प्रखर
6 मई 2022
हमारा देश एक साथ बहुत सारी मुश्किलों का सामना कर रहा है और मेरा ख़्याल है कि मुश्किलें सभी देशों के हिस्से में होंगी ही। इनका कोई तोड़ नहीं है और न ही कोई ऐसा रास्ता है जिसपर चल कर अलग - अलग इनसे बचा जा सकता है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि जब तक किसी देश की जनता, देश की समस्याओं को अपना मान कर उनका समाधान, या समाधान में अपना हिस्सा देती रहेगी, तब तक समस्याओं का समाधान हो भी सकता है। लेकिन जब तक देश की जनता अपनी समस्याओं को देश की समस्याएँ मानकर या अपनी समस्याओं को देश की समस्याओं में मिलाकर, उनका समाधान खोजने में जुटी रहेगी, तक तक देश विनाश की ओर अग्रसर रहेगा।
बजाए इसके कि तआज्जुब होना चाहिए, अफ़सोस होता है कि अधिकतर जनता इन्हीं मायनों में देश की सेवा कर रही है और अव्वल तो ये कि सरकारी मुलाज़िम और बाबू-अफ़सर लोग इस मुहीम के अधिनायक हैं। आप अब यूँ ही देख लें कि किस तरह का खाना, पहनावा, रहन-सहन और दिखावा, ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को भा रहा है, यही नज़रिया हमारे बर्ताव का निर्णायक कारक बन गया है। इस सिद्धांत, मैं इसे 'जड़सूत्र' कहूँगा, को अंग्रेज़ी में पॉपुलिस्म (populism) और हिंदी में लोकलुभावनवाद (या फिर जनवाद) कहा जाता है। यह शब्द अब हमारी व्यावहारिक भाषा से ही विलुप्त हो गया है तो आम जनता अपने आस-पास इसे कैसे समझेगी।
अमरीकी पत्रकार और इतिहासकार, ऐन एप्पलबॉम ने 'कल्चरल चैस्म' (हिंदी में सांस्कृतिक खाई) नामक एक सिद्धांत के बारे में बताया है जिसमें वह कहती हैं कि यह 'ऐसे लोगों के बीच कभी न सुलझने वाले मतभेद होना है जो पहले अपने बीच के इस अलगाव के बारे में सचेत नहीं थे।' इस बात का ज़िक्र मई 2019 में टाइम मैगज़ीन में छपे 'आतिश तासीर' के मज़मून 'भारत का मुख्य-विभाजक' (इंडियाज़् डिवाईडर-इन-चीफ़ - India's Divider-In-Chief) में भी हुआ है जिसमें वो कहते हैं कि 2014 के मतदान में इतनी बहुमत से नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री चुने जाना इस खाई को हमारे सामने ला पटकता है, जिसे पहले किसी ने भी जाना-पहचाना नहीं था। यह खाई महज़ वाम-पंथ और दक्षिण-पंथ के बीच के फ़ासले की खाई नहीं है, बल्कि किन्हीं बहुत ही मौलिक और मूलभूत फ़ासलों की ओर इशारा करती है।
यह बहुत ही आसामान्य है कि 'पॉपुलिज़्म' (लोकलुभावनवाद) और 'कल्चरल चैस्म' (सांस्कृतिक खाई) का ज़िक्र एक मज़मून में हो, मगर यही सत्य है और भारतीय लोकतंत्र इसका एक उपयुक्त उदाहरण भी है। हर जनता का हर प्रतिनिधि लोकलुभावनवाद के ज़रिये इस सांस्कृतिक खाई को और गहरा और चौड़ा करने में लगा हुआ है। भारतीय लोकलुभावनवाद के प्रसंग में हिंदुत्ववाद ने एक देश के अंदर हज़ारों लाखों देश बना देने की आज़ादी दे दी है। यह आज़ादी किसी उत्तरदायी या ज़िम्मेदार तबके के हाथ में नहीं है, हालाँकि किसी के हाथ में तो होनी भी नहीं चाहिए, बल्कि यह आज़ादी हर उस शख़्स हर उस प्रतिनिधि के हाथ में है जो हिंदुत्ववाद का संरक्षक बनकर सामने आ जाता है। आपकी सोच, आपका चरित्र, आपके विचार इस बात का आधारभूत नहीं माने जाते हैं। यदि आप 562 रियासतों वाले और अनगिनत धर्म और संस्कृति वाले भारत देश को हिंदुत्ववाद की एक छतरी के नीचे रखने की परिकल्पना में विश्वास रखते हैं तो आप हिंदुत्ववाद के संरक्षक माने जाएँगे और आप इस आज़ादी का अपनी इच्छा अनुसार उपयोग कर सकते हैं।
