सुलतान शाहीन, संस्थापक संपादक न्यू एज इस्लाम
२४ मार्च २०२१
कश्मीर में कई दशकों के कट्टरपंथी उग्रवाद के बाद, पहली बार, बुनियाद परस्ती का
मुकाबला करने के लिए गंभीर प्रयास की जा रही है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के
अनुसार, कश्मीर से लगभग ५५०
धार्मिक नेताओं, २०० महिला और २०० युवा २३ मार्च को बेगुनाह लोगों के क़त्ल का “औचित्य” पेश करने वाली जिहाद
की “गलत” व्याख्या को अस्वीकार
करने के लिए इकट्ठे हुए थे, और इसके साथ साथ उन्होंने “शांतिपूर्ण सहअस्तित्व”
पर आधारित “सहीह” जवाबी बयानिया भी
पेश किया।
तथापि इस रिपोर्ट में जिहाद के सिद्धांतों की गहराई में जाने
की किसी गंभीर प्रयास का उल्लेख नहीं किया गया है। शिक्षा प्राप्त लोग, अक्सर पेशावर, शिक्षा विशेषज्ञ, संभावित तौर पर उस
चीज के अमल में व्यस्त नहीं हो सकते जिसे बकौल कुरआन क़िताल कहा जाता है, और इसी तरह जिहाद
फी सबीलिल्लाह की सतही समझ के आधार पर अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को छोड़ने, बेगुनाहों को मारने
और मर जाने के अमल में व्यस्त नहीं हो सकते। जब वह सारे फिरकों के इज्माअ अर्थात आम
सहमति पर आधारित इस्लामी थियोलौजी का अध्ययन करते हैं तो उन्हें मालुम होता है कि जो
संदेश जिहादी नज़रियात के प्रचारक उन्हें दे रहे हैं वह इस्लाम की सदियों पुरानी फिकह
की ठोस बुनियादों पर कायम है इस तौर पर कि इससे आलमी प्रभुत्व और वर्चस्व के प्राप्ति
के लिए राजनीतिक योजनाबंदी और निरपेक्ष स्वार्थ का जवाज़ मिलता है। अगर उलेमा बिना दलीलों
पर गौर व फ़िक्र किये जो सदियों से इस्लाम के फिकही मज़ाहिब की बुनियादी गिज़ा रही है, केवल यह बयान बाज़ी
करते रहें कि जिहाद की ऐसी व्याख्या करना गलत है तो इस पर कोई भी गंभीर छात्र भरोसा
और यकीन नहीं करेगा।
तथापि आइये पहले देखें कि इस इवेंट में क्या हुआ था। टी ओ आई
(टाइम्स ऑफ़ इंडिया) के प्रतिनिधी भारती जैन की रिपोर्ट है: “मुफ़्ती मोहम्मद असलम
ने श्रीनगर कांफ्रेंस के साइड लाइंस पर टी ओ आई को बताया कि कुरआनी आयतों की सहीह तफ़सीर
के अनुसार, इस्लाम अपने अनुयायिओं को पड़ोसी इंसानों की जान लेने या उन्हें तकलीफ पहुंचाने
की शिक्षा नहीं देता है, बल्कि इसके उलट इस्लाम अपने मानने वालों को शिक्षा देता है कि
वह धर्म से परे तमाम लोगों की हिफाज़त करें और सबके साथ अमन व शांति और सहिष्णुता के
साथ जिंदगी गुजारें। उन्होंने कहा कि “जिहाद” का अर्थ अपनी नफसानी ख्वाहिशात के खिलाफ लड़ना है।“
अगर यह बात है तो, मुफ़्ती साहब, क्या मैं यह अर्ज़ कर सकता हूँ कि आखिर क्यों जिहाद
पर लिखी गई तमाम किताबों ने इसे (अर्थात नफसानी ख्वाहिशात के साथ जंग को) केवल कुछ
शब्दों में बयान करके नज़र अंदाज़ कर दिया जबकि जिहाद बिल क़िताल को बयान करने के लिए
हज़ारों शब्दों की आवश्यकता पेश आई? बेशक जिहाद एक प्रयास का नाम है और किसी भी संघर्ष और कोशिश
को जिहाद कहा जा सकता है। ज़िन्दगी खुद एक जिहाद है। हालांकि कुरआन ने लड़ने, क़त्ल करने और जंग
चाहे वह रक्षात्मक हो या सामूहिक, इन सबके लिए शब्द क़िताल का प्रयोग किया है, मगर इसके बावजूद तमाम
मुस्लिम इमामों और उलेमा ने शब्द जिहाद को ख़ास तौर पर क़िताल के अर्थ में प्रयोग किया
है।
इन्तेहा पसंदी के खात्मे की इस इवेंट में जिहादे असगर और जिहादे
अकबर का उल्लेख हुआ होगा। यह तो दुनिया भर में की जाने वाली ऐसी तमाम प्रयासों का केन्द्रीय
भाग होता है। इसकी बुनियाद एक हदीस पर है जिसमें यह मरवी है कि नबी करीम सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम एक गजवे से लौटने के बाद फरमाते हैं कि हम जिहादे असगर से जिहादे अकबर
की तरफ आ गए हैं। जब उनसे पूछा गया कि जिहादे अकबर क्या है तो आप सल्लल्लाहु अलैहि
वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि अपने नफस के खिलाफ लड़ना ही जिहादे अकबर है। यक़ीनन ऐसा ही
है और कोई भी सहीह व सालिम अकल रखने वाला शख्स इस बात से सहमत हो जाएगा क्योंकि बुरे
नफसानी ख्वाहिशात से लड़ना आसान नहीं बल्कि एक महान जेहद, एक अज़ीम कोशिश है और यक़ीनन एक जंग में लड़ने से कहीं
अधिक बड़ा जिहाद है।
इस हदीस में हक़ व सदाक़त का रंग है। क्योंकि अगर हम आपकी नबूवत
से पहले और नबूवत के बाद की ज़िन्दगी का अध्ययन करें तो हमें अवश्य इस बात का विश्वास
हो जाएगा कि हमारे नबी अलैहिस्सलाम ने वाकई ऐसा कहा होगा। लेकिन हमारे अधिकतर उलेमा
इस बात पर एकमत हैं कि यह हदीस हालांकि मौजूअ (अर्थात गाढ़ी हुई बात) नहीं लेकिन ज़ईफ़
है (अर्थात इसकी सनद में कमज़ोरी है)। इसलिए इस तरह की मरवियात कश्मीर में होने वाले
इवेंट (घटना) जैसे दुसरे घटनाओं के लिए सुरक्षित हैं। वरना तो हमें बताया जाता है कि
यह एक ज़ईफ़ और नाकाबिले एतिबार हदीस है। इसी तरह का मामला एक और हदीस के साथ किया जाता
है जिसमें मुसलमानों को इल्म (बज़ाहिर सेकुलर इल्म) हासिल करना चाहिए हालांकि उन्हें
चीन जाना पड़े क्योंकि उस समय चीन में कोई मुसलमान नहीं था।
मुझे उम्मीद है कि मुफ़्ती नसीरुद्दीन ने निम्नलिखित कुछ अंश
में जो बातें टी ओ आई को बताया है वह बातें स्थित
होंगी और तमाम मौलवी और मुफ़्ती साहिबान वैसा ही करेंगे जैसा उन्होंने वादा किया है
कि: “इस्लाम अमन, सद्भाव और संवेदनशीलता
पर अमल करने की शिक्षा देता है। इस्लाम की यह सहीह तर्जुमानी है जिसकी तश्हीर जम्मुं
व कश्मीर की मस्जिदों से, आज यहाँ जमा होने वाले तमाम मुफ़्ती और मौलवी साहब अपने जुमे
के खुत्बों के माध्यम से लोगों में करेंगे। मुफ़्ती नसीरुद्दीन ने टी ओ आई को बताया
कि “ऐसा ही एक संदेश यहाँ
के मदरसों में शिक्षा हासिल करने वालों को भेजा जाएगा, इसके साथ साथ यहाँ रहने वाली तमाम परिवारों को, ख़ास तौर पर माओं को
यह संदेश दिया जाएगा कि वह अपने बच्चों को इस्लाम की सहीह शिक्षा दें ताकि वह ‘झूटे’ बयानिये के बहकावे
में आकर इन्तेहा पसंद और हिंसक ना बन जाएं”।
चूँकि मैं उलेमा की तरफ से आने वाले शांतिपूर्ण बयान बाज़ियों
के बारे मे मशकूक हूँ, यह स्पष्ट होना चाहिए।
