गुलाम गौस सिद्दीकी, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
19 फरवरी 2022
कुरआन से लड़की की तथाकथित शादी की घटना एक जाबिराना अमल है जिसकी इस्लाम कभी अनुमति नहीं देता, हालांकि यह जाबिराना अमल पाकिस्तान के इलाके में जारी है और हुकूमत इसकी पुरी तरह से रोक थाम करने में असफल हुई है। क्या जवान लड़कियों के साथ होने वाले इस अत्याचार की तुलना भारत के सदियों पुराने देवदासी और सती के रिवाज से किया जा सकता है या दुनिया के इस तरह के किसी और ज़ालिमाना रवय्ये से?
प्रमुख बिंदु:
1. निकाह इस्लाम में केवल मर्द और औरत के बीच जायज़ है, न इंसानों और गैर इंसानों के बीच।
2. निकाह की दुरुस्तगी का दारोमदार निकाह के शर्तों पर है। चूँकि उल्लेख की गई घटना में निकाह के शराईत नहीं पाए जाते हैं इसलिए इस्लाम में ऐसा निकाह बेकार और बातिल है।
3. देवदासी या सती निज़ाम से तुलना करने में एनर्जी खर्च करने के बजाए कुरआन से तथाकथित शादी की रस्म को ख़त्म करना जरूरी है।
4. हालांकि पाकिस्तान रियासत में इस पर पाबंदी है लेकिन इस बुरे रस्म को रोकने में कामयाब हो जाना चाहिए क्योंकि यह अमल इस्लाम में औरतों की निकाह की रज़ा मंदी के अधिकारों का उल्लंघन है।
5. इस बुरे रस्म से गोया कि औरत को निकाह से रोक दिया जाता है जो कि एक ज़ुल्म है और इस्लाम में किसी तरह के ज़ुल्म की इजाज़त नहीं।
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पाठकों आप नीचे दिए गए लिंक के ज़रिये वीडियो को देखें। इसमें जो लड़की आपको नजर आ रही है, उसका नाम मोमल है। इसके बारे में कहा गया है कि यह कुरआन की दुल्हन है, मतलब उसकी शादी किसी मर्द से नहीं बल्कि कुरआन शरीफ के साथ हुई है। निश्चित रूप से यह घटना देख कर और सुन कर आप पर हैरत का सुकूत मुसल्लत हो जाएगा कि आखिर कुरआन से भी भला शादी कैसे संभव है! खुद मुझे भी हैरानी हुई, क्योंकि ज़िन्दगी में कभी भी न इस ताल्लुक से कुछ सूना और न ही कही पढ़ा। आप कुरआन पढ़ लें, हदीस पढ़ लें, निकाह के अबवाब पर आधारित हदीस और फिकह की कोई भी किताब पढ़ लें, इस्लाम के बारे में लिखी हुई भी किताब हो, आप पढ़ लें, चाहे वह किसी भी फिरके के आलिम की तरफ से लिखी हुई हो, आपको कहीं यह नहीं मिलेगा कि कुरआन से शादी करना जायज़ है। बल्कि हर एक किताब में निकाह की जो तारीफ़ है उससे यह बात जानेंगे कि निकाह मर्द व औरत के बीच कायम रहने वाला रिश्ता है, मतलब एक नर इंसान का मादा इंसान के साथ नस्ल ए इंसानी को फरोग देने वाला रिश्ता है।
लेकिन यह क्या! लड़की की कुरआन से शादी! यकीनन अभी तक हैरत की इन्तहा थमने का नाम नहीं लेती। इस्लाम में कुरआन के साथ निकाह करने का कोई जवाज़ नहीं बल्कि यह एक बहुत फुजूल रस्म है जो जिहालत की एक भयानक शक्ल है जिसका रुझान उसी माहौल में पाया जा सकता है जो कुरआन व सुन्नत की तालीमात से जाहिल व गाफिल हो। निम्न में हम पहले कुछ रिपोर्ट के हवाले से बात चीत कर रहे हैं फिर इसके बाद इस्लाम का निकाह के संबंध में कलाम पेश करेंगे।
वीडियों में बोले गए शब्द
मोमल जिसकी शादी कुरआन से की गई [ऐसी शादी जिसका इस्लाम में तसव्वुर भी नहीं है] कहती हुई नज़र आ रही है:
“न बरात आई, न ढोल बजा, न मेंहदी लगी, न मौलवी आया, हाँ बस एक बात नई थी कि मुझे नया सूट पहनाया गया था, नया जोड़ा। फिर मेरे अब्बू ने कुरआन शरीफ ला कर मेरे हाथों में रख दिया और कहा कि हम तुम्हारी शादी कुरआन के साथ करवा रहे हैं, तुम कसम खाओ कि तुम किसी से दुबारा शादी करने के बारे में नहीं सोचोगी। अब आप की शादी कुरआन शरीफ के साथ हो गई है______”
