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Hindi Section ( 8 Jan 2021, NewAgeIslam.Com)

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Growing Islamophobia बढ़ती हुई इस्लामोफोबिया और आत्मनिरीक्षण की कमी पर सुल्तान शाहीन का UNHRC से ख़िताब

Sultan Shahin, Founding Editor, New Age Islam

१६ मार्च २०१० ई० को जेनेवा में आयोजित मानवाधिकार परिषद के १३ वें इजलास में न्यू एज इस्लाम के संपादक सुलतान शाहीन का भाषण संयुक्त राष्ट्र परिषद बराए मानवाधिकर

अध्यक्ष मोहोदय!

मैं खुद को अल्पसंख्यकों विशेषतः मुस्लिम अल्पसंख्यकों तक सीमित रखूँगा जो वर्तमान काल में बड़े इस्लामोफोबिया के माहौल में बेगाना तरसी औरअसहिष्णुता और पूर्वाग्रह का सामना कर रहे हैं।हम मुसलामानों को भी शिकायत है कि इस्लामोफोबिया को बढ़ावा देने की भी कोशिश हो रही है। फ्रांस में हिजाब और स्विज़रलैंड में मीनारों पर प्रतिबंध से माहौल और भी खराब हो गया है। हम यह निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि यह सब कितना विरोधी मुहिम के तौर पर हो रहा है जो हम मुसलमानों का आरोप है और इसमें कितना इस्लामी समाज में रोज़ बरोज़ अतिवाद, आक्रामकता और रुजअत पसंदी की प्रतिक्रिया में हो रहा है।

लेकिन मैं मुसलमानों में आत्मनिरीक्षण की लहर अनुभव कर रहा हूँ, लेकिन यह भी देख रहा हूँ कि जारी मुकालमे में मुस्लिम हुकूमतें गैर हाज़िर हैं। और यही काम मैं आज करना चाहता हूँ। एक तरफ तो हम मुसलमान यह मांग करते हैं कि हमें गैर मुस्लिम बहुसंख्यक देशों में अपनी धार्मिक कार्यों पर स्वतंत्रता से अमल करने और अपने धर्म का प्रचार व प्रसार करने की आज़ादी चाहिए वहीँ हम मुस्लिमों को बहुल देशों में रहने वाले गैर मुस्लिमों की गिरी हुई हालत के संबंध में कोई चिंता नहीं होती।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पिछले दशकों में मुस्लिम समाज में रुजअत पसंदी को बढ़ावा मिला है, यह एक दकियानूसी, बे लोच और बेरसइस्लाम के फरोग के लिए अरबों के पेट्रो डॉलर केसीधे प्रयोग केनतीजे में हुआ है, जिस ने इस्लाम से हुस्न व फराख दिली कोछीन लिया है। मेरी इस्तेलाह में इस पेट्रो डॉलर इस्लामके प्रचारकों ने दुनिया में घूम घूम कर मुसलमानों को इस बात की तरगीब दी है कि वह ना केवल इबादती उमूर बल्कि लिबास और वज़ा कता (रहन सहन) से भी अपनी एक अलग पहचान कायम करें। मुसलमान औरतों में हिजाब के प्रयोग में उल्लेखनीय बढ़ोतरी और मुसलमान मर्दोंमें इस्लामी दाढ़ी रखने का बढ़ता हुआ चलन कोई हादसा नहीं है। मुस्लिम बहुल देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध पक्षपात में बढ़ोतरी हुई। जैसे कि मज़हबी अल्पसंख्यकों के खिलाफ तौहीने रिसालत का कानून बाकायदा तौर पर मज़हबी अल्पसंख्यकों को डराने और उनके खिलाफ हिंसा जारी रखने के लिए प्रयोग किया जाता है।

विशेष अपील बराए मज़हब व अकीदे की आज़ादी मोहतरमा आसमा जहांगीर की रिपोर्ट के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिम्मेदारियों को पुरी तरह निभाने के एलामिये अहद के बावजूद पाकिस्तान में ईसाई अल्पसंख्यकों और अहमदी फिरके को निराधार आरोप के तहत डराया जाता है।वर्तमान काल में निम्नलिखित सुर्खियाँ मुस्लिम बहुल देशों में अखबारों में लगभग रोज़ देखने को मिलती हैं:

सऊदी शख्स ने ईसाई धर्म स्वीकार करने पर बेटी का कत्ल कर दिया

इस्लाम कुबूल ना करने पर पाकिस्तान में दो सिखों का कत्ल

खौफज़दा पाकिस्तानी हिन्दू, भारत में पनाह ले रहे हैं

मलेशिया में हिन्दुओं के अधिकार सलब कर लिए गए

इंडोनेशिया में धार्मिक टीवी बहुसंख्यक समाज के लिए खतरा आदि.....

