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Establishment Of Political Parties From Islamic Point Of View इस्लामी दृष्टिकोण से राजनीतिक दलों की स्थापना

सलमान अब्दुस्समद

उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम

7 मई 2010

आज कल आम तौर से राजनीति का शब्द सुनते ही दिमाग में यह बाते उभरने लगती हैं कि दरअसल राजनीति भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, मक्कारी व अय्यारी, धोका बाज़ी व ऐबजुई और चुगलखोरी से इबारत है। राजनीति के संबंध में ऐसे बुरे तसव्वुर की वजह इसके सिवा कुछ और नहीं कि आज इक्का दुक्का और खाल खाल राजनीतिज्ञ ही मुश्किल से अपने राजनीतिक दामन को दाग धब्बे से बचा पाते हैं, वरना तो अधिकतर इस हमाम में एक जैसे होते हैं। इसलिए इसका सीधा मतलब यह निकलता है कि अपने आप में राजनीतिभ्रष्टाचार और फरेब देने से इबारत है। बात असल में यह है कि अपने आपमें राजनीति साफ़ व शफ्फाफ है, तथापि राजनीतिज्ञों की गलत पालिसियों और फूहड़ पन से वह बदनाम है। राजनीति की पाकीजगी इस तरह समझिये कि छुरी कांटने का औजार है, अलग अलग समय में अलग लग चीजें इससे काटी जाती हैं, फल फ्रूट और दूसरी चीजें इससे काटें तो अच्छा है, इसका प्रयोग यहाँ १०० प्रतिशत सही है, मगर इससे किसी पर हमला करना, नाहक खून बहाना, इसकी नोक पर राहजनी करना सरासर गलत बल्कि हराम है। इससे यह हकीकत वाशगाफ होती है कि छुरी अपने आप में कोई गलत औजार नहीं, बल्कि इसका गलत इस्तेमाल गलत है और सहीह जगह सही है। बिलकुल इसी उसूल पर राजनीति भी है।

यही कारण है कि इल्म वाले विशेषतः उलमा अगर राजनितिक गलियारों में तबा आज़माई करते हैं तो अनेकों लोग उनकी जोर आजमाई पर उंगली उठाते हैं, उन पर आलोचना की बौछार करते हैं। ऐसा मालुम पड़ता है जैसे देश व समाज की कामयाबी के लिए उनका राजनितिक मैदान में तबा आजमाई करना अपराध है। उनके इकदाम को किसी और संदर्भ में देखते हुए अत्यंत मस्त कहा जाता है और तो और बहुत से भोले भाले मुसलमान यह कहते शर्म महसूस नहीं करते हैं कि इस्लाम का राजनीति से कोई संबंध नहीं, भला उलमा राजनितिक मैदान में कैसे कदम जमा पाएंगे? मैदान मारने की सलाहियत ऐसे लोगों में होती है जो मैदान के नियम व कायदे से अवगत हों, उलमा केवल मस्जिदों और मदरसों के लिए ही उचित हैं, बकिया विभिन्न मैदानों में वह कूड़े हैं। हालांकि यह बातें बहुत सतही, गैर मुनासिब और कज फहमी पर आधारित हैं कि इस्लाम का राजनीति से कतई कोई वास्ता नहीं। हकीकत यह है कि कुरआन और हदीस में राजनीति के संबंध में अनेकों सिद्धांत और कायदे मौजूद हैं कि किस तरह राजनीति की जाएगी? कैसी राजनीति समाज के लिए लाभदायक है और कैसी हानिकारक? राजनीति के अहल कौन से लोग हो सकते हैं? राजनीति में किन किन पहलुओं को तरजीह हासिल हों?