उसके बाप नहीं चाहते थे कि उसकी शादी उनके सैयद कबीले से बाहर हो। लेकिन कबीले के किसी फर्द की तरफ से शादी की कोई तजवीज़ नहीं आई जिसे उसके वालिद ने मुनासिब समझा हो। मोमल अपनी ज़िन्दगी का अधिकतर हिस्सा अपने घर के कामों में गुज़ारती है।
वह मज़ीद कहती है: “बाहर हम कहीं भी नहीं गए क्योंकि हम सारा दिन पर्दे में होते हैं। हमें यह भी पता नहीं होता कि बाहर क्या होता है और क्या नहीं होता। बस घर का काम और घर में रहते हैं। कोई खातून घर के बाहर आ जाए फिर भी हम बाहर नहीं जाते।“
मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि कुरआन के साथ किसी औरत की शादी करना तौहीन आमेज़ है। उनका कहना है कि यह रिवाज बेटियों और बहनों के साथ जायदाद और ज़मीन की दोबारा तकसीम को रोकने के लिए किया जाता है।
फिर उसके बाद सोशल वर्कर शाज़िया जहांगीर अब्बासी वीडियो में दर्ज जेल अलफ़ाज़ कहती हुई दिखती हैं:
“जो मर्द हज़रात हैं वह भाई हो गए या वालिद मोहतरम हो गए और वह यह चाहते हैं कि अगर शादी हो जाए गी तो यकीनन उस जायदाद में से जो हमारी जायदाद है, कुछ हिस्सा ही सहीह मगर हमें देना पड़ेगा। इसलिए वह यह चाहते हैं कि हम उनको बस [कुरआन की] बीवियां कर देते हैं। उनको सतिया जतियां कर देते हैं। कुरआन पाक से तुम्हारी शादी करवा देते हैं। ज़िन्दगी भर आप घर में ही रहेंगी। हमारे साथ रहेंगी। वह जो मासूम ख्वातीन होती हैं वह इस बात पर भ्रम रखती हैं। अपने घर के मर्दों का, भाइयों का, अपने वालिद का, कि चलें ठीक है, आपके खातिर, आपकी इज्जत की खातिर, खानदान की इज्जत की खातिर, हमें यह चीज कुबूल है।“
वीडियो में यह भी कहा गया है कि पाकिस्तान में कुरआन के साथ शादी गैर कानूनी है और उसकी कोई मज़हबी जिम्मेदारी नहीं है। लेकिन हुक्काम के लिए प्रभावितों की शिनाख्त करना मुश्किल है।
उसके बाद सिकोर हाईकोर्ट के एडवोकेट, हादी बख्श बट कुरआन से शादी के बुरे रस्म के बारे में कहते हुए नज़र आते हैं:
“बच्ची की कुरआन से शादी करा दी जाती है। बच्ची को ज़हनी तौर पर मफ्लूज बना दिया जाता है, या ब्रेनवाश किया जाता है कि वह खुद सशक्त नहीं होती। कुरआन से बच्चियों की शादी करा दी जाती है, यह [ऐसे घटना के केसेज़] हमारे पास मौजूद है। इसको ख़त्म करने के लिए, हमारी पुरी [पाकिस्तानी] रियासत को, विशेषतः, सिंध हुकूमत को कहूँगा कि उसको सक्रिय हो जाना चाहिए”।
वीडियो के अंत में कुरआन से शादी के फुजूल रस्म से प्रभावित लड़की मोमल कहती है: “जो मेरे साथ हुआ वह दुनिया की किसी औरत और लड़की के साथ न हो तो बेहतर है। जैसी मेरी शादी कुरआन शरीफ के साथ करवाई गई है। मैं नहीं चाहती कि किसी और के साथ भी ऐसा ही हो”। इसके बाद वीडियो की रिपोर्टिंग ख़त्म हो जाती है।
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DW Hotspot Asia (@dw_hotspotasia) February 15, 2022
प्रिय पाठकों! आपने हैरत व ताज्जुब के साथ वीडियो रिपोर्टिंग को सुन लिया होगा और उपर्युक्त ट्रान्सक्रिप्शन से सले की प्रकृति का अंदाजा लगा लिया होगा। आपके मन में शब्द गर्दिश कर रहे होंगे कि कुरआन व सुन्नत का इल्म रखने वाला समाज कभी इस बेकार रस्म का तसव्वुर भी नहीं कर सकता तो भला यह सब कैसे संभव हो सकता है!
