अरशद आलम, न्यू एज इस्लाम
१० दिसंबर २०२०
बांग्लादेश की पैदाइश एक धर्म, एक कौम के सिद्धांत के मुखालिफ थी।पाकिस्तान की
अर्ध-धार्मिक राज्य के खिलाफ, बांग्लादेश ने खुद को एक सेकुलर बहुसांस्कृतिक
लोकतंत्र के तौर पर पेश किया।धर्म से परे राज्य का उद्देश्य सेकुलर और लिबरल
सिद्धांतों की सुरक्षा और इसे बढ़ावा देना था, औरवैचारिक मतभेद और लोकतंत्र के
अधिकार का सम्मान करना था। यह एक ऐसा अनुभव था जिसको वैश्विक बिरादरी ने सराहा था।
बदकिस्मती से आज हम जोदेखरहे हैं वह शायद उस प्रयोग का खुलासा ना हो। ऐसा लगता है
कि बांग्लादेश धीरे धीरे बल्कि यक़ीनन एक ऐसी रियासत की तरफ जा रहा है जो इस्लाम
पसंदी की हैसियत से जानी जाएगी।
हिफ़ाज़ते इस्लाम, एक ऐसी तंजीम है जो धार्मिक हितों के लिए काम करती है इसने
हुकूमत विरोधी प्रदर्शन में जो हालिया शोर गुल पैदा किया है उससे यह बिंदु समझ में
आती है कि अगर इसे सख्ती से कंट्रोल नहीं किया गया तो बांग्लादेश पाकिस्तान की राह
पर चल पड़ेगा जिसका असर पुरे दक्षिणी एशिया पर पड़ सकता है। बांग्लादेश के संस्थापक
शैख़ मुजीबुर्रह्मान का पुतला लगाने से शैख़ हसीना सरकार के फैसले से मौजूदा संकट का
जन्म हुआ है। यहबहस करते हुए कि पुतला बनाना इस्लाम के खिलाफ है, हिफाज़त ग्रुप ने
इस तरह के किसी भी पुतले को तबाह करने का पक्का इरादा किया है और इस तरह उन्होंने
सरकार के साथ एक और मोर्चा बंदी का चरण तय किया है। इस्लाम पसंदाना इस्तदलाल हमेशा
से यह रहा है कि कोई ऐसी कार्यशैली या पेशकश जो “मुशरिकाना अमल या बुत परस्ती” का
कारण हो सकती है उसे एक इस्लामी कौम में निषेध करार दिया जाना चाहिए। यह इस्तदलाल
केवल हास्यपद है क्योंकि बुतों और पुतलों के बीच काफी अंतर है।
असल में पुतलों के बजाए बुत परस्ती के संबंध में धमकी एक ऐसे फिरके से आती है
जिससे बहुत सारी मुस्लिम कौमों के खुद मुख्तार आनंदित होते हैं। लेकिन तब तो किसी
एक खानदान के लगातार हुकूमत करने के “पवित्र हक़” पर सवाल उठाना बगावत का कारण बन
जाए और यही वजह है कि ना केवल अरब दुनिया के लोग बल्कि बांग्लादेशी मुल्ला भी कभी
ऐसे मामले नहीं उठाएंगे। इस बात पर यकीन करना अत्यंत कठिन है कि यह मुल्ला खुद
मुजीब का पुतला लगाने के खिलाफ अपनी दलील की सच्चाई पर संतुष्ट हैं। उस समय समझने
में जो दिक्कत आती है वह इन दावों की हिमाकत की वजह से नहीं आती है बल्कि उन
कारकों की वजह से जो उनके पीछे काम कर रहे हैं। और यह बात स्पष्ट होती जा रही है
कि इस्लाम पसंद इस देश में रियासत को अपने खुद की तस्वीर में कल्पना करना चाहते
हैं। दुसरे शब्दों में कहें तो बांग्लादेश को दुबारा इस्लामी गणराज्य बनाने की एक
ताकतवर संघर्ष है।
इस्लामिस्ट के इतने बेबाक होने के विभिन्न कारण हैं। एक महत्वपूर्ण कारण यह है
कि हसीना सरकार उन पर नर्म गोशा रखती रही है। २०१७ में हिफाजते इस्लाम ने विजय का
मज़ा उस समय चखा जब उन्होंने ‘लेडी जस्टिस’ के पुतले को हटाने के सिलसिले में, जोकि
उच्च अदालत के सामने नसब किया गया था, सरकार पर दबाव डालने के लिए एक सफल रैली
निकाली। असल में शैख़ हसीना ने सार्वजनिक तौर पर पुतले की तंसीब पर आलोचना कर के
इस्लाम पसंदों की हिमायत की थी। अगर खयाल यह था कि वह उन इस्लाम पसंदों की हिमायत
हासिल करलेंगी, तब तो निश्चित रूप से उसने हिमायत हासिल कर ली लेकिन किस कीमत पर?