और असल मायनों में तो हो भी यही रहा है, हर कोई इस आज़ादी को अपनी सोच की मान्यता मानकर अपने मन-मुताबिक़ एक ऐसे भारत के सपने को पूरा करना चाह रहा है जो सिर्फ उनकी सोच की काल-कोठरी तक ही सीमित है। इस आज़ादी के असल मायने जान लेना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि यह आज़ादी किन्हें दी गयी है, किन्हें नहीं दी गयी है और किन लोगों ने छीन ली है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने प्रबल साहस से जिस भारत को दुनिया के नक़्शे पर उभारा है, दुर्भाग्य से उस भारत से लगभग सभी भारतीय अनजान हैं। आम आदमी की वास्तविकता और प्रधानमंत्री मोदी के प्रवचनों में उभरती भारत की छवि, कहीं से कहीं तक भी मेल नहीं खाती है। हाँ मगर इस भारत की छवि उन आज़ादी के ग्राहकों की सोच से हूबहू मेल खाती है, जिन्हें यह आज़ादी दे दी गयी है या फिर जिन्होंने यह आज़ादी छीन ली है। जिनके पास यह आज़ादी नहीं है कि वह एक देश के अंदर हज़ारों-लाखों देशों की परिकल्पना तक भी कर सकें, उनकी आँखों में महज़ आसमान में बसी हुई, एक नीली आज़ादी का अक़्स है, और यह बात मुझे सुख और आशा का बोध कराती है।
लेकिन चिंता की बात यह भी है कि यह लोकलुभावनवाद सिर्फ़ राजनीति तक ही सीमित नहीं रह गया है। आपकी और हमारी ज़िंदगी के हर पहलू से जुड़ गया है। सारी संगठनाएँ, सारी ब्राण्ड, सारी कम्पनियाँ इसी के पीछे भाग रही हैं कि वे ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को अपने काम या उत्पादों से लुभा सकें। मैं आपसे इस बात की उम्मीद रखूँगा कि आप मेरी बात को समझ रहे होंगे लेकिन इस बात का मुझे पूर्णतः विश्वास है कि आप अब उसे अपने व्यवहार का हिस्सा मान रहे होंगे और सोच रहे होंगे कि अगर ऐसा नहीं तो फ़िर कैसा होता है।
आप ग़लत नहीं हैं। बल्कि, अब आप ग़लत नहीं है। आप ग़लत थे मगर अब वह आपका व्यवहार बन गया है या स्पष्ट शब्दों में कहें तो आपके व्यवहार में ढल गया है। मैं, आप, हम सब अच्छा बनना और करना चाहते हैं मगर करते वह हैं जो दूसरों की नज़र में हमारी पहचान बनाए और बनते वह हैं जो दूसरे पसंद करते हैं। यही है लोकलुभावनवाद। कुछ अच्छा करने और बनने भी चलें तो अब ख़ुद से एक लड़ाई लड़नी पड़ती है। यदि आप सजग होकर इस बारे में सोचेंगे तो इस लड़ाई में ख़ुद को निहत्था और मजबूर होता पाएँगे। आप चाहकर भी अच्छा न ही कर पाएँगे और न ही बन पाएँगे।