अल्लाह पाक ने कुरआन मजीद को हमारे प्यारे पैगम्बर मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर नाज़िल फरमाया केवल इस मकसद के लिए कि इंसान मखलूक होने की हैसियत से अपने खालिक ए हकीकी और मालिके अबदी की पहचान कर के अपनी बंदगी को ज़िन्दगी के हर मैदान में बखूबी अंजाम दे। कुरआन मजीद ने ज़िन्दगी के हर मैदान में अच्छाई और बुराई का फर्क बताया।
जिस तरह झूट और सच एक नहीं बन सकते और काला और सफेद एक दुसरे में मिला कर के एक चीज नहीं हो सकते इसी तरह हलाल व हराम, जायज़ व नाजायज़ का फर्क वाज़ेह है। हाँ यह तो हो सकता है कि हलाल और हराम दोनों अलग अलग मकान में मौजूद रहे लेकिन यह तसव्वुर करना कि दोनों एक चीज में मौजूद हो जाए संभव नहीं।
इसी तरह निकाह के हलाल होने के लिए आवश्यक है निकाह करने वाला मर्द हो और जिससे निकाह किया जा रहा है वह कोई ऐसी खातून हो जिससे निकाह जायज़ हो। इस मौके पर यह कहना मकसूद है कि निकाह मर्द और औरत के बीच नस्ल इंसानी को बढ़ावा देने वाला एक पाक और जायज़ रिश्ता है। निकाह के हलाल होने के लिए शर्त है कि एक तरफ मर्द हो तो दूसरी तरफ ऐसी खातून हो जिससे निकाह जायज़ है। एक इंसान का निकाह गैर इंसान चीज से कर दिया जाए यह यकीनन शरीअत के बयान के किये हुए निकाह के शर्तों के खिलाफ है। शर्त अपने मशरूत के साथ मूतहक्कक होती है, इसलिए यह बात महाल है कि मशरूत [निकाह] अपने शर्त [मर्द व खातून में से हर दौर का होना] के बिना मूतहक्कक और हलाल हो जाए वरना तो एक ही चीज का एक ही महल में हराम होना और हलाल होना लाज़िम होगा जो कि शरीअत के नज़दीक महाल है ही अक्ल से भी महाल है।
कुरआन पाक ज़िन्दगी के हर पहलु में अच्छे और बुरे का फर्क स्पष्ट करता है। नतीजतन हराम और हलाल में फर्क सपष्ट है। हलाल और हराम, जायज़ और नाजायज़, बातिल और हक़ के बीच फर्क ठीक उसी तरह स्पष्ट है जिस तरह काले और सफेद के बीच फर्क है। हलाल और हराम कई जगहों पर मौजूद हो सकते हैं, लेकिन उनको यकजा करना इस तरह पर कि एक ही चीज हराम भी हो और हलाल भी हो यह संभव नहीं।
निकाह के ताल्लुक से भी शरीअत इस्लामिया मसलों को स्पष्ट तौर पर बयान कर दिया है और उसके जायज़ व नाजायज़ और हराम व हलाल तरीकों को भी स्पष्ट कर दिया है। निकाह की दुरुस्तगी के लिए इस्लाम ने कुछ शर्त निर्धारित किया है जिन के बिना निकाह बेकार और बातिल अर्थात सहीह नहीं समझा जाएगा। उन शर्तों में एक शर्त यह भी है निकाह मर्द व खातून के बीच आयोजित होने वाला रिश्ता है। इंसान का निकाह उसके गैर जिंस के हरगिज़ नहीं हो सकता।
इस्लामी फिकह में शर्त हर उस अम्र को कहते हैं जो हालांकि चीज की हकीकत से बाहर हो मगर वह चीज अपने वजूद के लिए इस अम्र की मोहताज हो। अर्थात चीज के वजूद का इंहेसार उस अम्र पर हो। इसका मतलब यह है कि अगर कोई चीज किसी शर्त के साथ मशरूत हो तो जब तक वह शर्त पुरी न होगी उस चीज का वजूद ज़ाहिर न होगा। जैसे कुरआन व सुन्नत से साबित है कि वजू नमाज़ के लिए शर्त है। नमाज़ की अदायगी मूतहक्कक नहीं हो