मुहम्मद तनवीर शुएबी
उर्दू से अनुवाद, न्यू एज इस्लाम
16 अक्टूबर 2020
जीवन एक अज़ीम नेअमत और एक अज़ीम अमानत है, धन्य हैं वे जो इसे महत्व देते हैं और इसकी रक्षा करते हैं और इसे अल्लाह की इबादत के लिए समर्पित करते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से आज हमारे समाज में और विशेष रूप से हमारे मुस्लिम समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो जीवन का वास्तविक उद्देश्य और दुनिया में भेजे जाने की जिम्मेदारियां जिन्हें वे भूल गए हैं, और जीवन का स्तर उनकी दृष्टि से गायब हो गया है। उन्हें यह शायद याद ही नहीं कि जीवन एक ऐसी कीमती दौलत है जो उन्हें बिन मांगे मिली है और खुशी यह है कि यह ईमान और इस्लाम के धन के साथ संयुक्त है। यह शरीर और आत्मा वास्तव में पहली अमानत है जो हमें हमारे खुदा ने दिया है। इस दुनिया में इस शरीर से ज्यादा कुछ भी नहीं है जो अल्लाह ने हमें दिया है। फिर अल्लाह की यह धरती और इस पूरे ब्रह्मांड और उस पर होने वाली शक्तियां सभी अमानत हैं और फिर मानवीय संबंध बल्कि अल्लाह के सारे जीवों के साथ संबंध भी अमानतें ही अमानतें हैं और भरोसा और अमानतदारी ही पर इस संसार सारा का सारा निज़ाम खड़ा है। इसलिए कहा जाता है, "जान है तो जहांन है।" सचमुच, कितना दुर्भाग्यपूर्ण और कितना कृतघ्न, कितना गैरजिम्मेदार और कैसे विश्वासघाती हैं वह लोग जो शराब और तरह-तरह के नशीले पदार्थ से अपने स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाते हैं और अपनी लापरवाही से अपने शरीर को ख़राब कर लेते हैं, इतना ही नहीं वे अपने हाथों से अपना जीवन समाप्त कर लेते हैं।
आत्महत्या अर्थात अपने आप को स्वयं मार डालना देखने में एक कार्य लगता है, लेकिन वास्तव में यह एक ख़ुफ़िया सुनियोजित और कभी कभी खुलेआम आपातकालीन प्रतिक्रिया होता है और इतना डरावना है कि अगर यह असफल भी हो जाए तो अपने प्रभाव से जिंदा दरगोर, अपंग, विकलांग और रोगी और खानदान, पड़ोस और समाज में हमेशा के लिए बदनाम, बेएतबार और अपमानित बना कर रख देता है। आत्महत्या के प्रयास से बच जाने वालों या बचाए जाने वालों को समाज कभी क्षमा नहीं करता, मासूम व मज़लूम नहीं समझता बल्कि हमेशा ही शक और संदेह की निगाह से देखता है और उनसे उसी तरह होशियार रहता और दूर भागता है, जिस तरह किसी अत्याचारी, हत्यारे, वहशी और जुनूनी व्यक्ति से पनाह माँगता है। आत्महत्या का प्रतिबद्ध करने वाले लोग निश्चित रूप से हराम मौत को गले लगाने वाले लोग हैं जिस पर न केवल यह कि कुरआन व हदीस में सख्त वईद आई है बल्कि वैश्विक कानून में भी इसे बदतरीन अपराध कहा गया है। कुरआन पाक का साफ़ आदेश व एलान है कि “अपनी जानें क़त्ल न करो, बेशक अल्लाह तुम पर मेहरबान है और जो ज़ुल्म व ज़्यादती से ऐसा करेगा तो जल्द ही हम उसे आग में दाखिल करेंगे और यह अल्लाह को आसान है।“ इस अल्लाह के इरशाद से आत्महत्या का आखिरत का अंजाम भी पता चला और परोक्ष रूप से यह भी पता चला कि अल्लाह की रहमत का विश्वास और उसके गुस्से पर भरोसे का उठ जाना ही इस बदतरीन गुनाह का कारण होता है। एक और स्थान पर फरमाया गया है ‘और अपने हाथों हलाकत में मत पड़ो।‘
इस्लाम में केवल ऐसा नहीं है कि हराम मौत से मना किया गया और इस पर जहन्नम की वईद सुनाई गई है बल्कि मौत की दुआ मांगने अर्थात ऐसा कदम उठाने में अल्लाह से मदद तलब करने की भी मनाही की गई है। जीवन जब्र नहीं अल्लाह की अता है और हमें उससे इस अता को वापस ले लेने की इल्तिजा का हक़ भी नहीं मिला है तो फिर ज़ाहिर है कि जीवन के मामले में एक व्यक्ति को अपने फैसले खुद करने का हक़ क्यों मिल सकता है। बेशक मौत का हक़ अपने हाथ में लेना और मौत को जिंदगी पर तरजीह देना बदतरीन इंसानी और इस्लामी अपराध है। आत्महत्या का रुझान हर आयु और हर वर्ग और हर समाज में कम या अधिक मिल जाता है। बल्कि विशेषज्ञों के अनुसार पन्द्रह से चौबीस साल की आयु या पैंतालीस साल से उपर की उम्र वाले अधिक आत्महत्या करते हैं। पुरुषों के यहाँ यह प्रयास कम, मगर मौत अधिक और औरतों में यह प्रयास अधिक और मौत कम होती है, तलाक शुदा, अकेले जीवन व्यतीत करने वाली और दूसरों का ध्यान लेने के लिए जज़्बाती औरतें अक्सर ऐसा कदम उठाती