इस बात को भी क़लम और किरतास के सपुर्द करना मुनासिब मालुम पड़ता है कि इस्लाम की तर्जुमानी आज इस पैराए में की जाती है, जिससे मालुम पड़ता है कि हकीकत में इस्लाम कुछ इबादतों के मजमुओं का नाम है। इस्लाम में वुसअत नहीं, इस्लाम तंगदस्त है, इस्लाम तो बहुत से बहुत इबादत व रियाज़त के लिए ज़र्री उसूल रखता है तथापि मुआमलात व मुआशरत का कोई अहम दर्स नहीं। नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज आदि के अहकाम व उसूल सबसे उपर इसमें मौजूद हैं मगर ज़िन्दगी के शोबों के लिए काबिले कद्र उसूल फराहम नहीं करता। ज़ाहिर बात है कि उलमा ही मा लहू वमा अलैह इस्लाम की तर्जुमानी कर सकते हैं, जब यही वर्ग इस्लामियात को जमान व मकान के हिसार में महदूद कर देंगे, कुछ इबादात को अपने बयानों के लिए विषय बनाएंगे, मुआमलात व मुआशरत से नजर हटा लेंगे तो इस्लाम से अपरिचित के लिए गलत अवधारणा कायम करना कुछ आश्चर्यजनक नहीं। आक़ा, मदनी मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और चारों खलीफा, जिस तरह इबादात की बजा आवरी में हमहतन मुन्हमिक थे, उसी तरह मुआमलात व मुआशरत के लिए सक्रीय, बल्कि कभी कभी इबादात पर मुआमलात ग़ालिब रहते थे। इसलिए हमें भी मुआमलात की तरफ ध्यान देना चाहिए।

पार्टी का क़यामे अमल:

कुरआन करीम में है। अनुवाद: और कुफ्फ़ार ये न ख्याल करें कि वह (मुसलमानों से) आगे बढ़ निकले (क्योंकि) वह हरगिज़ (मुसलमानों को) हरा नहीं सकते (59) और (मुसलमानों तुम कुफ्फार के मुकाबले के) वास्ते जहाँ तक तुमसे हो सके (अपने बाज़ू के) ज़ोर से और बॅधे हुए घोड़े से लड़ाई का सामान मुहय्या करो इससे ख़ुदा के दुश्मन और अपने दुश्मन और उसके सिवा दूसरे लोगों पर भी अपनी धाक बढ़ा लेगें जिन्हें तुम नहीं जानते हो मगर ख़ुदा तो उनको जानता है और ख़ुदा की राह में तुम जो कुछ भी ख़र्च करोगें वह तुम पूरा पूरा भर पाओगें और तुम पर किसी तरह ज़ुल्म नहीं किया जाएगा (60)। (अल अन्फाल: 59, 60) राजनीति के संबंध में इन आयतों को समझने के लिए निम्न की कुछ सैद्धांतिक बातों को मद्देनज़र रखना बहुत आवश्यक है, वरना ऐसा मालुम पड़ेगा कि उनसे कतई राजनीति का कोई संबंध नहीं।

बुनियादी सिद्धांत:

(1) कुरआन मजीद का समझना पुरी तरह शाने नुज़ूल पर मौकूफ है और न ही अमल के लिए इसी पर इसका इन्हेसार। यह स्पष्ट हो कि इसकी अहमियत व इफादियत की यकसर नकीर मकसूद नहीं, बल्कि औकाते इफ्हाम व तफहीम (समझने और समझाने) के लिए नुज़ूल के पृष्ठभूमि की वजाहत अपरिहार्य है, नुज़ूल के बिना बातें स्पष्ट नहीं हो पाती हैं। यह भी एक हकीकत मुसल्लम है कि शाने नुज़ूल पर तकिया कर लेने से आयतों से मसले उस वक्त के लिए मुस्तंबत करने में बहुत दुश्वारी पेश आती है जब कि तदब्बुर व तफ़क्कुर कर रहे हों। कुरआन एक आफाकी, लाफानी और लासानी किताब बल्कि जाब्ता ए हयात है, जिससे हर जमाने में मसले मुस्तंबत किये जाएंगे और हर वक्त रहनुमा उसूल हमें फराहम करता रहेगा।

(2) जिहाद और राजनीति के उद्देश्यों में एक तरह का सद्भाव है। जिहाद के बुनियादी उद्देश्यों में नुमाया तौर पर यह कारफरमा होते हैं, ‘दमन और आक्रमण का उन्मूलन, शांति की रक्षा, उत्पीड़ितों का समर्थन, शत्रुओं का नाश। अब जरा राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों पर विचार करें, यानी उनके लक्ष्य और उद्देश्य क्या हैं? बिना सोचे-समझे यह स्पष्ट हो जाएगा कि  ये बातें उनके घोषणापत्र में सबसे अलग हैं। इसलिए, इन उद्देश्यों को देखते हुए, जिहाद और राजनीति एक समान ही हैं।