सकती जब तक वजू की अदायगी न हो। इसी तरह निकाह की सेहत के भी कुछ ऐसे शर्त हैं जिनके बिना निकाह आयोजित नहीं हो सकता, इसलिए ऐसी कोई सूरत बन जाए तो उस निकाह को महज़ बेकार समझा जाएगा। ज़ेरे नज़र मसले में औरत का निकाह कुरआन से ऐसा अम्र है जो निकाह के शर्तों के खिलाफ है क्योंकि औरत इंसान में से है और इंसान अपने गैर जिंस से निकाह नहीं कर सकता। इस मसले की तफसील दुर्रे मुख्तार, रद्दुल मुहतार फ़िकही किताबों में देखें।
इसलिए, जो लोग अपनी बेटियों की जबरदस्ती कुरआन के साथ शादी करते हैं वह जान लें कि ऐसी शादी ब्याह कभी भी दुरुस्त नहीं समझी जा सकती क्योंकि निकाह केवल मर्द और औरत के बीच आयोजित हो सकता है न कि इंसान और कुरआन के बीच जो कि गैर इंसान है।
ट्विटर पर कुरआन के साथ शादी के फुजूल अमल के बारे में वीडियों रिपोर्ट देखते हुए मुझे विभिन्न टिप्पणियाँ देखने को मिले जिनमें कुछ टिप्पणी करने वालों ने इस घटना की तुलना हिन्दूओं के सती से किया जबकि कुछ ने इसकी तुलना देवदासी निज़ाम से किया। यह तुलना, मेरी राय में गलत है। सती और देवदासी का निज़ाम इस घटना से बिलकुल अलग है और भारत में इस पर पाबंदी लगा दी गई है। तथापि, देवदासी निज़ाम पर विरोधाभासी दृष्टिकोण मौजूद हैं। इस सिलसिले में अभिधा गुप्ता का इल्मी कारनामा “देवदासी निज़ाम: ज़ात परस्ती और जिंस [परस्ती का एक कदीम तर्ज़े अमल” के उनवान से दरियाफ्त हुआ था। गुप्ता ने अपने इस इल्मी कारनामे में देवदासी निज़ाम पर सीरे हासिल बातचीत की है और एक जगह अपनी किताब के बारे में लिखते हैं:
“देवदासी निज़ाम कदीम भारत में हिन्दू धर्म का एक अनिवार्य हिस्सा था। यह वह निज़ाम है जिसमें बलूगत की उम्र तक पहुँचने से पहले एक औरत की शादी कर दी जाती है या मंदिर, मंदिर के पुजारी या किसी मुकामी देवता के लिए वक्फ कर दी जाती है। यह प्राचीन भारत के तमाम मंदिरों की एक साझा विशेषता थी लेकिन भारत के कुछ हिस्सों में आज भी मौजूद है। इसे एक मुकद्दस अमल समझा जाता था। शब्द ‘देवदासी’ संस्कृत के दो शब्दों ‘देवा’ जिसका अर्थ है “खुदा” और “दासी” जिसका अर्थ है ‘खातून नौकर’। इसमें धार्मिक हुदूद व जवाबित के साथ लड़कियों का जिंसी शोषण किया जाता था। जिन लड़कियों को इस अमल पर मजबूर किया जाता था उनमें से अधिकतर का संबंध दलित जैसी निचली जातों से था। उनकी शादी मंदिर के पुजारियों से कराई जाती और उनके और अमीर और मत्मूल ज़मीनदारों, ताजिरों और दुसरे मर्दों के जरिये उनका जिंसी शोषण किया जाता। उन्हें मज़हब और देवा के नाम पर इस अमल पर मजबूर किया जाता, उन्हें यह यकीन दिलाया जाता कि यह देवा की खिदमत की एक शक्ल है। मौजूदा दौर में यह महिलाएं अपना पवित्र और सम्मानित स्थान खो चुकी हैं और पसमांदा ज़िन्दगी गुज़ारने पर मजबूर हैं। उनके मसाइल को न होने के बराबर तस्लीम किया जाता है और उनके सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों के सख्त निफाज़ की जरूरत होती है। यह लेख इस तर्ज़े अमल पर काबू पाने और समाज के सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के लिए तजावीज़ फराहम करने की कोशिश करता है।