इसकी वजह यह है कि वह कभी भी इस्लामी नज़रियात के ग़ालिब मौजुआत के साथ मशगूल नहीं होते
हैं जिनको वह अपने मदरसों में पढ़ाते हैं, यहाँ तक कि इस्लाम की राजनीतिक समझ से भी खुद को
जुदा नहीं करते जो बरसों से मोतबर उलेमाए दीन सिखाते चले आ रहे हैं। मैं निम्न में
कुछ अंश पेश कर रहा हूँ जिनसे मेरे कहने का उद्देश्य स्पष्ट हो जाएगा। मैंने इससे पहले
भी न्यू एज इस्लाम वेब साईट पर इन अंशों को अपनी लेखनी और जेनेवा में यू एन एच आर सी
के बाकायदा इज्लासों में अपनी तकरीरों में इस्तेमाल कर चुका हूँ। मेरी बड़ी तवज्जोह
यहाँ सूफी नज़रियात के हामेलीन उलेमा पर है क्योंकि कश्मीर का सूफीज्म से गहरा संबंध
रहा है। तमाम लेखक जिनका हवाला दे रहा हूँ उन्होंने अपने इन ख्यालों को अपनी अपनी किताबों
में बड़ी तफसील से बयान किया है। उपलब्ध हवालों के साथ, कोई भी बाद में उनका मुताला कर सकता है।
हालांकि मैंने पहले भी इन समस्याओं पर प्रकाश डाली है, और इसी तरह के सवाल
उठाए हैं, लेकिन कभी भी कोई
आलिम या विद्वान इन सवालों के साथ मशगूल नहीं हुआ है। इससे मुझे यह इशारा मिलता है
कि वह खुद भी निम्नलिखित अंश में बयान किये हुए अफकार व नज़रियात की दुरुस्तगी के कायल हैं, लेकिन वह कश्मीर या
उस जैसी किसी और जगह में होने वाले इवेंट के लिए अपनी शांतिपूर्ण, तक्सीरी बयान बाज़ी
को सुरक्षित रखते हैं। मेरे उलेमा, मुझे गलत साबित करें, और कहें कि आप उन महान धर्मशास्त्रियों (इमामों, मुफ़स्सेरीन आदि) से
इत्तेफाक नहीं करते जिनका आप सम्मान करते हैं और अपने छात्रों को सम्मान दिलाते हैं।
ओल्ड एज इस्लाम को अवश्य जाना चाहिए और न्यू एज इस्लाम का पैदा होना आवश्यक है। तब
ही हम अपने युवाओं को ख़ास तौर पर उच्च शिक्षा प्राप्त, नफीस नौजवान पेशावर अफ़राद और शिक्षा विशेषज्ञ को
जो पुरी दुनिया में उग्रवाद की राहनुमाई करते हैं, के अन्दर से अतिवाद को समाप्त कर सकते हैं।
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मैं निम्न में सुफिया और फुकहा के कुछ अंश को नकल करना आवश्यक
समझता हूँ ताकि मसले की प्राकृति व लाभ स्पष्ट हो सके, और इस गोरख धंधे से बाहर निकलने का रास्ता तलाश
करने के लिए बहस को आगे बढ़ाया जा सके।
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परिशिष्ट १
ग्यारहवीं शताब्दी के सूफी आरिफ, फकीह, कानूनदां और फलसफी इमाम अबू हामिद अल गज्जाली के
बारे में कहा जाता है कि हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद इस्लाम की सबसे
बेहतर समझ आपको ही हासिल थी। जिहाद और गैर मुस्लिमों के साथ संबंधों के बारे में उनके
हवाले से अक्सर मीडिया में यह बात कही जाती है कि:
“जिस तरह अहले इल्म
व फ़िक्र के साथ हक़ के बारे में बात चीत करते समय इल्म व इस्तिदलाल का उस्लूब इख्तियार
किया जाता है उसी तरह, हक़ की खबर देने के बाद काफिरों के खिलाफ तलवार का इस्तेमाल किया
जाता है। इसलिए जिस तरह यह नहीं कहा जा सकता कि तलवार ही पैगम्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम की सबसे अधिक मुस्तहकम दलील थी उसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि इल्म
व इस्तदलाल का उस्लूब ही एक हतमी दलील है।“ अहयाउल उलूम अलदीन मुसन्नेफा अबू हामिद अल गज्ज़ाली, जिल्द ४ पृष्ठ-३५
“साल में कम से कम
एक बार जिहाद पर जाना आवश्यक है..............जब गैर मुस्लिम किसी किले में हों तो
उनके खिलाफ मंजनीक का प्रयोग किया जा सकता है। जबकि उनके बीच औरतें और बच्चे ही क्यों
ना मौजूद हों। कोई शख्स उन्हें आग में झोंक सकता है या उन्हें डुबो सकता है......अगर
किसी अहले किताब को गुलाम बना लिया जाता है तो उसकी शादी खुद बखुद मंसूख हो जाती है.....उनके
दरख्तों को काटा जा सकता है और उनकी बेकार किताबों को जला दिया जाना आवश्यक है। मुजाहेदीन
उनके माल से जिस कदर चाहें माले ग़नीमत ले सकते हैं..........और उन्हें गिज़ा की जितनी
आवश्यकता हो वह ले सकते हैं........ज़िम्मी
के उपर लाज़िम है कि वह अल्लाह या उसके रसूल का नाम ना ले यहूदियों, ईसाईयों और मजूसियों
के लिए जिजया की अदायगी आवश्यक है........ जिजया अदा करते समय आवश्यक है कि ज़िम्मी अपना सर झुकाए
हुए हो और जिजया वसूल करने वाला अहलकार उसकी
दाढ़ी को पकड़े और उसके जबड़े पर जर्ब लगाए.......उन (ज़िम्मियों)
के घर मुसलमानों के घरों से ऊँचे नहीं होने चाहिए, चाहे मुसलमान का घर कितना ही छोटा क्यों ना हो।
ज़िम्मी एक खुबसूरत घोड़े या खच्चर पर सवार नहीं हो सकता; वह केवल गधे पर सवार हो सकता है शर्त यह है कि उसकी
ज़ीन लकड़ी से बनी हो। वह सड़क के अच्छे हिस्से पर नहीं चल सकता। ज़िम्मी मर्दों और औरतों
को अवामी हमाम में भी अपने लिबास पर एक अलामती टुकड़ा लगाना आवश्यक है.....[ज़िम्मियों]
को अपनी जुबान पर लगाम रखना आवश्यक है........।
“साहबे कुरआन और नबी
हक़ व सदाकत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात के बाद सहाबा ने इस्लाम के कमज़ोर
होने, उसके अनुयायियों की
संख्या में गिरावट, और लोगों के अपने पिछले हालते कुफ्र पर लौट जाने के डर से [इससे
हर्बुरिदा—इर्तेदाद की जंगें
मुराद हैं जो खलीफा अव्वल अबुबकर के दौरे हुकूमत में लड़ी गईं और जिनके पेशे नज़र कुफ्फार
के खिलाफ फुतुहात की जंगों को मुअख्खर कर दिया गया था], मुकद्दस जंगों और अल्लाह की खातिर दुसरे देशों की
फुतुहात, तलवार के जरिये काफिरों
के चेहरे मस्ख करने वाले लोगों को अल्लाह के दीन में दाखिल करने की मुहिम को तमाम उलूम
के मुकाबले में ज़्यादा अहमियत दी” अहयाउल उलूम अल दीने मुसन्नेफा अबू हामिद अल गज्जाली, जिल्द ४ पृष्ठ-३५
--------इमाम अबू हामिद अल
गज्जाली (१०५८-११११)। किताबुल वगैज़ फिकह मजहबुल इमाम शाफई। बैरुत, १९९७, पृष्ठ १८६, १९०-९१; १९९-२००; २०२-२०३ [अंग्रेजी
अनुवाद: डॉक्टर माइकल शोब]
परिशिष्ट २
भारत के अत्यंत प्रसिद्ध सूफी और फकीह मुजद्दिद अल्फ सानी शैख़
अहमद सर हिंदी (१५६४-१६२४) कहते हैं:
“तलवार के माध्यम से शरीअत को फरोग दिया जा सकता है.......