हैं। मानसिक तौर पर कमज़ोर, शारीरिक तौर पर अपंग, मायूसी, महरूमी और लगातार असफलता व नामुरादी के शिकार और नकारात्मक सोच रखने वाले लोग आम तौर पर आत्महत्या के अधिक करने वाले होते हैं। विश्लेषकों ने अत्यधिक हार के एहसास, सख्त पछतावे, अपनी मौत से मसले के हल पर एतेमाद जैसी बातों को भी आत्महत्या की नफ्सियाती वजह बताया है और कहा है कि उदासी की बीमारी, जूनून अर्थात सैकरोफिजिया का रोग, मोहब्बत में असफलता, ऐसी बीमारी में मुब्तिला होना जिसका कोई इलाज न हो, नशाखोरी, समाजी बाईकाट का सामना, इज्जत पर हमला, झुटा आरोप, नौकरी से हटाया जाना, दूसरों के सामने अपमान, कठिन वैवाहिक जीवन, परीक्षा में असफलता या असफलता का डर या किसी प्रकार के खेल या मुकाबले में हारने या हार जाने का डर, और गहरी मानसिक कशमकश भी आत्महत्या के कारण में शामिल है। इसी तरह जज्बातियत, घबराहट, उदासी व बे चेहरगी, बर्दाश्त के माद्दे का अभाव, बुज़दिली, कम हिम्मती, घरेलू उलझन, शादी में देरी या बे जोड़ शादी, बीवी या किसी और की ख़ास बेवफाई, बेहद अपमानजनक, समाज के लान तान और बदनामी का खौफ, लगातार ग़ुरबत व इफ़्लास, फाका कशी, गुस्सा, जिद, हटधर्मी, खुद को तकलीफ देने का रुझान, उंचा होने की चाहत या फ़र्ज़ किये गए भविष्य के प्राप्ति में असफलता, बेकारी व बेरोज़गारी और आज के दौर में इंटरनेट, मोबाइल और बहुत सारे गलत किस्म के टीवी सीरियल देखते रहना और नए आयु के लड़के और लड़कियों का इससे प्रभावित होना इसकी नकल उतारना भी आत्महत्या तक पहुंचाता है।
यह सब कुछ अपनी जगह, लेकिन प्रश्न यह है कि आज के समाज में आत्महत्या की वारदातों में जो इज़ाफा देखा जा रहा है, आए दिन जिस तरह आत्महत्या की ख़बरें पढ़ने और सुनने को मिल रही हैं, उसका सैद्धांतिक और एहतियाती हल क्या हो सकता है और इस मामले में इस्लामी शिक्षाओं से किस तरह रहनुमाई मिल सकती है? इसका जवाब यह है कि आखिरत के अज़ाब का खौफ, अमानत में खयानत का एहसास, मां-बाप की इताअत का जज्बा, ईमान की मजबूती, सब्र व शुक्र और बर्दाश्त का माद्दा, तदबीर के साथ तकदीर पर भरोसा, तवक्कुल व किनाअत पसंदी, राज़ी ब रज़ा रहने की सिफत, ज़िक्रे इलाही से ज़हनी आसूदगी और सुकून का हुसूल, कुदरती मनाज़िर से रगबत, हिर्स व होस से दूरी, अल्लाह की रज्ज़ाकी और उसके वादों पर भरोसा, हलाल व हराम की तमीज़ हमें इस बदतरीन गुनाह का करने वाला होने से निश्चित रूप से बचाए रख सकती है। आत्महत्या के कथित कारण उद्देश्य बता रहे हैं कि इस्लाम में इनके बाधा की राहें खुली हैं, जैसे यहाँ एह्तिसाबे ज़ात, एह्तिसाबे अमल और एह्तिसाबे ताकत पर जोर दिया गया है। गुस्से को हराम, जल्दबाज़ी को शैतान का काम बताया गया और तलाक को मकरूह तरीन काम कहा गया है और झूट, शराब और किसी भी तरह के नशे बाज़ी से बचने की शिक्षा दी गई है साथ ही साथ अहलो अयाल और नौकरों के अधिकार अदा करने, इफ़्लास से पनाह मांगने, मेहनत से कमाने की हिदायत और हस्बे जरूरत ‘अज़ल’ से काम लेने अर्थात औरत, विशेषतः पत्नी की सेहत का ख्याल रखने और उसके लिए अपनी ख्वाहिश में एहतियात बरतने के अहकामात मौजूद हैं, युवाओं को समय पर निकाह की रगबत दिलाई गई है, बेवाओं की निकाह का सवाब बताया गया है, तलाक शुदा औरतों के लिए दुसरे निकाह की राह खुली राखी गई है और नौजवानी की इबादत को बेहतरीन कहा गया है। नमाज़ व सब्र से मदद की तलकीन की गई है और तौबा व एह्तिसाबे नफ्स की शिक्षा दी गई है जो निश्चित रूप से आत्महत्या के समस्या का हल दिखाती है। धार्मिक अहकामात व हिदायात के दायरे और फायदे अपनी जगह, मगर उनका असर बहर सूरत उन पर व्यक्तिगत और सामूहिक अमल से ही ज़ाहिर हो सकता है। इसलिए इस संदर्भ में यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस्लामी नेहज पर अफराद की तरबियत, उनकी ज़हन साज़ी, उनकी आदतों पर नजर रखना और समाज की खुद साख्ता बुराइयों का अंत, हमारी वह जिम्मेदारी है जिसे पूरा किये बिना आत्महत्या के बढ़ते रुझान को कम करने की केवल बातें और तमन्नाएं की जा सकती हैं, उनका फल नहीं देखा जा सकता।
Urdu Article: Suicide: The Worst Sin, the Worst Crime خودکشی: بدترین گناہ، بدترین
جرم
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