उपर्युक्त नक़ल किये गए इबारत को अंग्रेजी से अनुवाद किया गया है जिसका लिंक निम्न है:
Devdasi System: An
Ancient Practice of Casteism and Sexism Redefined by Abhidha Gupta
“देवदासियों के निज़ाम को मुग़ल
शासकों और यूरोपियों ने गलत समझा क्योंकि वह ‘भगवान्’ को भेंट चढ़ने के तसव्वुर से बिलकुल
बेखबर थे। उनकी समझ के मुताबिक़ मंदिर में नाच गाने वाली लड़कियां अमीर लोगों की तफरीह
के लिए ऐसा करती हैं और वह तवाइफों से बेहतर नहीं थीं। लेकिन यह मज़हबी रिवाज मध्य युग
के दौरान बड़ी संख्या में मंदिरों की तबाही की वजह से बिगड़ गया। यह रुझान समाज में देवदासियों
की हैसियत को कम करने का कारण बनता है। इस यूनियन से पैदा होने वाली लड़कियों को भी
मंदिर के लिए वक्फ किया जाता था और पैदा होने वाले लड़कों को एक संगीतकार के रूप में
प्रशिक्षण दी जाती थी। इससे भारत के मंदिरों में मज़हबी इस्मत फरोशी शुरू हुई जो आज
तक जारी है। देवदासियों का एक तरफ अमीर, ताकतवर और उच्च वर्ग के लोगों ने शोषण किया और दूसरी तरफ उनकी
आर्थिक आवश्यकताओं के कारण उन्हें यह रिवाज छोड़ने की इजाज़त नहीं दी गई और आखिर में
उन्हें जिस्म फरोशी की वादी की तरफ धकेल दिया गया। इस निज़ाम को गैरकानूनी करार देने
वाला पहला कानून 1934 में बम्बई देवदासी प्रोटेक्शन एक्ट के नाम से नाफ़िज़ किया गया था। मज़ीद बर आं मद्रास
देवदासी (वक्फियत की रोक थाम) एक्ट, 1947 ने मद्रास में इस अमल को गैर कानूनी करार दिया। 1988 में, देवदासी निज़ाम को पुरे भारत में पुर्णतः गैर कानूनी
करार दे दिया गया। क्या करने की जरूरत है? समाज में देवदासियों की बहाली के बारे में गंभीरता से सोचना
चाहिए ताकि वह इंसानी वकार के साथ अपनी ज़िन्दगी गुज़ार सकें” (देखिये Devadasi System in India)
प्रिय पाठकों! हम कुरआन से शादी के बेकार रस्म पर बातचीत कर रहे थे कि अचानक हमें देवदासी सिस्टम के संबंध में एक इबारत पेश करनी पड़ी। बताना मकसूद यह है कि कुरआन से शादी की जो फुजूल रस्म के बारे में सुनने को मिल रहा है वह देवदासी नजरिये से पुरी तरह अलग है। कुरआन शरीफ के शादी के घटना में लड़की केवल बराए नाम कुरआन की दुल्हन है, जिसके लिए जिंसी जरूरत की कोई राह नहीं, बल्कि सारी ज़िन्दगी उसे अब बिना किसी मर्द से निकाह किये हुए केवल कुरआन की तिलावत करते हुए बराए नाम यह कहते हुए ज़िन्दगी गुजारनी है कि वह कहने को कुरआन की दुल्हन है। यह फुजूल रस्म दरअसल लड़की को किसी मर्द से निकाह करने से रोकने और जिंसी जरुरीयात से महरूम रखने पर मजबूर करने का नाम है, इसलिए शरीअत की नज़र में एक बड़ा गुनाह है कि कोई शख्स किसी लड़की को निकाह करने से रोके।