“जब भी कोई यहूदी क़त्ल किया जाए उसमें इस्लाम का ही फायदा है।
“कुफ्र और इस्लाम एक दुसरे की ज़द हैं। एक की तरक्की केवल दुसरे
के खात्मे से ही संभव है और दोनों विपरीत अकीदों के बीच सहअस्तित्व अकल्पनीय है.........।
“इस्लाम की इज्ज़त कुफ्र और काफिरों के अपमान में निहित है। जो
काफिरों का सम्मान करता है वह मुसलमान की तौहीन करता है। उनका सम्मान करने का अर्थ
केवल उन्हें सम्मान से नवाजना और उन्हें किसी मजलिस में सम्मान की जगह बैठाना ही नहीं
है, बल्कि इसका मतलब उनकी
मसाहिबत इख्तियार करना और उनका खयाल रखना भी है। उन्हें बाजू के दायरे के अन्दर रखना
चाहिए जिस तरह कुत्ते रखे जाते हैं। अगर किसी दुनयावी कारोबार का उनके बिना चलाना कठिन
हो जाए, तो इस सूरत में उन्हें
एतेमाद में लिए बिना ही उनके साथ कम से कम राबता कायम किया जा सकता है.......... ।
“आला तरीन इस्लामी जज़्बात का तकाजा यह है कि ऐसे दुनयावी कारोबार
को तर्क कर देना ही बेहतर है और काफिरों के साथ कोई संबंध कायम नहीं किया जाना चाहिए।
उन पर जज़िया आएद करने का असल मकसद उन [गैर मुस्लिमों] की इस हद तक तौहीन व तजलील करना
है कि जज़िया के खौफ से वह अच्छे लिबास पहनने और जाह व हशमत की ज़िन्दगी बसर करने के
काबिल ही ना हो सकें। उन्हें मुसलसल लार्जीदा और तरसीदा रहना चाहिए। इसका उद्देश्य
उनका अपमान और तह्कीर करना और इस्लाम की हैबत और इस्लाम का इकबाल बुलंद रखना है।
“भारत में गाय की कुर्बानी अज़ीम तरीन इस्लामी मामूलात में से
एक है। काफिर जज़िया अदा करने के लिए तैयार तो हो सकते हैं लेकिन गाय की कुर्बानी वह
कभी स्वीकार नहीं करेंगे.......
“मलऊन काफिर गोबिंदवाल [एक सिख जिसने अपने समाज की जाबिराना
मुस्लिम हुकूमत के खिलाफ बगावत बुलंद किया था] की फांसी एक अहम कामयाबी है और मलऊन
हिन्दुओं की अज़ीम शिकस्त है........
“इसके पीछे चाहे जो भी मोहरिक हो काफिरों की ज़िल्लत व रुसवाई
मुसलमानों के लिए इफ्तिखार की बात है। उसकी फांसी से पहले मैंने ख्वाब में देखा कि
शहंशाह ने शिर्क के सरबराह का ताज तोड़ दिया है। बेशक वह मुशरिकों का सरदार था और काफिरों
का रहनुमा था।“
-------सैयद अतहर अब्बास
रिज़वी, सोलहवीं और सत्रहवीं
शताब्दी में उत्तर भारत की मुस्लिम तज्दीदी तहरीकें आगरा,
लखनऊ: आगरा यूनिवर्सिटी, बाल कृष्णा बुक कम्पनी, १९६५,pp।
युहानन फ्रेडमैन की किताब: Yohanan Friedmann’s Shaykh Ahmad Sirhindi An Outline of His Thought and a Study of His Image in the Eyes of Posterity pp. 73-74 भी देखें।
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परिशिष्ट ३
शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (१७०३-१७६२), मुसलमानों के बीच
एक अज़ीम सूफी और फकीह की हैसियत से एक आला मुकाम रखते हैं। इंटरनेट पर प्रसारित उनके
लेखन के कुछ अंश यहां दिए गए हैं:
“मेरे दिमाग में यह बात स्पष्ट हुई है कि आसमान की बादशाहत काफिरों
के लिए अपमान मुकद्दर कर चुकी है। क्या बादशाह (निजामुल मुलूक) को अपने खज़ाने और बहादुरी
के साथ ऐसी मुहिम का पक्का इरादा नहीं करना चाहिए ताकि इसे पुरी दुनिया पर फतह हासिल
हो सके....। इस तरह ईमान को और गलबा हासिल होगा और उसकी ताकत मजबूत होगी; एक छोटी सी कोशिश
से अज़ीम अज्र मिलेगा। क्या उन्हें कोशिश नहीं करनी चाहिए,
इसलिए कि वह [मराठी] यकीनन
मुसीबतों से कमज़ोर हो कर नेस्त व नाबूद हो जाएंगे और ऐसी सूरत में इसका सेहरा उनके
सर नहीं जाएगा........। मेरे कल्ब पर इन बातों का (आसमान) से इलका हुआ है और मैं आपके
सामने मौजूद इस अज़ीम मौके की तरफ आपकी तवज्जोह मब्जूल करने के लिए बे साख्ता तौर पर
यह ख़त लिख रहा हूँ। इसलिए आपको जिहाद करने में गफ़लत से काम नहीं लेना चाहिए......।
ऐ बादशाह! मलाए आला से आपके लिए यह आदेश है कि आप अपनी तलवार म्यान से निकाल लें और
दुबारा इसे उस वक्त तक म्यान के अन्दर ना रखें जब तक अल्लाह मुशरिकों और बागी काफिरों
से मुसलमानों को अलग ना कर दे और गुनाहगार बिलकुल कमज़ोर और बेबस ना हो जाएं।‘
“पहले खलीफा हज़रत अबुबकर ने हजरत उमर के लिए अपनी वसीयत में
इस बात से आगाह किया था कि अगर तुम खुदा से डरोगे तो पुरी दुनिया तुमसे डरेगी। उरफा
यह कह चुके हैं कि यह दुनिया एक साए की तरह है। अगर कोई इंसान अपने साए के पीछे भागता
है तो वह साए का पीछा करता है, और अगर कोई अपने साए की तरफ पीठ कर लेता है तो फिर साया उसका
पीछा करता है। खुदा ने आपको सुन्नियों के मुहाफ़िज़ के तौर पर चुना है इसलिए कि कोई दुसरा
ऐसा नहीं है जो इस काम को अंजाम दे, और जरूरी है कि हर वक्त आप अपने किरदार को लाजमी
जानें। इस्लाम को ग़ालिब करने के लिए कदम उठा कर और इस मकसद के प्राप्ति के लिए अपनी
जाती आवश्यकताओं को इसके मातहत करके आप बड़ा नफ़ा उठाएंगे।