यह अच्छा बनने और करने के संघर्ष को मैं लड़ाई कहकर शायद ग़लत कर रहा हूँ, यह तो एक हार है जो आपको सौंप दी जाती है। 'पॉपुलिज़्म' या लोकलुभावनवाद इस चरम पर पहुँच गया है कि इससे लड़ाई लड़ना अब एक परिकल्पना मात्र ही है। रहन-सहन और खान-पान की फ़ेहरिस्त में भाषा और कला का ज़िक्र करते हुए भी मुझे संकोच हो रहा है क्योंकि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में कला और भाषा पर बहस इतनी पिछड़ गई है कि इस बदलते परिवेश में, इस लोकलुभावनवाद के परिवेश में, भाषा और कला की बात करना एकदम बेतुका-सा लगता है।
भारतीय भाषा और साहित्यिक जनचेतना में हिंदी भाषा को लेकर ही इतना मिलावटीपन और इतनी अवांछित गंदगी आ गई है कि कहीं कोई नई और अद्वितीय रचना सामने आती ही नहीं है। जिस तरह 'लोकलुभावनवाद' शब्द ही गायब हो गया है उसी तरह साहित्यिक नवीनता भी लोकलुभावनवाद की भेंट चढ़ गई है। कुछ वक़्त पहले, हिंदी के एक बहुत ही नामी-गिरामी प्रकाशन के यहाँ काम करते हुए, ये चीज़ हमारे सामने आई कि सब वही लिख रहे हैं जो या तो लिखा जा चुका है, या सरकार चाह रही है कि लिखा जाए और किताबों के नाम तो बस पूछिए मत, एक भी जो नया या अनूठा हो। किसी ने फ़ैज़ की किसी नज़्म के चार शब्द ले लिए, किसी ने ग़ालिब का मिसरा-ए-ऊला उठा लिया तो किसी ने श्रीलाल शुक्ल का 'राग दरबारी' उठाकर उसे 'राग मक्कारी' कर दिया। यह स्थिति उस साहित्यिक ख़ेमे की है जहाँ रचे-बेस लेखक अपने स्थापित वर्चस्व को बस क़ायम रखने की कोशिश में हैं, नई और उभरती हुई पीढ़ी का तो हम क्या ही कहेंगे। इस नई पीढ़ी में एक तबक़ा है जिसे साहित्यिक जनचेतना का वाहक कहा जा सकता है मगर देखिए वह कितनी दूर निकल पाता है और कितना इस लोकलुभावनवाद की गिरफ़्त से ख़ुद को बचा के रखता है।
'पॉपुलिज़्म' सभी मायनों में ग़लत भी नहीं है। तरक़्क़ी-पसंद और विकासशील होने के लिए यह कारगर भी साबित होता है। मगर यह इस बात पर तय है कि हमारी तरक़्क़ी-पसंद सोच कितनी कुशल और ज़िम्मेदार है अपने इतिहास और परंपरा को अपरंपरागत तरीक़े से आगे ले जाने में। जैसा कि मैं ऊपर भी कह चुका हूँ कि एक देश में हज़ारों-लाखों देश बनाने की आज़ादी ऐसे लोगों ने छीन ली है जो कुछ भी हो सकते हैं लेकिन कुशल और ज़िम्मेदार तो नहीं हैं।ख़ुद को ज़िम्मेदार बनाने के लड़ाई तो आप और हम लड़ ही सकते हैं। अच्छा और नया बनने और करने की जो लड़ाई है, वह जो आपको और मुझे एक हार के रूप में सौंप दी गई है, उसे एक जीत में बदलने की लड़ाई तो हम ज़रूर लड़ सकते हैं। आप इस बारे में सोचिए, हम भी सोच रहे हैं; बस सोचने भर से ही हम आधी लड़ाई जीत जाएँगे।
'पॉपुलिज़्म' (लोकलुभावनवाद) और 'कल्चरल चैस्म' (सांस्कृतिक खाई) जैसे सिद्धांतों को समझिए, और ज़रुरत पड़ने पर इनसे लड़िए भी। उन लोगों को जानिए जो ज़िम्मेदार हैं, जो एक देश में हज़ारों-लाखों देशों की आज़ादी को अम्न-चैन से सब को सौंप सकें; उन लोगों को भी जानिए जो उसे बाँट कर, देश और आज़ादी दोनों को ही खाना चाहते हैं। बस यही हमारी लड़ाई में हमारी सहायता करेगा - जानना, सोचना और समझना। अरस्तू ने कहा था - ख़ुद को जानना ही सब कुछ जानने की शुरुआत है।
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