जावेद अनीस, न्यू एज
इस्लाम
16 अप्रैल, 2024
साल 2022 रिलीज हुयी आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा
हॉलीवुड की कल्ट कलासिक फिल्म फॉरेस्ट गंप (1994) की आधिकारिक रिमेक थी, लेकिन इसमें रिमेक के दावे के अलावा फॉरेस्ट
गंप जैसा कुछ भी नही था. यह एक डरी हुयी फिल्म थी जो गैर-विवादास्पद फिल्म बनने के
दबाव में एक साधारण फिल्म बन कर रह गयी थी. वहीँ 2023
में रिलीज हुयी मराठी फिल्म ‘आत्मपॅम्फ्लेट’ एक मौलिक फिल्म है जो बिना किसी
महानता का दावा किये हमें लाल सिंह चड्ढा के डिजास्टर को भूल जाने का मौका देती है
और अनजाने में ही सही खुद को फॉरेस्ट गंप के वास्तविक भारतीय संस्करण के रूप में पेश
करती है. यह एक बहुत ही
प्यार से बनायी गयी फिल्म है जो हमें प्यार, दोस्ती और मासूमियत का जश्न मनाने का मौका देती है.
पिछले दिनों मराठी भाषा की इस ब्लैक कॉमेडी को अंग्रेजी उपशीर्षक के साथ
ओटीटी प्लेटफार्म जी-5 पर रिलीज़ किया गया है.
फिल्म की कहानी
हमारे यहाँ बहुत कम ऐसी फिल्में है जो सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर बात करते समय उपदेशात्मक नहीं होती जबकि ऐसी फिल्मों की संख्या तो बहुत ही कम है जो ऐसे मसलों को व्यंग्यपूर्ण तरीके से डील करती हैं, आत्मपैम्फ़लेट उन्हीं चुनिन्दा फिल्मों में से एक है जो बच्चों के नजरिए से भारतीय समाज पर एक मजेदार टिप्पणी करती है. आत्मपॉम्प्लेट हाल के दिनों में सामाजिक-राजनीतिक विषय पर आई सबसे प्रभावशाली व्यंग्यात्मक फिल्मों में से एक है.
फिल्म का मुख्य किरदार महाराष्ट्र में दलित समुदाय एक किशोर लड़का आशीष बेडे है जिसे अपनी सहपाठी सृष्टि से प्यार हो
जाता है जो ब्राह्मण समुदाय से
है. इसमें उसके दोस्त
जो अलग-अलग जाति और समुदायों (मुस्लिम,
मराठा, ब्राह्मण और कुनबी) से हैं आशीष की मदद करते हैं.
यह 80- 90 के दशक और उसके बाद के वर्षों का वो दौर है जब भारत अपने राष्ट्रीय
चरित्र में बदलाव के दौर से गुजर रहा था. नतीजतन यह फिल्म
आशीष की एकतरफा प्रेम कहानी के साथ-साथ उस समय भारत में हो रहे बदलाओं और प्रमुख
घटनाओं को भी बहुत बारीकी से दर्शाती है. फिल्म की कहानी काफी हद तक आशीष के बचपन और किशोरावस्था की प्रमुख घटनाओं पर आधारित है. फिल्म आशीष की जिंदगी के अहम पड़ावों
को देश के इतिहास के महत्वपूर्ण मोड़ों के साथ लेते हुये आगे बढ़ती है जिसमें इंदिरा गांधी की हत्या, मंडल आयोग की रिपोर्ट की घोषणा और बाबरी मस्जिद
विध्वंस जैसी महत्वपूर्ण घटनायें शामिल हैं. इस सामान्य किशोर प्रेमकथा में
दिलचस्प मोड़ तब आना शुरू होता है जब हमें फिल्म के प्रमुख पात्रों के सामाजिक
पृष्ठभूमि के बारे में पता चलना शुरू होता है.
वो बातें जो फिल्म को खास बनाती हैं
फिल्म शुरुआत में ही यह घोषणा कर देती है कि
यह एक प्रेम कहानी है जोकि एक सफेद झूठ है. दरअसल फिल्म की पटकथा हल्की-फुल्की और
सहज है लेकिन यह हमारे समय का एक काला हास्य है जो जाति, धर्म और अन्य गंभीर सामाजिक मसलों को हास्य के माध्यम से
बहुत ही संतुलित तरीके से पेश करती है और ऐसा करते समय वो बिलकुल निर्भीक और निडर
है. फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह दो अलग विषयों प्रेम और सामाजिक-राजनीतिक
मुद्दों को बहुत ही खूबसूरती से एक साथ लेकर चलती है, ऐसा करते समय संतुलन और प्रवाह पूरी तरह से
बना रहता है और किसी भी चीज को अनावश्यक रूप से खींचा नहीं जाता है. फिल्म का मूल नैरेटिव
विविधता में एकता है जो पूरे समय विभिन्न जातियों और धर्मों से ताल्लुक रखने वाले
दोस्तों के माध्यम से नेपथ्य में चलता रहता है.