[अफगानिस्तान शाषक अहमद शाह अब्दाली दुर्रानी को खत में शाह वलीउल्लाह देहलवी लिखते हैं] “हम नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नाम पर आप से यह इल्तिजा करते हैं कि आप इस खित्ते के काफिरों और बेदीनों के खिलाफ जिहाद करें। इस पर आप अल्लाह पाक की बारगाह में अज्रे अज़ीम के हकदार करार पाएंगे और आपका नाम उन लोगों की लिस्ट में शामिल किया जाएगा जिन्होंने अल्लाह की खातिर जिहाद कीं। और रह गया सवाल दुनयावी लाभ का तो कसीर माले गनीमत गाजियों के हाथ लगेगा और मुसलमान उनकी कैद से आज़ाद हो जाएंगे। नादिर शाह के हमले ने मुसलमानों को तबाह कर दिया, मराठियों और जाटों को महफूज़ और खुशहाल ही छोड़ दिया। इसके नतीजे में काफिर व बेदीन अपनी दुबारा मजबूत हो रहे हैं और दिल्ली के मुस्लिम हुक्मरान केवल कठ पुतली बन कर रह गए हैं।
“जब कोई फातेह फ़ौज मुसलमान और हिन्दू वाली महफूज़ आबादी के इलाके
में पहुंचे तो शाही मुहाफ़िज़ों का काम यह है कि वह मुसलमानों को उन गाँव से शहर में
मुन्तकिल कर दें और साथ ही साथ उनकी जायदाद की देख भाल भी करें। गरीबों, मोहताजों, सैयदों और उलेमा को
भी हुकूमतों के ज़रिये माली मदद प्रदान की जानी चाहिए। इसके बाद उनकी सफलता के लिए त्वरित
दुआओं के साथ उनकी सखावत मशहूर हो जाएगी। हर शहर इस्लामी फ़ौज की आमद के लिए शदीद मुन्तजिर
होगा। इसके अलावा, जहां कहीं भी मुसलमानों की हार का थोड़ा भी डर हो वहाँ इस्लामी
फ़ौज जाए ताकि काफिरों को पुरी दुनिया के कोने कोने में मुन्तशिर कर दे। जिहाद उनकी
पहली तरजीह होनी चाहिए, और इस तरह उन्हें हर मुस्लिम की हिफाज़त को वास्तविक बनाना चाहिए।“
----सैयद अब्बास रिज़वी-
Shah Wali Allah and his times- केनबरा, ऑस्ट्रेलिया, मारफत पब्लिकेशन्स हाउस, १९८०, पृष्ठ २९४-२९६، २९९، ३०१، ३०५
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परिशिष्ट ४
Shah Wali Allah and his times के विश्लेषण में अतहर अब्बास रिजवी लिखते, पृष्ठ- २८५-२८६:
शाह वलीउल्लाह के अनुसार इस्लामी शरीअत के कामिले निफाज़ की अलामत
जिहाद की अदायगी थी। उन्होंने कानूनी एतिबार से मुसलमानों के फ़राइज़ की तुलना ऐसे लोगों
से किया है जिनके पास एक पसंदीदा गुलाम हो जिसने घर में दुसरे गुलामों के लिए कड़वी
दवा का इंतज़ाम किया हो। अगर ज़ोर व जब्र के साथ यह काम अंजाम दिया जाता तो जायज था लेकिन
अगर किसी ने इसमें रहमत और शफकत से काम लिया तो यह और भी बेहतर हुआ। तथापि, शाह वलीउल्लाह देहलवी
ने कहा कि ऐसे लोग भी हैं जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की नसीहतों और अहकाम को नजर
अंदाज़ करते हुए अपने आबाई मज़हब पर अमल करते हैं। अगर कोई इस तरह के लोगों को इस्लाम
समझाना चाहता है तो यह नुक्सान दह है। शाह वलीउल्लाह ने कहा कि ऐसे लोगों के लिए सबसे
बेहतर जब्र व इकराह है, इस्लाम बा जब्र व इकराह उनके गले के अन्दर इसी तरह उतार देना
चाहिए जिस तरह एक कड़वी दवा किसी बच्चे की हलक के नीचे उतारी जाती है। तथापि, यह केवल उसी समय संभव
है जब गैर मुस्लिमों के वह रहनुमा मार दिए जाएं जिन्होंने इस्लाम कुबूल नहीं किया है, गैर मुस्लिमों को
कमज़ोर किया जाए, उनकी इम्लाक जब्त कर ली जाए और एक सूरत हाल पैदा कर दी जाए कि उनके पैरुकार और
उनकी औलादें अपनी मर्ज़ी से इस्लाम कुबूल कर लें। शाह वलीउल्लाह का मानना था कि जिहाद
के बिना आलमी सतह पर इस्लाम का वर्चस्व संभव नहीं है।
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परिशिष्ट ५
इस तरह के खयालात मौजूदा दौर के हालात से असंबंधित मालुम होते हैं। लेकिन यह भी दिमाग में रहे कि तमाम उलेमा अपने ज़माने की पैदावार होते हैं, जिसमें उन्हें अपने चेतना के अनुसार हालात से जूझने के लिए रख दिया जाता है। बीसवीं और अब इकीस्वीं शताब्दी में कुछ उलेमा व फुकहा और कुरआन करीम के मुफस्सिरीन ऐसे भी हैं जिन्होंने बिलकुल विपरीत और विरोधी स्टैंड इख्तियार किया है, हालांकि बदकिस्मती से इस्लामी नज़रियात का इज्माई स्टैंड मुसलसल क्लासिकी उलेमा व फुकहा और उनके कट्टर इफ्कार की इत्तेबा करते रहते हैं जो किसी तरह से भी जदीद दौर की चेतना व आगही से संबंध नहीं रखता।
जैसे कि कुरआन की अपनी मौजुई तफ़सीर में शैख़ मोहम्मद अल गज्ज़ाली
(१९१७-१९९६) ने यह साबित करने की हर कोशिश की है कि कुरआन करीम का संदेश अमन और कसरत
पसंद है। सुरह तौबा की आयत ५ की जो तफसीर उन्होंने पेश की है उससे बेहतर कुछ नहीं हो
सकता। यह वह आयत है जिसके संबंध में रशीदुद्दीन मैबुदी जैसे नामवर सूफी मुफ्स्सेरीन
भी यह खयाल पेश करते हैं कि यह आयत अल सैफ है जिसने लगभग १२४ आयतों को मंसूख कर दिया
है जो अमन व सलामती और तक्सरियत और मसाइब व आलाम की नाज़ुक हालत में सब्र व तहम्मुल
की दावत देती है। उनकी तफ़सीर का कुछ अंश यहाँ पाठकों के लिए पेश करना बहुत रौशन कुन
साबित होगा, मगर इससे पहले विद्वान का संक्षिप्त परिचय पेश करना अधिक उचित व मुनासिब होगा।
शैख़ मोहम्मद अल गज्ज़ाली एक मशहूर आलिमे दीन और विद्वान थे जिनकी
लेखनी“मिस्रियों की नस्लों
पर असर अंदाज़ हुईं।“ ९४ किताबों के लेखक गज्ज़ाली असका ने इस दौर की आवश्यकताओं को
अपने ज़ेहन के निगार खाने में रखते हुए इस्लाम और उस मुकद्दस किताब कुरआन करीम की तफसीर
व तशरीह पेश की और इस तरह के कारनामों से उन्होंने अनुयायिओं की एक बड़ी जमात को अपनी
ओर आकर्षित कर लिया। हालिया मिस्र में बड़े पैमाने पर इस्लामी अकीदा का अहया करने का
सेहरा उनके सर जाता है (२) एक स्रोत के जरिये पेश किये हुए कौल के अनुसार वह “मुस्लिम दुनिया के