एक और समस्या जो शायद इस्लामोफोबिया को बढ़ावा दे रहा है वह है मुस्लिम समाज में इस्लामी बरतरी का शदीद एहसास, खुदा ने कुरआन में कहा है कि इस्लाम कोई नया मज़हब नहीं है, यह वही मज़हब है जो खुदा अपने लाखों पैगम्बरों के माध्यम से इस दुनिया में भेजता रहा है। हमें यह बताया गया है कि कुरआन उन संदेशों को दुहराता है जो इससे पहले भेजे गए हैं। हमें ख़ास तौर पर तंबीह की गई है कि हम इस दुविधा में ना पड़ें कि केवल हम ही चुनी हुई कौम हैं। लेकिन हम ने यह बात नहीं मानी। हमने इस्लामी शिक्षाओं के उलट इस्लामी बरतरी के सिद्धांत की इजाद कर ली। हमनेउस सिद्धांत का निर्माण कर लिया कि केवल मुसलमान ही जन्नत में जाएँगे, बाकी सभी लोग चाहे वह जीतने भी नेक हों, जहन्नम में जाएंगे। ज़ाहिर है कि खुद को दूसरों से बेहतर समझने वाला उनसे बेहतर संबंध कायम नहीं कर सकता।

इसके अलावा मुसलमानों में से एक फिरके ने खारजी इस्लाम के कल्पना का प्रचार किया जिसका उद्देश्य हर उस रिवायत को तर्क कर देना है जो इस्लाम से पहले की दीन है। इस्लाम के पहले के रिवाज जैसे हज और काबा शरीफ की तकरीम इस्लाम का एक अभिन्न अंग है, मगर हम से कहा जाता है कि हम अपनी तमाम स्थानीय सभ्यताओं को छोड़ कर और दुसरे धर्म के अनुयायिओं से भिन्न कपड़े और वज़ा कता और तौर तरीके विकल्प करें।

जिहादी इस्लाम की इस्तेलाह इसी पेट्रो डॉलर इस्लाम से जुड़ी है, यही जिहादी इस्लाम हमारे जवानों को हम से छीन कर ब्रेन वाशिंग करके उन्हें मानव बम में परिवर्तित कर रहा है। यह कुरआन की कुछ आयतों को जंग के हथियार के तौर पर प्रयोग करता है। हम सब इस बात से वाकिफ हैं कि हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस्लाम की बका और वजूद की जंग लड़ी, इन आयतों का नुज़ूल (उतरना) उस समय जंग के जज़्बे को उभारने के लिए हुआ, लेकिन इस पर आज भी अमल करना आवश्यक नहीं है।

ऐसे समय में जिहादीइस्लाम इन आयतों का प्रयोग हमारे युवाओं की ब्रेनवाशिंग के लिए कर रहा है ताकि वह इन निर्देशों पर अक्षरशः अमल करें, दूसरी तरफ पेट्रो डॉलर इस्लाम बार बार इस बात पर ज़ोर देता है कि कुरआन का एक एक शब्द आफाकी और अबदी (हमेशा रहने वाला) अहमियत का हामिल है और इसी लिए जंग का आदेश भी आज भी वही अर्थ रखता है जो मिसाल के तौर पर नमाज़ या तकवा के हुक्म की है। इसलिए यह बात सूरज की तरह रौशन है कि जिहादी इस्लाम और पेट्रो डॉलर इस्लाम एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। हममुख्य धारा के मुसलमान खामोश तमाशाई हैं। हम उन दोनों फिरकों को अपने समाज में हानि पहुंचाते और तफरका (फुट) डाल कर दूसरी कौमों से हमारे संबंध खराब करते देख रहे हैं।हमने उन्हें इस बात की अनुमति दे दी है कि हमारे धर्म से रूहानी तत्व को निचोड़ कर निकाल दें और इसमें इस्लाम की एक ऐसी खुश्क, रेतीली और बेरस शकल भर दें जिसमें कोई खूबसूरती, बशाशत और लज्ज़त ना हो। खुदा की एक सिफत हुस्न भी है लेकिन पेट्रो डॉलर इस्लाम नवाजों के दिलों में केवल और केवल बदखुई और बुग्ज़ व इनाद है।

