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Hindi Section ( 5 Sept 2018, NewAgeIslam.Com)

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Ban on Amr bil Maroof and Nahi Anil Munkar? अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुनकर पर प्रतिबंध?

 

शकील शम्सी

29 अगस्त, 2018

अगर आप गौर करेंगे तो देखेंगे कि इस्लाम ने अपने बन्दों के लिए कोई ऐसी रस्म नहीं रखी जिसको अंजाम देने के लिए उलेमा, पुरुहितों, राहिबों या रब्बाइयों की जरूरत पड़ेl ना तो शादी ब्याह में कोई ऐसी रस्म रखी कि जिसकी अदायगी के लिए किसी मौलवी का होना जरुरी हो, ना मुर्दों को दफनाने के सिलसिले में कोई ऐसा कानून बनाया कि जिसमें कोई मौलवी या मुल्ला की मौजूदगी जरुरी हो, इसी तरह नमाज़ पढ़ाने का मजाज़ भी हर उस मुसलमान को बना दिया जो कुरआन पाक की सूरतों की सहीह तरीके से तिलावत कर सकता होl असल में इस्लाम तो चाहता ही यह था कि पुरोहितवाद, रहबानियत, रब्बाइयत और धार्मिक रस्मों की अदायगी करने वालों के हाथों आम आदमी का शोषण ना होl यह सम्मान केवल इस्लाम ने ही अपने उलेमा को प्रदान किया कि उनके फ़राइज़ केवल मज़हबी रस्मों की अंजाम दही तक सीमित ना रहें बल्कि इस्लाम ने उलेमा के काँधे पर एक ऐसी जिम्मेदारी डाली जिसको अम्र बिल मारुफ़ (अच्छाई की तरफ बुलाना) और नहीं अनिल मुनकर (बुराई से रोकना) कहा गया, अर्थात जो व्यक्ति भी दीन का आलिम बने वह लोगों को नेकियों और अच्छाईयों की दावत दे और बुराइयों से रोकेl इस्लाम ही पहला ऐसा मज़हब था जिसने उलेमा से यह उम्मीद की कि वह केवल आम इंसानों को अच्छाईयों और नेकियों की तरफ आकर्षित नहीं करेंगे बल्कि शासकों को भी अच्छे रास्तों की तरफ बुलाएंगे और इस्लाम ने उलेमा की इस जिम्मेदारी का दायरा शासकों तक बढ़ाते हुए आदेश दिया कि उनको भी उलेमा बुराइयों की तरफ बढ़ने से रोकेंl खुदा का शुक्र है कि हर दौर में ऐसे उलेमा मौजूद रहे हैं जिन्होंने अपनी जान की प्रवाह किए बिना बादशाहों और शासकों के विरुद्ध जुबान खोलीl कई उलेमा मुग़ल शहंशाहों से भी टकरा गए और उसकी उन्होंने कड़ी सज़ा भी पाईl

अंग्रेज़ों के विरुद्ध फतवे जारी करने वाले उलेमा ने ना तो काले पानी की फ़िक्र की और ना तोप से उड़ाए जाने के डर से अपनी जुबान रोकी, लेकिन इस सच से कोई इनकार नहीं कर सकता कि हज़ारों उलेमा ऐसे भी हुए जिन्होंने हुकूमत के लुकमे खाने को ही अपना दीनी फरीज़ा समझा, मगर खुदा का करम यह है कि इस्लाम दोनों प्रकार के उलेमा की पहचान उलेमा ए हक़ और उलेमा ए सू के रूप में बहुत पहले ही कर चुका थाl इसलिए जब कोई आलिमे दीन किसी बादशाह के हाँ में हाँ मिलाता नज़र आया तो आम मुसलामानों ने फ़ौरन उसको पहचान लिया कि उसका संबंध उलेमा के किस वर्ग से है और जो आलिमे दीन शासकों की आँखों में आँखे डाल कर बात करता हुआ नज़र आ गया उसको देख कर मुसलमान समझ गए कि उसके दिल में केवल अल्लाह का डर हैl इरान के बादशाह ने कितने उलेमा को जेलों में ठुंसा या जिलावतनी की ज़िन्दगी गुज़ारने पर मजबूर किया, लेकिन वहाँ के उलेमा इस्लामी इंकलाब ला कर ही मानेl ईराक में भी उलेमा पर क्या क्या सितम नहीं तोड़े गए मगर उनके क़दमों में लग्ज़िश नहीं आई, मगर अब इस्लाम के सबसे पवित्र स्थान पर बैठे उलेमा को जेल की सलाखें देखना ही पड़ रही हैं, वैसे तो सऊदी अरब में प्रसिद्ध उलेमा को गिरफ्तार करने का सिलसिला वर्षों से जारी है, लेकिन किसी की भी गिरफ्तारी की कानों कान खबर जनता को नहीं होती, केवल शैख़ बाक़र अल नम्र एक ऐसे आलिमे दीन थे जिनको गिरफ्तार किए जाने और बाद में उनकी गर्दन काटे जाने पर विश्व स्तर पर हंगामा मचा, चूँकि वह एक शिया आलिमे दीन थे इसलिए जहां जहां शिया रहते थे उन्होंने उनकी गिरफ्तारी पर विरोध प्रदर्शन किया, लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि उनके साथ जिन सुन्नी उलेमा को गिरफ्तार करके मौत की सज़ा दी गई उनका कहीं कोई उल्लेख नहीं हुआ, हालांकि मौत की सज़ा पाने वालों में शैख़ फारस अहमद जमआन आले शोवैल अल जहरानी जैसे आलिमे दीन शामिल थे, लेकिन हद तो उस समय हो गई जब एक हफ्ते पहले शैख़ सालेह अल तालिब को इस जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया कि उन्होंने अपनी तकरीर में जनता से अम्र बिल मारुफ़ इख्तियार करने को कहा था, लेकिन हम ने सूना है कि उन्होंने किसी तकरीब (समारोह) के दौरान यहूदीयों के विरुद्ध कुछ जुमले कह दिए थे और यही जुमले उनकी गिरफ्तारी की असल वजह बनेl आखिर में हम कहते चलें कि ऐसे सभी उलेमा मुबारकबाद के काबिल हैं जो शासकों की परवाह किए बिना हक़ बात कहने को अपनी जिम्मेदारी समझते हैं, भले ही उनकी दुनिया ना संवरे लेकिन उनकी आख़िरत का संवरना तो निश्चित हैl

29 अगस्त,2018, स्रोत: इन्कलाब, नई दिल्ली

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