सबसे अधिक काबिले कद्र शख्सियतों में से एक हैं” (३) विकिपीडिया (अनुवादक)
शैख़ मोहम्मद अल गज्ज़ाली सुरह तौबा की आयत ५ (२:९) की तफसीर करते
हुए लिखते हैं:
“......इसलिए बुनियादी तौर पर मुसलमान जंग के मुखालिफ हैं और कभी भी
उन्होंने इसकी शुरुआत नहीं की। खुद उनके मज़हब की शिक्षा ने उनके उपर लाज़िम किया है
कि वह ताकत व कुवत का इस्तेमाल करते हुए दूसरों पर अपना मज़हब नाफ़िज़ ना करें। उनका मिशन
केवल यह है कि वह लोगों तक अल्लाह के पैगाम को पहुंचा दें और इसका फैसला करने के लिए
लोगों को आज़ाद छोड़ दें कि वह चाहें तो इस पर ईमान लाएं और चाहें तो इससे इनकार करें।
जो लोग ईमान लाने से इनकार करते हैं वह अमन के साथ अपनी ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए आज़ाद
हैं जब तक कि वह इस्लाम और उन मुसलमानों के लिए कोई रुकावट या खतरा पैदा ना करें, जो अपने ईमान को अल्लाह
पाक और इंसानियत के बीच मजबूत तरीन और अहम तरीन संबंध कल्पना करते हैं, और यह मुसलमानों की
ज़िम्मेदारी है कि वह दूसरों को इस्लाम से आगाह करें और उन्हें इस्लाम को समझने और इसकी
कद्र करने का मौक़ा प्रदान करें।
“इस्लामी समाज के अन्दर
मुसलमानों और गैर मुस्लिमों के बीच संबंधों की बुनियाद यही है।
कुरआन में एक और जगह पर अल्लाह का फरमान है:
“पस अगर वह तुमसे किनारा
कशी कर लें और तुम्हारे साथ जंग ना करें और तुम्हारी तरफ सुलह (का संदेश) भेजें तो
अल्लाह ने तुम्हारे लिए (भी सुलह जुई की सूरत में) उन पर (दस्त दराजी की) कोई राह नहीं
बनाई,” [अल निसा:९०]। जो लोग
किसी मुस्लिम रियासत या उसके एक हिस्से के खिलाफ हथियार उठाते हैं उनका मुकाबला किया
जाना चाहिए, और अगर वह शिकस्त खा लें तो उनसे हथियार अलग कर लिया जाए। और एक बार जब यह चरण
तय कर लिए जाएं तो वह मुस्लिम हुक्काम के तहफ्फुज़ में अमन और सलामती के साथ अपनी ज़िन्दगी
गुज़ारने और अपने अकीदों व मामूलात पर अमल करने के लिए आज़ाद हैं, जिसके बदले में उन्हें
एक उजरत अदा करना पड़ती है।
“यह वह पृष्ठभूमि है
जिसके तहत जज़िया या खिराज उनके उपर मशरुअ किया गया है। इसकी अदायगी उन लोगों के उपर
नहीं है जो गैर जानिबदार हैं और जिन्होंने कभी भी मुस्लिम रियासत के खिलाफ हथियार नहीं
उठाया है। इस खिराज के पीछे जो वजह है कुरआनी आयत में इसकी काफी वजाहत मौजूद है, क्योंकि वह आयत ऐसे
लोगों का चुनाव करती है जिनके लिए जज़िया मशरुअ (शर्त) है यह वह लोग हैं “जो ना अल्लाह पर ईमान
रखते हैं ना आख़िरत के दिन पर और ना उन चीजों को हराम जानते हैं जिन्हें अल्लाह और उसके
रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हराम करार दिया है और ना ही दीने हक़ इख्तियार करते
हैं, यहाँ तक कि वह ताबे
व मग्लुब हो कर खिराज अदा करें।“
शैख़ मोहम्मद अल गज्ज़ाली, “अल तफ़सीर अल मौजुई” [The International Institute of Islamic Thought, दुसरा प्रकाशन, २००५]
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परिशिष्ट ६
उपरोक्त अमन पसंदाना नजरिया, तथापि, ग़ालिब नज़रिया नहीं रहा है और ना ही इसका बहुत असर व रसूख है। शायद बीसवीं शताब्दी के मज़हबी माहीरीन में सबसे अधिक असर व रसूख, शिया रूहानी और इरान के इंकलाबी रहनुमा, आयतुल्लाह रूहुल्लाह खुमैनी का रहा है। उनके खयालात मिस्र के सैयद क़ुतुब और भारत के मौलाना मौदूदी (जो बाद में पाकिस्तान मुन्तकिल हो गए थे) जैसे सुन्नी सलफी मज़हबी माहेरीन के नजरिया से भिन्न नहीं हैं।
इमाम खुमैनी फरमाते हैं:
इस्लाम का जिहाद बुत परस्ती, जिंसी बेराह रवी, लूट मार, जब्र और ज़ुल्म के खिलाफ संघर्ष है। [गैर इस्लामी]
विजेता के माध्यम से शुरू की जाने वाली जंग का उद्देश्य होस और जानवरों की लज्ज़तों
को बढ़ावा देना है। अगर पुरे देशों का सफाया हो जाए और बहुत से खानदान बेघर हो जाएं
तो भी उन्हें इसकी परवाह नहीं। लेकिन जो लोग जिहाद का अध्ययन करेंगे वह समझ जाएंगे
कि इस्लाम क्यों पुरी दुनिया को फतह करना चाहता है। इस्लाम के जरिये फतह या भविष्य
में फतह पाने वाले तमाम देशों को हमेशा की निजात के लिए निशान ज़द किया जाएगा। क्योंकि
वह [खुदा के कानून] के तहत ज़िन्दगी गुजारेंगे।...
जो लोग इस्लाम के बारे में कुछ नहीं जानते वह यह दिखावा करते
हैं कि इस्लाम जंग के खिलाफ मशवरा देता है। वह [जो यह कहते हैं] बेवकूफ हैं। इस्लाम
कहता है: तमाम काफिरों को उसी तरह मार डालो जैसे वह आप सब को कत्ल कर दें! क्या इसका
मतलब यह है कि मुसलमान उस वक्त तक पीछे बैठे रहेंगे जब तक कि वह [काफिरों] के हाथों
भस्म ना हो जाएं? इस्लाम कहता है: [गैर मुस्लिमों] को मार डालो, उन्हें तलवार की ज़द में लाओ और [उनकी फौजों को]
बिखेर दो। क्या इसका मतलब यह है कि जब तक [गैर मुस्लिम] हम पर काबू नहीं पाते बैठे
रहेंगे? इस्लाम कहता है: अल्लाह
के लिए उनको मार डालो जो आप को कत्ल करना चाहते हैं। क्या इसका मतलब यह है कि हमें
[दुश्मन के सामने] हथियार डालना चाहिए?? इस्लाम कहता है: जो कुछ अच्छाई है वह तलवार की बदौलत
है और तलवार के साए में ही है! लोगों को तलवार के सिवा फ़रमाँबरदार नहीं बनाया जा सकता!
तलवार जन्नत की कुंजी है, जिसे केवल मुकद्दस लड़ाकों के लिए ही खोला जा सकता है!