दुसरा फर्क यह है कि इस्लाम में कुरआन से शादी की कोई हकीकत नहीं और न ही इसको मुसलमानों में कभी जायज़ समझा गया। आप जो कुरआन से शादी के ताल्लुक से घटना सुन रहे हैं असल में वह एक ऐसी शादी है जिसमें किसी तरह का जिंसी अमल का दखल नहीं बल्कि लड़की को केवल बराए नाम दुल्हन तसव्वुर कर लिया जाता है और घर में सारा दिन काम काज के लिए रखा जाता है। जो लोग ऐसी शादियाँ करवाते हैं वह खुद कुरआन करीम की तालीमात से वाकिफ नहीं हैं। कुरआन से शादी कर के वह अपनी बच्चियों को गोया किसी और शख्स से निकाह करने से रोकते हैं जो कि सरासर ज़ुल्म है।
निकाह कहते किसे हैं? खुद कुरआन मजीद से इसका जवाब बहुत खुबसूरत अंदाज़ में दिया है, देखें
अल्लाह पाक ने कुरआन पाक में इरशाद फरमाया:
‘‘وَمِنْ آيَاتِهِ أَنْ خَلَقَ لَكُم مِّنْ أَنفُسِكُمْ أَزْوَاجًا لِّتَسْكُنُوا إِلَيْهَا وَجَعَلَ بَيْنَكُم مَّوَدَّةً وَرَحْمَةً ۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يَتَفَكَّرُونَ’’
अनुवाद: और उसी की (क़ुदरत) की निशानियों में से एक ये (भी) है कि उसने तुम्हारे वास्ते तुम्हारी ही जिन्स की बीवियाँ पैदा की ताकि तुम उनके साथ रहकर चैन करो और तुम लोगों के दरमेयान प्यार और उलफ़त पैदा कर दी इसमें शक नहीं कि इसमें ग़ौर करने वालों के वास्ते (क़ुदरते ख़ुदा की) यक़ीनी बहुत सी निशानियाँ हैं (सुरह रूम: 21)
इस आयते करीमा से साफ़ तौर पर कुरआन करीम ने रूश्द व हिदायत का पैगाम देते हुए यह शिक्षा दी कि मर्द इंसान अपना सुकून अपने जोड़े से पा सकते हैं और मर्द का जिंसी जोड़ा एक खातून ही हो सकती है। अब किसी खातून को इसके जरिये सुकून से कुल्ली तौर पर रोक दिया जाए यह यकीनन कुरआन पाक की रौ में ज़ुल्म है। क्योंकि ज़ुल्म नाम है किसी को उसके हक़ से महरूम का देने का। मर्द व औरत का एक दुसरे से सुकून पाना यह अल्लाह का मुकर्रर करदा हक़ है जिसके हुसूल के लिए निकाह का अमल जरूरी है, इसलिए अगर किसी हकदार को उसके हक़ निकाह से रोक दिया जाए यह यकीनन ज़ुल्म है।
आयते करीमा पर गौर करने से मालूम होता है कि निकाह केवल जिंसी ख्वाहिशात व जज़्बात की तस्कीन का नाम नहीं बल्कि रिश्ता मोहब्बत व रहमत का भी नाम है।
कलाम का खुलासा यह है कि शरीअत में इंसान का निकाह इंसान से होता है और यही शर्त है। इंसान का निकाह कुरआन से या दरख्त से या पत्थर से या कागज़ से या कलम से या फिर इंसान का निकाह किसी जिन्नात वगैरा से, यह सब फुजूल काम है और बहुत जाहिलाना अमल है। अगर कोई ऐसा निकाह जबरन कहीं कोई करे तो ऐसे निकाह का शरीअत में फुजूल व लग्व होना साबित है और इसका कोई एतिबार न होगा। (हवाले के लिए देखें, दुर्रे मुख्तार मआ रद्दुल मोह्तार, किताबुन्निकाह, रद्दुल मोह्तार 4,61)
जिन इलाकों में ऐसे फुजूल रस्म जारी हैं वहाँ की हुकूमत को चाहिए कि जल्द अज जल्द इस अमल को पुरी तरह से रोकने में कामयाबी हासिल कर ली जाए क्योंकि यह सिन्फे नाज़ुक लड़की पर बहुत जालिमाना अमल है जिसकी इस्लाम में कोई गुंजाइश नहीं।
English Article: Some Muslims In Sindh, Pakistan, Marry Their
Daughters To The Holy Quran: This Bizarre Oppression Of Young Girls Is Simply
To Keep Control Over Property
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