(3) कुरआन दलील के एतिबार से नसे कतई है, इस्लाम का श्रोत है। नस की चार किस्में हैं। 1 इबारतुल नस। 2 इशारतुल नस। 3 दलालतुल नस। 4 इक्तेसा अल नस।यह स्पष्ट हो कि यह चारों नसे कतई हैं न की जन्नी अल सबूत। इसके बाद इसकी वजाहत भी कतई जरूरी है कि यहाँ केवल इबारतुल नस और दलालतुल नस ही बहस का मौजुअ हैं। इसलिए यही दोनों परिभाषा और उदहारण के साथ पेश किये जाएंगे।

इबारतुल नस: فہر ما سیق الکلام لا جلہकिसी गर्ज़ व मकसद के लिए जानबूझ कर कलाम किया जाए।

उदाहरण: ثم اتمو الصیام الی اللیل (अल बकरा) रोज़ा रात तक पूरा करो। कुरआन की आयत के इस टुकड़े से यह बात बिलकुल दो दो चार की तरह साफ़ है कि सुबह से शाम खाने और पीने और सोहबत से बचने का नाम रोजा है और यहाँ कलाम इसी वास्ते लाया गया कि सुबह से शाम तक रोजा रखना शुरू है।

दलालतुल नस: فہی ما علم اللحکم المنصوص علیہ لفۃ ولا اجتہا داو لا استنبا طاًबिना किसी इज्तेहाद व इस्तंबात के बर बिनाए लुगत जो इल्लतमालुम हो जाए वह दलालतुल नस है।

उदाहरण: ‘‘ فلا نقل لھا اف ولا تنھر ھما ’’ उन (मां-बाप) को उफ़ तक कहो न ही उन्हें झिड़को। इस आयत में मां बाप से सबसे ऊँचे दर्जे का सुलूक करने का हुक्म दिया गया है कि और तो और उन्हें उफ़तक न कहो। शब्द उफ़पर यह सवाल पैदा होता है कि इस आबो गुल के चमन के किसी इलाके में उफ़कहना दिलजुई और अच्छे कलाम से इबारत हो तो क्या वहाँ भी मां बाप को यह कहना मना होगा? इसे बस इस प्रकार समझिये कि उफ़कहने की मनाही हकीकत में दिल दुखाने की वजह से है। निचोड़ यह है कि बहस शब्द उफ़से नहीं बल्कि इसमें जो इल्लत दिलआज़ारीहै उसके कारण मना है।

आयत की व्याख्या जंग और जिहाद के संदर्भ में:

यह आयतें असल में बद्र के मौके पर नाजिल हुईं, बद्र जैसे काफिरों पर अल्लाह का अज़ाब था, बहुत से मुशरेकीन जंग में शरीक हुए और कुछ पीछे रह गए अर्थात जंग में शरीक नहीं हुए। जंग में शरीक न होने वाले तो दरकिनार बल्की जो आए थे उसमें से बहुत अपनी हालत खराब होती देखकर भाग निकले और इस वहम व गुमान में मुब्तिला थे कि अल्लाह उन्हें अज़ाब चखाने से आजिज़ व कासिर है। (नउज़ुबिल्लाह) इसलिए अल्लाह ने फरमाया ولا یحسن الذین کفرو اسبقوالا یعجزون कि भागने वाले और पीछे रहने वाले गलत फहमी में मुब्तिला न रहें। फिर अल्लाह ने उपर्युक्त आयत में जंगी हथियार की तैयारी के हुक्म देते हुए फरमाया ‘‘ واعدو الھم ما استطعتم ’’ अर्थात जितनी हो सके जंग के साज़ो सामान इस तरह मुहय्या करो कि गैर कौमें तुमसे डरी रहें। वह अल्लाह के दुश्मन और तुम्हारे दुश्मन जिन्हें तुम नहीं जानते सिवाए अल्लाह के सब डरे रहें। ताकि वह तुम्हें कम संख्या में होने और कमज़ोर समझ कर कुचलने की कोशिश न करें बल्कि उनके दिलों में ऐसी धाक बैठ जाए कि तुम से खुले आम दुश्मनी तो क्या, तुम्हारे लिए इस तरह तदबीरें करते हुए वह डरे रहें ‘‘ ترھبون بہہٖ عدو اللہ وعدو کم’’। (जारी)

Urdu Article: Establishment Of Political Parties From Islamic Point Of View سیاسی پارٹیوں کا قیام اسلامی نقطہ نظر سے

URL: https://www.newageislam.com/hindi-section/establishment-political-parties-islamic-point/d/126066

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