सैंकड़ों दुसरे [कुरआनी] ज़बूर और हदीसों [नबी के अकवाल] में मुसलमानों
को जंग की कद्र और लड़ने की ताकीद की गई है। क्या इस सबका मतलब यह है कि इस्लाम एक ऐसा
मज़हब है जो मर्दों को जंग लड़ने से रोकता है? मैं उन बेवकूफ जानों पर थूकता हूँ जो ऐसा दावा करते
हैं।
(माखूज़ अज “एंटी टेररिज्म एंड
दी मीडिल ईस्ट” (स्रोत दस्तावेजात और अहम अस्करियत पसंद इस्लामी
शख्सियात के बयानात का मजमुआ)। आयतुल्लाह रूहुल्लाह खुमैनी मरहूम ने इस सवाल के जवाब
में कहा “क्या इस्लाम अमन का
मज़हब है?)
परिशिष्ट ७
उपरोक्त सूफी नज़रियात के माहेरीन की लेखनी का तुलनात्मक अध्ययन
करने के लिए निम्नलिखित सलफी नज़रियात के हामेलीन उलेमा की लेखनी से कुछ अंश देखें:
इमाम इब्ने तैमिया (१२६३ से १३२८) एक हम्बली फकीह और आलिमे दीन
हैं जिन्हें वहाबी सलफी मुसलमानों के बीच बहुत अधिक सम्मान की नज़र से देखा जाता है, और हाल ही में सऊदी
हुकूमत की तरफ से जिनके मज़हबी सिद्धांतों और नज़रियात की तबलीग व इशाअत की वजह से उनके
असर व रसूख में काफी इजाफा हुआ है, वह लिखते हैं:
“चूँकि जायज़ जंग बुनियादी
तौर पर जिहाद है और इसका उद्देश्य यह है कि दीन केवल अल्लाह का ही है, और खुदा का कलाम सब
पर बरतर व बाला है, इसी वजह से तमाम मुसलमानों के मुताबिक़ जो कोई भी इस मकसद के
प्राप्ति में रुकावटें पैदा करे इससे मुकाबला किया जाना आवश्यक है......और जहां तक
अहले किताब और आतिश परस्तों की बात है तो उनके साथ जंग की जाएगी यहाँ तक कि वह मुसलमान
हो जाएं या जज़िया अदा करने के लिए राज़ी हो जाएं। और उनके अलावा के बारे में फुकहा के
दरमियान उनसे जज़िया लेने के जवाज़ पर मतभेद है। उनमें से अधिकतर इसके अदमे जवाज़ के कायल
हैं....”
(रोड वुल्फपीटर्स, क्लासिकी और जदीद
इस्लाम में जिहाद (प्रिंट्स, NJ:- मार्क्स वेज़, १९९६), पृष्ठ ४४-५४)
एक भारतीय इस्लामी दीन के आलिम और हनफी फकीह शैख़ अहमद सर हिंदी
(१५६४-१६२४) जिन्हें मुजद्दिद अल्फ सानी, अर्थात दूसरी इस्लामी शताब्दी के मुजद्दिद के नाम
से भी जाना जाता है, लिखते हैं:
१- “......भारत में गाय की कुर्बानी अज़ीम तरीन इस्लामी मामूलात में से
एक है।“
२- “कुफ्र और इस्लाम एक दुसरे के उलट हैं। एक की तरक्की दुसरे के
खात्मे से ही संभव है, और इन दो विलोम अकीदों के बीच सहअस्तित्व अकल्पनीय है।
३- “इस्लाम की इज्ज़त कुफ्र और काफिरों की तौहीन में निहित है। जो
काफिरों का सम्मान करता है वह मुसलमानों की तौहीन करता है।“
४- “उन पर जज़िया लगाने का वास्तविक मिसदाक इस हद तक उनको नीचा दिखाना
है कि वह जज़िया के खौफ की वजह से ना तो अच्छे पोशाक पहनें और ना ही शान व शौकत की ज़िन्दगी
गुज़ारने के काबिल हों। उन्हें हमेशा मुसलमानों के खौफ से लरज़ा बर अंदाम रहना चाहिए।
५- “जब भी कोई यहूदी हालाक किया जाता है तो इसमें इस्लाम का लाभ
है।“
(Muslim Revivalist Movements in Northern India in the Sixteenth and
Seventeenth Centuries) अनुवाद: सोलहवीं और
सत्रहवीं शताब्दी में उत्तर भारत में मुस्लिम तज्दीदी तहरिकें, लेखक, सैयद अतहर अब्बास
रिज़वी, (आगरा, लखनऊ, आगरा यूनिवर्सिटी, बाल कृष्णा किताब
कंपनी, १९६५), सहिफा२४७-५० और योहाना
फ्रड मैन, [Shaykh Ahmad Sirhindi: An Outline of His
Thought and a Study of His Image in the Eyes of Posterity] (मोंटेरियाल, क्यूबेक: मेक गिल यूनिवर्सिटी, इंस्टिट्यूट ऑफ़ इस्लामिक
स्टडीज़, १९७१) पृष्ठ ७३-७४)
भारत के सबसे महान आलिमे दीन, मुहद्दिस और फकीह शाह वलीउल्लाह देहलवी (१७०३-१७६२)
फरमाते हैं:
“दुसरे सभी धर्मों
पर इस्लाम को ग़ालिब करना नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की जिम्मेदारी है, चाहे इस मज़हब को रज़ा
काराना तौर पर कुबूल कर लें या ज़िल्लत व रुसवाई के बाद इसे स्वीकार करें। इस तरह लोगों
को तीन गिरोहों में बांटा जाएगा।
“(ज़लील काफिर), जिनसे बोझ ढोने, खेती करने जैसे वह तुक्ष काम करवाए जाएंगे जिनके लिए जानवरों
को इस्तेमाल किया जाता है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भी काफिरों पर
ज़िल्लत व रुसवाई का कानून लागू किया है और उन पर गलबा हासिल करने और उनकी तौहीन करने
के लिए उन पर जज़िया लागू किया है.........आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन्हें किसास, दीयत (खून बहा), शादी और सरकारी इंतेजामिया
के मामले में मुसलमानों के बराबर नहीं शुमार किया है, ताकि वह अंत में मजबूर हो कर इस्लाम स्वीकार कर
लें।“ (हुज्जतुल बालिगा, जिल्द १, बाब ६९, पेज नम्बर, २८९)
मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब, (१७०३ से २२ जून १७९२),
सऊदी अरब के वहाबी सलफी फिरका
के संस्थापक:
“अगर फरज़न्दाने तौहीद
(मुसलमान) शिर्क से भी गुरेज़ करें, तब भी उनका ईमान उस वक्त तक कामिल नहीं हो सकता जब तक कि वह
अपने कौल व अमल के जरिये गैर मुस्लिमों के लिए नफरत और दुश्मनी का इज़हार ना करें।“ (मजमुअतुर्रसाइल वल मसाइलुल नज्दिया, ४/२९१)
अबुल आला मौदूदी (२५ सितंबर १९०३ से २२ दिसंबर १९७९)म जमाते
इस्लामी के संस्थापक, लिखते हैं:
“इस्लाम रुए ज़मीन पर उन तमाम रियासतों और हुकूमतों को तबाह
करना चाहता है जो इस्लामी नज़रियात और मंसूबों की मुखालिफत करते हैं, उस देश या कौम से
कता नज़र जो उन पर हुकमरानी करती है। इस्लाम का मकसद अपने नज़रियात और मंसूबों पर आधारित
एक रियासत कायम करना है, इस बात से परे कि कौन सा देश इस्लाम के मेयारी किरदार का हामिल
है या किस देश की हुकमरानी नजरियाती तौर पर इस्लामी रियासत के कयाम के अमल में कमज़ोर
है। इस्लाम केवल एक हिस्सा नहीं बल्की पुरी धरती का मुतालबा करता है-----पुरी इंसानियत
को इस्लामी नजरिया और उसके फलाह व बहबूद के मंसूबों से लाभ प्राप्त करना चाहिए------इस
मकसद के प्राप्ति में इस्लाम उन तमाम ताकतों के इस्तेमाल का मुत्मन्नी है जो एक इंक़लाब
पैदा कर सकें। इन तमाम ताकतों को इस्तेमाल करने के लिए एक व्यापक इस्तेलाह ‘जिहाद’ है----इस्लामी ‘जिहाद’ का उद्देश्य गैर इस्लामी
निजामे हुकूमत को समाप्त करना और इसके बजाए एक इस्लामी निज़ाम कायम करना है।“ (मौदूदी, अल जिहाद फिल इस्लाम)
हैदराबादी आलिम मौलाना अब्दुल अलीम इस्लामी अपनी किताब “ताकत का इस्तेमाल:
कुरआन की रौशनी में” में अंधाधुन्द हिंसा का जवाज़ पेश करते हैं। मैं यहाँ कुछ अंश
पाठकों के लिए पेश करूँगा उन मौलाना की किताब से जो लड़कियों का हैदराबाद में एक मदरसा
चलाते हैं और इंडियन मुजाहेदीन को हौसला प्रदान करने के लिए जाते हैं:
“अनुवाद: जान लो बेशक
कुफ्फार से जिहाद उनके मुल्कों में फ़र्जे किफाया है उलेमा के इत्तेफाक से........”