दूसरी बड़ी खूबी इसकी सार्वभौमिकता है, यह फिल्म जिस तरह के भेदभाव और इंसानी विभाजन के मसलों
को दर्शाती है वो दुनिया भर में अलग-अलग रूपों में मौजूद हैं. हालाकिं इसकी कहानी
महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर पे आधारित है लेकिन वो जिन व्यापक इंसानी मूल्यों की
वकालत करती है उसके सरोकार वैश्विक हैं ऐसा करते समय वो कहीं भी उपदेशात्मक नहीं
होती है.
फिल्म की तीसरी खास बात इसमें बच्चों के
नजरिये से कहानी को बताया गया है, बच्चों के दुनिया को देखने का नजरिया बड़ों से
बिल्कुल अलग होता है, फिल्म बखूबी इस बात को उजागर करती है कि कैसे समाज द्वारा बच्चों को अपने दकियानूसी
और प्रतिगामी विचारों के सांचे में ढ़ालने की कोशिश की जाती है, जो बच्चों के मन में विभाजन के बीज बोने का काम करता है इसलिए
जब बच्चे धीरे-धीरे अपने धर्म और जाति की मान्याताओं को समझना शुरू कर देते हैं, तो अक्सर उनका अपने सबसे अच्छे दोस्तों के साथ एक अनकहा सा
विभाजन हो जाता है,. फिल्म में
बच्चों के किरदारों को बहुत प्रभावशाली तरीके से पेश किया गया है जिसमें उनकी मासूमियत
और विवेक के बीच की संतुलन बखूबी नजर आती है. यह फिल्म बताती है कि तमाम
राजनीतिक-सामाजिक विभाजनों के बावजूद बच्चे प्यार, दोस्ती और बंधुतत्व
को बड़ों से बेहतर समझते हैं और तमाम रुकावटों के बीच इसके लिए कोई-ना-कोई मासूम रस्ता
निकाल ही लेते हैं.
फिल्म भारत के जाति
पदानुक्रम को बिलकुल अलग
अंदाज में पेश करती है. फिल्म का मूल पात्र एक दलित है. फिल्म दर्शकों को उसे जातिगत
बंधनों और दलित शरीर से बाहर देखने का मौका देती है क्योंकि परदे पर उसे एक दलित
नायक की तरह नहीं बल्कि एक सामान्य नायक की तरह पेश किया गया है. इसी प्रकार से
फिल्म में जाति-आधारित भेदभाव को हास्य के नजरिये से दिखाया गया है. यह एक जोखिम
भरा काम था लेकिन इसमें विषय की गंभीरता को बरकरार रखा गया है.
यह एक विलक्षण शैली की फिल्म है. पूरी फिल्म
में वॉयसओवर लगातार चलता रहता है. इसके शुरुआती 25 मिनट में कोई संवाद ही नहीं है बल्कि
सिर्फ वॉयसओवर द्वारा कुछ दृश्यों के साथ फिल्म आगे बढ़ती है.
कुल मिलकर करीब 95 मिनट की यह फिल्म हाल के
दिनों में सबसे अधिक प्रासंगिक फिल्मों में से एक है. यह हमें हमारे ही बनाये गये 'हम बनाम वे' के दायरे
से बाहर ले जाती है और हमारे सामने भारत के उस सपने को पेश करती है जिसकी हमें आज
सबसे ज्यादा जरूरत है.
‘आत्मापैम्फलेट’ का निर्माण ज़ी स्टूडियोज, आनंद एल राय और भूषण कुमार द्वारा संयुक्त रूप से किया गया
है. फिल्म को नेशनल अवार्ड विजेता परेश मोकाशी द्वारा लिखा गया है जिन्हें अपनी
हालिया मराठी ‘वालवी’ (2023) के लिए
बहुत सराहना मिली है. फिल्म का निर्देशन आशीष बेंडे द्वारा किया गया है जो निर्देशिक
के रूप में उनकी पहली फिल्म है. यहां ख़ास बात यह है कि फिल्म के केन्द्रीय पात्र
का नाम भी आशीष बेंडे ही है. अदाकारी की बात करें तो किशोर आशीष के रूप में ओम
बेंडखले का अभिनय प्रभावशाली है साथ ही उनके दोस्तों के समूह में शामिल बाल
कलाकारों ने भी उनका अच्छा साथ दिया है.फिल्म के अन्य किरदार जिसमें आशीष के
माता-पिता, दादा-दादी, शिक्षक, पड़ोसी शामिल हैं,अपनी भूमिका में प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज
कराते हैं. वरिष्ठ कलाकार दीपक शिर्के को एकबार फिर से पर्दे पर देखना अच्छा लगता
है. वे आशीष के दादा की भूमिका में हैं.
आत्मपॅम्फ्लेट 73वें बर्लिन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म
महोत्सव में अपनी जगह बनाने में
कामयाब रही है.
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