अगर एक सरकारी तौर पर सेकुलर रियासत इस तरह के हास्यास्पद मांगों के सामने हार मान
ले, तो शायद यही समय है इस बात को देखने का कि किस तरह सरकार खुद से इस सेकुलर
निज़ाम को हानि पहुंचा रही है जिसको बुलंद करने की वह दावेदार है।
ठीक उसी तरह सरकार उस समय भी चुप थी जब सरकार में सेकुलर ब्लागर्स के क़त्ल का
सिलसिला शुर हुआ था हालांकि उस समय इस्लाम पसंदों की हामी भी थी। सीनियर मंत्रियों
ने खुद इस तरह की आतंकवाद के इकदामात का आरोप भी ब्लागर्स पर ही लगा दिया, यह दलील
देते हुए कि वह ब्लागर्स आम मुसलमानों को भड़का रहे थे हालांकि उन्हें उनकी मज़हबी
जज़्बात के संबंध में संवेदनशील होना चाहिए था। एक बार फिर सरकार सख्तगीरों को
तस्कीन देने के लिए पीछे पलट रही थी। कभी कभी सरकार को देखा गया कि वह ऐसे मुकदमों
की सुनवाई में सुस्ती बरत कर इस्लाम पसंद कातिलों की हिमायत में सक्रीय है। सरकार
को यह समझने की आवश्यकता है कि ऐसे कट्टरपंथियों के साथ नरमी का प्रदर्शन करके वह
अपनी कब्र खोद रही है। इस बात को अनदेखा करके कि शैख़ हसीना इस्लाम पसंदों को लेकर
कितनी ही मशहूर हो जाए, मगर कट्टरपंथी उस समय तक नहीं रुकेंगे जब तक कि वह इस देश
के संविधान में बुनियादी परिवर्तन ना ले आएं। हसीना को यह मान लेना चाहिए कि वह इस
तरह के बेकार हिमायत के जरिये इस्लामिस्ट उलेमा को ‘कंट्रोल’ नहीं कर सकेंगी,
बल्कि वह कट्टरपंथी मांग करने में और बेबाक हो जाएंगे। केवल इस्लाम पसंदों के
नजरिये की उसूली मुखालिफत ही इस बात को यकीनी बना सकती है कि यह इस्लाम पसंद अपने
सीमा में ही कायम रहेंगे।
बांग्लादेश में इस्लाम पसंद नेटवर्क आज़ाद/बिरादरी (कौमी) में कायम है। बहुत
सारे मदरसे ऐसे हैं जहां हज़ारों छात्र निवासकरते हुए अपने सरबराहों के एजेंडे को
लागू करने के लिए बंदीसैनिकों की तरह कार्यरत हैं। एकआकलन के अनुसार, इन कौमी
मदरसों में एक साथ चालीस लाख छात्र मौजूद हैं। शैख़ हसीना सरकार ने एक बार फिर
सेक्शन को संतुष्ट करने के लिए, इन मदरसों के सर्टिफिकेट को सरकारी स्कूलों और
कालिजों की तरफ से दिए गए सर्टिफिकेट के बराबर कर दिया है। जिसके नतीजे में
बांग्लादेश में मदरसों की शिक्षा को “केन्द्रीय शमूलियत” प्राप्त हुई लेकिन इसी के
साथ उससमय में मदरसे के फारिग होने वालों की इच्छाओं में भी इजाफा हुआ।
हालांकि उनकी सर्टिफिकेट पहचानी जा चुकी है और वह सरकारी नौकरियों के लिए
दरख्वास्त भी दे सकते हैं, लेकिन उनके मदरसे में शिक्षा हासिलकरने की वजह से
उन्हें पेशावराना नौकरी की मंदी में दाखिले के लिए मुश्किल से मुसल्लेह किया है।
अब जब कि इच्छाएं बढ़ गई हैं, और बाहर की सख्त हकीकत ने उन मदरसों के छात्रों में
मायूसी को बढ़ा दिया है। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इस्लामी उलेमा की
जानिब से जब भी काल की जाती है तो उस समय सड़कों पर आने वाले यही पहले फरीक होते
हैं। मज़ीद यह कि अब यह वर्ग इस बात पर कायल है कि उनके हित केवल इस्लामी हुकूमत ही
पूरी कर सकती है इसलिए मौजूदा सेकुलर निज़ाम के खात्मे के लिए मुहिम चलाना उनके हित
में है।
आखिर कार असीमित सत्ता की चाहत में, शैख़ हसीना सरकार ने हज्बे इख्तिलाफ को ख़तम
कर दिया। अपोज़ीशन के ऊँचे पद के सदस्यों को घटिया हरकतों के आरोप के तहत जेल भेज
दिया गया है। यहाँ तक कि बांग्लादेश के सिविल सुसाइटी को भी इन हिद्द्त का सामना
करना पड़ रहा है। उन सबने यह यकीन किया है कि हसीना हुकूमत का भविष्य में किसी
विरोधी के नहीं होने का इमकान है। विरोधी पार्टी की यह खाली जगह अब इस्लाम पसंदों
ने भर दी है। चूँकि यहाँ कोई दूसरी विरोधी पार्टी नहीं है। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी
जो इस्लाम पसंद नहीं हैं लेकिन उनके पास इस तरह के इस्लाम पसंद जमातों की हिमायत
के अलावा कोई चारा भी नहीं है। हसीना सरकार का एक नापाक कदम सेकुलर अपोजीशन को
ज़िंदा रखना था लेकिन अपने मुतलक सत्ता की जुस्तजू में, उसने यह विश्वास दिलाया कि
बांग्लादेश की मुकम्मल निज़ामे हुकूमत हतमी तौर पर मुन्तकिल हो गई है।
शैख़ हसीना अब तक अपने लिए अच्छे प्रेस का इंतजाम कर चुकी हैं। इसको किसी ऐसे
शख्स के तौर पर पेश किया गया है जो इस्लाम पसंदों के खिलाफ बरसरे पैकार है लेकिन
ऐसा लगता है कि इसने बहुत सारे तरीकों से इस तरह के इस्लाम पसंद लानतों को सबसे
पहले उभरने की राह हमवार कर दी है।
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