“........मैं पुरे यकीन और वसूक से कहता हूँ कि बफर्ज़े अला कलिमतु क़िताल
को ना कहीं एतेदा और उडवान कहा गया है और ना इससे मना किया गया है इसके विपरीत एअलाए
कलिमतुल्लाह के लिए जिहाद व क़िताल का ना केवल आदेश दिया गया है बल्की इसके लिए तरगीब
और तखरीस और बेशतर किताब व सुन्नत में एक ऐसी आम बात है जो निरक्षर मुसलमान भी जानता
है लेकिन इस दौर के बुद्धिजीवी इसको झुटलाने पर तुले हुए हैं।“
“जिस तरह इस्लाम कुबूल
करने की दावत देना वाजिब और फर्ज़ है उसी तरह बातिल दीन पर इस्लाम को ग़ालिब करने और
अहले कुफ्र व शिर्क को मातहत और ज़ेरे नगीं बनाने का संघर्ष करना भी फर्ज़ है। अल्लाह
पाक ने जो ज़िम्मेदारी शहादते हक़ और इजहारे दीन के उन्वान से मुसलमानों पर डाली है वह
केवल वाज़ व नसीहत और दावत व तबलीग से अदा होने वाली नहीं है वरना गज्वात व सराया की
जरूरत पेश नहीं आती।“
“दीन को ग़ालिब करने
और बुराइयों के स्रोत को बंद करने के लिए जिहाद फर्ज़ किया गया है इसी काम की अहमियत
के पेशे नज़र जिहाद फी सबीलिल्लाह के फज़ाइल कुरआन और हदीसों में बताए गए। और इसी लिए
तमाम कुफ्फार से जंग करने का हुक्म साफ़ और सरीह शब्दों में दिया गया है।“ कुरआन पाक में है
“तुम सब मिल कर मुशरेकीन
से जंग करो वह सब मिल कर तुम से जंग करते हैं।“ (सुरह तौबा: ९:३६)
(माखूज़ अज: मौलाना अब्दुल अलीम इस्लाही की किताब “ताकत का इस्तेमाल कुरआन की रौशनी में)
मौलाना वहीदुद्दीन खान (पैदाइश: १ जनवरी, १९२५), अमन व सहिष्णुता के
प्रचारक, लिखते हैं:
“हज़ारों बरस की पैगम्बराना
कोशिश साबित कर चुकी थी कि मुजर्रद फिकरी और दावती संघर्ष इंसान को अंधविश्वास के उस
दौर से निकालने के लिए अपर्याप्त है। उस दौर की हुकूमतें भी उन्हीं अंधविश्वासी अकीदों
(शिर्क और कुफ्र) के आधार पर कायम होती थीं। इसलिए हुक्मरानों का मुफाद इस में था कि
अंधविश्वासी दौर दुनिया में बाकी रहे। ताकि जनता के उपर उनकी बादशाही का हक़ मुश्तबा
ना होने पाए। इसलिए वह अपनी फौजी और सियासी ताकत को हर उस दावत के खिलाफ भरपूर तौर
पर इस्तेमाल करते थे जो शिर्क और अंधविश्वास को समाप्त करने के लिए उठी हो। अब सवाल
यह था कि किया क्या जाए। यही वह समय है जब कि छटी शताब्दी इसवी में आखरी पैगम्बर सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम का ज़हूर हुआ। अल्लाह पाक ने अपने विशेष फैसले के तहत आपको “दाई” बनाने के साथ “माही” भी बनाया। अर्थात
आप के जिम्मे यह मिशन सुपुर्द हुआ कि आप ना केवल इस अंधविश्वासी निज़ाम के बातिल होने
का एलान करें बल्कि इसको हमेशा के लिए खत्म करने की खातिर इसके खिलाफ फौजी कार्रवाही
(मिलिट्री ऑपरेशन) भी फरमाएं। इंसानों को अँधेरे से निकाल कर रौशनी में लाने का यही
काम तमाम पैगम्बरों के हवाले हुआ था। तथापि इस्लाम के पैगम्बर की एक विशेषता यह है
कि आपके लिए अल्लाह पाक ने फैसला किया कि आप केवल संदेश पहुंचा कर इंसानियत को उसके
हाल पर ना छोड़ दें बल्कि इकदाम करके उनकी हालत को अमलन बदल डालें। इस अमली इकदाम को
कामयाब बनाने के लिए जो जरूरी असबाब दरकार थे, वह सब अल्लाह ने आपके लिए उपलब्ध कराए। और यह जमानत
भी दे दी कि दुनयवी असबाब की हर कमी फरिश्तों की खुसूसी मदद से पुरी की जाएगी। यह बात
हदीस में विभिन्न अंदाज़ से बयान हुई है। एक हदीस के अलफ़ाज़ यह हैं: وانا الماحی الذی یمحو اللہ تعالی بی الکفر (अर्थात
मैं मिटाने वाला हूँ जिसके जरिये से अल्लाह पाक कुफ्र को मिटाएगा) गोया पैगम्बरे इस्लाम
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम केवल दाई नहीं थे। इसके साथ वह माही भी थे। कुरआन में बताया
गया है कि पैगम्बर के मिशन की तकमील के लिए नेक इंसानों के अलावा अल्लाह और फरिश्ते
तक इसके मददगार हैं। ऐसा इसलिए हुआ कि अल्लाह पाक को जो नया दौर ज़हूर में लाना था, उसका ज़हूर हो सके।
(माखूज़ अज,मौलाना वहीदुद्दीन
खान: इस्लाम दौरे जदीद का ख़ालिक प्रकाशन: २००३)
पोस्ट स्क्रिप्ट
यह सितम जरीफी है कि मुसलमानों के बीच अमन व भाईचारगी का प्रचार
करने वाले मौलाना वहीदुद्दीन खान को इस्लामी थियोलोजी की बुनियाद पर कहना पड़ता है कि
नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का अमल दुनिया से कुफ्र व शिर्क का खात्मा करना था यहाँ
तक कि इसके लिए उन्हें फ़ौजी जराए भी इस्तेमाल करना पड़ा। अगर यह ऐसा ही है तो क्या चीज
इस ज़माने के बिन लादेन और बगदादियों के हामियों को रोकेगी जिनका दावा है कि वह नबी
पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का अपूर्ण मिशन पूर्ण करने में लगे हैं।
उपरोक्त तमाम हवालों का तुलनात्मक विश्लेषण इस बात को स्पष्ट
करेगा कि शिया, सुन्नी, सलफी, सूफी, देवबंदी, वहाबी, अहले हदीस, इख्वानुल मुस्लिमून
या जमाते इस्लामी के नज़रियात में कोई फर्क नहीं है।
इन तमाम खुत्बों से यह संदेश स्पष्ट है कि इस्लाम को दुनिया
पर गलबा हासिल करना आवश्यक है और हर मुसलमान की जिम्मेदारी है कि उसमें वह हर संभव