अध्यक्ष महोदय

इस्लाम की असल धारा अब भी सहीह सलामत है। यह फिरके अब भी बहुत सीमित हैं, हालांकि अथाह धन की उपलब्धता ने उन्हें हिंसक बना दिया है। अब समय आ गया है कि हम मुसलमान और हुकूमतें अंतर्राष्ट्रीय समाज से केवल अपने अधिकारों का मुतालबा ना करें बल्कि पुरी दुनिया के अवाम के इंसानी अधिकारों की सुरक्षा और शांति की स्थापना के संयुक्त राष्ट्र की प्रयासों को पूरा करने में मदद करने की बात भी सोचें। समय आ गया है कि हम जिहादी, देव का सामना करें, टाल मटोल करने का समय गुजर गया है। हमें अपनी बुनियादों की तरफ वापिस जाना होगा, कुरआनी बुनियादों, फलसफियाना बुनियादों की तरफ, अपने महान सूफियों और उनकी शिक्षाओं की तरफ। हमें फिर अपने सूफियोंके उज्ज्वलह्रदय, व्यापकदृष्टि, उदारताऔरक्षमा औरकृतज्ञताकीभावनाकोअपनानाहोगा जो हज़रत पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पहचान थी।यह ना केवल हमारे धर्म की रक्षा का प्रश्न है बल्कि हमारे बच्चों और नौजवानों को जिहादी कैम्पों और गतिशीलऔरस्लीपरसेल में जाने से रोकने का भी सवाल है।

हम अपने बच्चों की सुरक्षा, मानवाधिकार, मानवता और वैश्विक शांति के रक्षा के लिए कम से कम इतना कर सकते हैं कि हम अपने लोगों को बड़े स्पष्ट शब्दों में बार बार यह बताएं कि:----

१- केवल हम लोग ही चुनी हुई कौम नहीं हैं, इस्लामी बरतरी मूर्खतापूर्ण कल्पना है, और खुदा की नज़रों में सारे नबियों की उम्मतें बराबर हैं और खुदा उनके इकान के अनुसार उनका फैसला करेगा ना कि हमारे।

२- जंगों के संबंध में कुरआनी आयतें उन जंगों के संबंध में हैं जोउस समय लड़ी जा रही थीं और आज के हालात पर उनका इतलाक नहीं होता।

३- पेट्रो डॉलर इस्लाम जिस खारजी इस्लाम की तलकीन करता है वह असल में इस्लाम नहीं है, इस्लाम शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के संदेश में विश्वास रखता है जो दो आयतों लकुम दीनुकुम वलियदीन (तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए और मेरा दीन मेरे लिए) औरला इक्राहा फिद्दीन (दीन में कोई जब्र नहीं) में कर दिया गया।

४-गैर मुस्लिम देशों में शरीअत के निफाज़ (लागू करने) पर जिद खतरनाक है। भारत दुनिया का अकेला मुस्लिम बहुसंख्यक देश है जो मुसलमानों को पर्सनल लॉ के अनुसार अपने कुंबे के मामले तै करने की अनुमति देता है। लेकिन दुसरे समाज इस बात के लिए तैयार नहीं हैं। खुद मुस्लिम देश अपने यहाँ की अल्पसंख्यकों को इसकी अनुमति नहीं देते। इसलिए, यूरोपी व दुसरे देशों में इसकी वकालत मौजूदा माहौल में इस्लाम का खौफ या इस्लामोफोबिया को बढ़ावा देती है जो समझ से बाहर नहीं है, हालांकि तमाम हुकूमतों को इसके खिलाफ लड़ना चाहिए और मुस्लिम समाज के जाएज अधिकारों की सुरक्षा करनी चाहिए।

५- धार्मिक स्वतंत्रता अविभाज्य है, अगर एक अल्पसंख्यक की हैसियत से हमें स्वतंत्रता की आवश्यकता है तो यह हमारा फर्ज़ बनता है कि हम मुस्लिम देशों में अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता के लिए भी लड़ें।

६- इस्लाम खुद हमें इज्तेहाद (किसी मसले में परिवर्तन करना) और गौर व फ़िक्र का दर्स देता है ताकि हम बदलते हुए समय के साथ नई सच्चाइयों से खुद को संगत कर सकें।

URL: http://www.newageislam.com/muslims-and-islamophobia/growing-islamophobia--missing-introspection--do-we-muslims-too-owe-some-responsibility?-and-what-can-we-do-about-it?-sultan-shahin-asks-muslim-delegates-to-unhrc/d/2590

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