गौस सिवानी
7 मार्च, 2016
जहां एक तरफ आज का आधुनिक समाज यह तय कर पाया है कि मानवाधिकार हैं क्या? मानवाधिकार की परिभाषा क्या है? और इन्हें किन सिद्धांतों के तहत तय किया जाना चाहिए? वहीं दूसरी ओर सूफीवाद इस समस्या को सदियों पहले हल कर चुका है? सूफीयों की नज़र में यह एक मुख्य समस्या है और इसके नियम अल्लाह की तरफ से ही तय कर दिए गए हैं। उनका मानना है कि बन्दों के अधिकार- यानी इंसान पर कुछ अल्लाह के अधिकार हैं, जैसे उसके आदेशों की पाबंदी, नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात आदि। दूसरे बंदो के अधिकार हैं, जैसे माता-पिता के अधिकार अपने बच्चों पर बच्चों के अधिकार अपने माता पिता पर, रिश्तेदारों के अधिकार, पड़ोसियों के अधिकार पड़ोसियों पर और मानव अधिकार मानव पर। इसी पर बस नहीं यहाँ तो महिलाओं के अधिकार, अल्पसंख्यकों के अधिकार, कैदियों के अधिकार, शरणार्थियों के अधिकार यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों की प्रकृति भी धार्मिक और आध्यात्मिक विस्तार के साथ बयान कर दी गई है। इन अधिकारों के तहत शासकों और प्रजा के अधिकार भी बयान कर दिए गए हैं तथा पुलिस, अधिकारियों और न्यायाधीशों के दायरे को भी बता दिया गया है।
यहां न तो किसी प्रकार का कनफ्युज़न है और न तो यह संभावना है कि इस क्षेत्र में कुछ ऐसी बातें शामिल कर दी जाएं जो दायरे से बाहर हैं और न ही दाखिल बातों को हटाने की संभावना है। यहाँ मानव अधिकार का दायरा व्यापक और निषेधात्मक है। यहाँ मानव अधिकारों पर इतना अधिक जोर है कि उन्हें स्वर्ग में प्रवेश का प्रमाण माना जाता है। यही नहीं यहां तो यह भी बताया जाता है कि अल्लाह के अधिकारों का उल्लंघन अल्लाह माफ कर दे तो कर दे, मगर बंदो के अधिकार का उल्लंघन वो भी नहीं माफ करेगा जब तक कि बंदा खुद न माफ करे। यहाँ किसी के साथ भेदभाव की बात नहीं होती, सभी इंसान हैं और आदम की औलाद हैं, तो वह भाई भाई हैं और सभी के एक दूसरे पर अधिकार हैं। जिस मज़हब में जानवरों के सम्मान की बात की जाती हो और उनके साथ भी अच्छा व्यवहार करने की शिक्षा दी जाती हो, वहां मानव की गरिमा और सम्मान का क्या स्थान होगा अनुमान लगाया जा सकता है।
प्रसिद्ध विद्वान और सूफी हजरत इमाम मुहम्मद ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैहि इन अधिकारों का विशेष उल्लेख करने से पहले कुछ सामान्य बातें लिखते हैं: '' हर व्यक्ति जो दूसरों के साथ मिलकर रहता है के मेलजोल के लिए कुछ शिष्टाचार हैं और वह उसके अधिकार के अनुसार, और वह उतनी ही है जितना उसका संपर्क है, जिसकी वजह से वे परस्पर मेलजोल रखते हैं और संपर्क या तो क़ुराबत के कारण होगा और ये सबसे खास है या इस्लामी भाईचारा होगा और ये सबसे आम है। भाईचारे के अर्थ में दोस्ती और हम नशीनी शामिल है। या पड़ोसी के कारण संपर्क होगा या यात्रा के कारण या पाठशाला और शिक्षण की वजह से होगा तो यह दोस्ती होगी या भाईचारा। इन संबंधों में से प्रत्येक के कुछ स्तर हैं, क़रीबियो का अधिकार है लेकिन ज़ी रहम महरम (ऐसा करीबी रिश्तेदार जिससे विवाह हराम हो, जैसे माँ, पिता वग़ैरा) का भी अधिकार अधिक सत्यनिष्ठा और महरम का भी अधिकार है, लेकिन माता पिता का अधिकार भी अधिक सख्त है इसी तरह पड़ोसी का भी अधिकार है लेकिन मकान के नज़दीकी और दूरी की वजह से भी यह अधिकार अलग है और तुलना करते समय अंतर दिखाई देता है।
जैसे दूसरे शहरों में पड़ोसी उसी तरह होता है, जिस तरह अपने शहरों में रिश्तेदार होते हैं, क्योंकि शहर में वह पड़ोसी के अधिकार के साथ विशेष है। इसी तरह पहचान की वजह से मुसलमान का अधिकार अधिक कठोर होता है और पहचान के भी कई स्तर हैं, जिसकी पहचान देख कर होती है, इसका अधिकार सुनकर पहचान प्राप्त होने वाले के अधिकार से अधिक कठोर है। इस पहचान के बाद द्विपक्षीय मुलाकात से अधिकार और पक्का हो जाता है। '' अहयाउल उलूम, द्वितीय (उल्फत और भाईचारे का बयान, अध्याय 3) जैसा कि ऊपर के भाव से स्पष्ट है कि समाज में रहने वाले हर व्यक्ति के अन्य व्यक्तियों पर कुछ अधिकार हैं। कोई रिश्तेदार है तो अधिक है और रिश्तेदार नहीं है तो संपर्क आधारित अधिकार तय होते हैं। जिसके साथ अधिक करीबी संपर्क है उसके अधिकार भी अधिक हैं। इसी तरह जो जितना निकट पड़ोसी है उसके उतने ही अधिक अधिकार हैं। जिससे कोई संबंध नहीं इससे मानवता का संबंध है और एक समाज में रहने का संबंध है। इसलिए इस आधार पर भी सब के एक दूसरे पर अधिकार स्थापित होते हैं।
7 मार्च, 2016 सौजन्य से: रोज़नामा अखबार मशरिक़, नई दिल्ली
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