सहायता पेश करे। जब एक मुसलमान बालिग़ होता है तो उसे इस्लाम सुपर मैसिज्म का यही संदेश
मिलता है। इस्लामी थियोलौजी पर सब से अधिक प्रमाणिक पुस्तकों में ताज़ा तरीन पुस्तक
मौसूआ फकीह है जो ४५ जिल्दों पर आधारित है। यह किताब औकाफ़ व इस्लामी उमूर, कुवैत के मंत्रालय
की तरफ से मसरूफ किये गए तमाम मज़ाहिबे इस्लाम के उलेमा के जरिये लगभग अर्ध शताब्दी
के समय में तैयार किया गया था। इस किताब के उर्दू अनुवाद का उद्घाटन २३ अक्टूबर २००९
को पूर्व उपराष्ट्रपती हामिद अंसारी के हाथों दिल्ली में हुआ था।
इस्लामी थियोलोजी के सबसे अधिक प्रभावी इस किताब में २३ हज़ार
शब्दों पर आधारित जिहाद के विषय पर एक अद्ध्याय कायम किया गया है। हम उदारवादी मुसलमान
और सूफी हज़रात इस विषय पर बात करते रहते हैं कि जिहाद बिल नफ्स जिहादे अकबर है और जिहाद
बिल क़िताल जिहादे असगर है। मगर किताब के शुरू में केवल एक जुमले के सिवा पूरा बाब दुश्मनों
अर्थात काफिरों, मुशरिकों और मुर्तदों को कत्ल करने और उनसे लड़ने के संबंधित विषयों पर है। इसकी
शुरुआत होती है इस गंभीर एलान के साथ कि “जिहाद का मतलब दुश्मनों के खिलाफ क़िताल करना है।“ इस किताब में हकीकी
जिहाद या जिहादे अकबर का कोई उल्लेख नहीं है।
फिर इब्ने तैमिया के एक कौल का हवाला पेश किया गया है कि “.....इस तरह से जिहाद मुस्लिम
पर, उसकी सलाहियत व कुदरत
के अनुसार, वाजिब है”। फिर आखरी और हतमी तारीफ़ पेश की जाती है:” इस्तिलाह में जिहाद का मतलब है किसी ऐसे गैर ज़िम्मी
काफिर के खिलाफ क़िताल करना जो इस्लाम की दावत का इनकार कर देता है ताकि अल्लाह पाक
के कलेमात को बुलंद और कायम किया जा सके।“ (अरबी से अनुवाद)
किसी ज़हीन, शिक्षित मुसलमान के लिए हमारी मुनाफिकत को दरियाफ्त करना मुश्किल
नहीं है। हम उदारवादी मुसलमान जिन अतिवादी शिक्षा की स्पष्ट तौर पर निंदा करते हैं
वह हकीकत में मौजूदा इस्लामी नज़रियात जिन्हें इस्लाम के तमाम मकातिबे फ़िक्र और मज़ाहिब
की इज्माई ताईद हासिल है से अलग नहीं है।
मरहूम उसामा बिन लादेन या उसके नजरियाती सरपरस्त अब्दुल्लाह
यूसुफ अज्जाम जिन्हें अब आलमी जिहाद
का संस्थापक कहा जाता है और उसके मौजूदा जानशीन अबुबकर बगदादी ने किसी नई थियोलोजी
का इजाद नहीं किया था। उनके मुत्तफेका नज़रियात का इस्तेमाल ही उनकी अज़ीम कामयाबी का
कारण है कि वह हज़ारों मुस्लिम नौजवानों को कुछ लम्हे में अपनी तरफ आकर्षित कर लेते
हैं। वह लोग अधिक से अधिक नौजवानों को अपनी तरफ आकर्षित करते रहेंगे जब तक कि हम मरकज़ी
धारे के मुसलमान अपनी मुनाफिकत का एहसास और अपनी राह परिवर्तित ना कर लें।
सूफी मज़हबी विशेषज्ञ ख़ास तौर पर वह जिन्हें इकीस्वीं शताब्दी
में इस्लाम की उम्मीद का एक वसीला के तौर पर देखा जा रहा है, अपने अपने नज़रियात
में देखें और बालादस्ती और सियासी इस्लाम के ऐसे तत्वों को ख़त्म करें जो अब भी मौजूद
हैं। इस्लाम को निजात के रूहानी रास्तों में से एक रास्ते के तौर पर पेश किया जाए और
बताया जाए कि इस्लाम ऐसा दीन नहीं जिसका संबंध विशेष सियासी और मुतलकुल अनान नजरिये
से हो जो इस्लाम को गलबा और दुनिया पर हुकमरानी के लिए डिज़ाइन किया गया है। इस्लामी
सहीफों में बहुत सी बातें हैं जो दुसरे मज़ाहिब के साथ अधिकता और सह अस्तित्व की हिमायत
करती हैं, हालांकि ऐसी बहुत
से चीजें भी हैं जो वैकल्पिक और राजनीतिक वर्चस्व का समर्थन करती हैं।
पहले के मज़हबी विशेषज्ञ अपने ज़माने के चुनौतियों का मुकाबला
करने के लिए अपने अपने दौर में पाए जाने वाले सामाजिक व राजनीतिक हालात के आधार पर
अपने दलील तैयार करते थे। इकीस्वीं शताब्दी के मज़हबी विशेषज्ञ को सैद्धांतिक तौर पर
उनकी पैरवी करने और अपने दौर की तकाज़ों की बुनियाद पर अपने दलीलों और सहीफों की ऐसी
तौजीह पेश करने से कोई इनकार नहीं जो आतंकवाद और लैंगिक अन्याय जैसे चुनौतियों का मुकाबला
कर सके।
मुझे हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की एक मारुफ़ हदीस
के साथ अपनी बात पुरी करने दिया जाए, जिसकी सेहत पर तीसरी शताब्दी हिजरी या दसवीं शताब्दी
ईसवी के कई मुहद्देसीन मुत्तफिक हैं। सह अस्तित्व, सहिष्णुता और एक खुदा वह्दहू ला शरीक के जरिये कायम
किये हुए दुसरे मज़ाहिब की कुबूलियत के ताल्लुक से जो कौल नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि
वसल्लम ने अपनी हदीस में इरशाद फरमाया है, आइये हम सब इस बात पर थोड़ा समय गुजारें और गौर व
फ़िक्र करें:
नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया: मेरी और
तमाम अम्बिया की मिसाल उस शख्स की तरह है जिसने एक उम्दा और खुबसूरत इमारत बनाई और
लोग उसके आस पास चक्कर लगा कर कहने लगे: हमने इससे बेहतर इमारत नहीं देखी मगर यह एक
इंट (की जगह खाली है जो खटक रही है) तो मैं (उस इमारत की) वह (आखरी) इंट हूँ। (मुस्लिम, पृष्ठ ९६५, हदीस: ५९५९, बुखारी, मुसनद अहमद बिन हम्बल, तिरमिज़ी, मुसनद अबू दाउद)।
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