की चीज़ बन गई  जिसे पूंजीपतियों की इच्छा से खुदरा या थोक भाव से खरीदा-बेचा जा सकता हो। पर यह बात कभी नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य के अचेकतन में धर्म के बचे-खुचे प्रभाव का ही यह नतीजा है कि वह दरिंदगी और पाशविकता के उस स्तर तक नहीं गिरा, जहाँ तक अन्यथा उसे गिर जाना चाहिए था।

धर्म में बिगाड़

उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में ज्ञान के विकास के साथ धर्म के प्रति घृणा की भावना अस्ल में मध्यकालीन यूरोप के धार्मिक बिगाड़ का ही परिणाम था। सांसरिकती से ग्रस्त धार्मिम वर्ग ने गिरजाघरों की धार्मिक और नैतिक हालत को बिल्कुल तबाह कर के रख दिया था। प्रसिद्ध लेखक WILL DURANT ने अपनी पुस्तक ‘THE STORY OF CIVILIZATION’ में गिरजाघरों के इस बिगाड़ की विस्तार से चर्चा की है। उसने लिखा है कि धार्मिक वर्ग किस तरह लोलुप और बेईमान हो गया था। धार्मिक अदालतें भ्रष्ट हो चुकी थीं। पैसे देकर फ़ैसले ख़रीदे जा सकते थे और बड़े –से-बड़े पाप की छूट प्राप्त की जा सकती थी। चन्द सिक्को के बदले निर्वाण –पत्र खरीदे जा सकते थे, जिसके बाद हर प्रकार के पाप की खुली छूट मिल जाती थी। पूरा धार्मिक वर्ग शासनाधीन हो गया था और शासकों की मर्ज़ी के फ़तवे दिया करता था। इसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही तीव्र हुई। धार्मिक सुधार के लिए यूरोप में एक आन्दोलन शुरु किया गया, मगर दुर्भाग्यवश इसने ईसाइयत बल्कि धर्म को ही हानि पहुँचाई। उस समय का धार्मिक वर्ग यदि थोड़ी –सी बुद्धि से काम लेता तो विज्ञान और धर्म के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न न होती। उस पर औद्धोगिक क्रांति ने पूरे माहौल और सारे रिश्तों को दौलत की होड़ में बदल कर रख दिया और इस तरह धर्म और धार्मिक मूल्य की क़दरों क़ीमत बाक़ी न रह गई।

धार्मिक कारोबार

धर्म के नाम पर कारोबार न तो चर्चों तक सीमित था और न विशेष समय तक। धर्म का नाम लेकर अपनी दुकान चमकाने और भौतिक लाभ उठाने का काम हर युग में किया जाता रहा है और आज भी हो रहा है। धर्म का नाम लेकर और धार्मिक भावनाओं को भड़का कर अपना काम निकालना और लाभ उठाना  कुछ लोगों के लिये बड़ा प्रिय धन्धा रहा है। सर्वविदित है कि सच्चे धर्म का और धर्म की सच्ची रुह का इस से सभी कुछ लेना-देना नहीं रहा। क़ुरआन ने लोगों को बार-बार होशियार किया है कि अल्लाह की बातों को कुछ फायदे के लिए बेच न देना।

धर्म सनातन है

हमारी दुनिया में अनेक धर्म और उनके मानने वाले हैं। धर्म की उत्पत्ति पर दर्शनशास्त्रियों ने भारी वाद-विवाद कि है। इस विषय पर क़ुरआन भी प्रकाश डालता है। एक बड़ी सीधी-साधी और तर्क संगत व्यख्या करता है। वह बताता हा कि इन्सान की भौतिक जरुरतों की तरह उसकी नैतिक जरुरतों और मार्गदर्शन की व्यवस्था उस के स्रष्टा और स्वामी ने विशेष रुप से की है। धर्म का आधार यही ईश्वरीय मार्गदर्शन है, जिसका पालन धर्म है।

क़ुरआन बताता है कि जिस पहले इन्सानी जोड़े को ज़मीन पर भेज़ा गया, उसे मार्गदर्शन और जीवन – यापन के नियम बता दिये गये थे। उसके बाद उसकी संतानों ने कुछ समय तक उन नियमों का पालन किया। फिर धीरे – धीरे उन्हें भुला कर अपनी इच्छा की पैरवी करने लगे। जब यह स्थिति हो गई तो ईश्वर ने अपने किसी दूसरो पैग़म्बर को अपने आदेशों और नियमों के साथ भेजा। यह सिलसिला चलता रहा और ज़मीन  के हर हिस्से में ख़ुदा के पैग़म्बर आते रहे, यहाँ तक की हज़रत मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को पूरी मानवता के लिए अन्तिम दूत बना कर भेजा गया। क़ुरआन कहता हैः

शुरु में सब लोग एक ही मार्ग पर थे। फिर यह हालत बाक़ी न रही और विभेद प्रकट हुए, तब अल्लाह ने नबी (ईशदूत) भेजे जो सीधे मार्ग पर चलने पर शुभ सूचना देने वाले और भले-बुरे रास्ते पर चलने के परिणामों से डराने वाले थे और उनके साथ सत्यानुकूल पुस्तक उतारी, ताकि सत्य के विषय में लोगों के बीच जो विभेद उत्पन्न हो गये थे, उनके निर्णय करें (बक़राः213)

क़ुरआन बताता है कि सत्य पा चुकने के बाद लोगों ने आपस में ज़्यदती करने के लिए उन आदेशों को भुला दिया और विभेद पैदा कर लिए।

स्पष्ट है कि अनादिकाल से धर्म के रुप में ईश्वरीय नियम और आचार-संहिता मौजूद रही हैं। इन्सानी समाज का कोई दौर और कोई देश धर्म से ख़ाली नहीं रहा है। जर्मन दार्शनिक मैक्स मूलर (MAX  MEULLER) ने कहा, मानव इतिहास धर्म का इतिहास है। (THE HISTORY OF MAN IS THE HISTORY OF RELIGION)

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