New Age Islam
Sun Oct 13 2024, 04:11 AM

Hindi Section ( 12 Feb 2014, NewAgeIslam.Com)

Comment | Comment

Lavish Spending and Dowry: The Cause of Social Ills फिज़ूल ख़र्ची और दहेजः सामाजिक बुराइयों के कारण

 

सायरा इफ्तिखार

25 जून, 2013

दहेज अरबी भाषा के शब्द 'जहाज़' से लिया गया है जिसका अर्थ उस साज़ो सामान के हैं जिसकी किसी भी मुसाफिर को सफ़र के दौरान ज़रूरत होती है या दुल्हन को घर बसाने के लिए ज़रूरत होती है या इसका मतलब ऐसा सामान है जो मैय्यत को कब्र तक पहुंचाने के लिए इस्तेमाल होता है।

दहेज की रस्म हिन्दू प्रथा है। इस्लाम में निकाह के वक्त खजूर या शिरनी (मिठाई) बांटना और निकाह के बाद हैसियत के मुताबिक दावते वलीमा इस्लामी रिवाज है। जहाँ तक दहेज का सम्बंध है इस्लाम में इसकी कोई कल्पना नहीं मिलती। गैर-मुस्लिम समाजों में शादी के वक्त लड़की को दहेज दिया जाता है, इसलिए मुसलमानों ने भी हिन्दुओं की इस बुरी रस्म को अपना लिया है और अब हम भी इस बुरी रस्म की सज़ा भुगत रहें हैं। अगर क़ुरान को पढ़ें तो दहेज की कोई कल्पना नहीं मिलती। इसी तरह हदीस में भी दहेज की कोई कल्पना नहीं है। सिहाहे सित्ता, दूसरी विचारधाराओं और फ़िक़्हा (धर्मशास्त्र) की किताबों में हमें दहेज की कोई कल्पना नहीं मिलती है।

इस्लाम के पारिवारिक कानून में इन विषयों पर विस्तार से वर्णन किया गया है।(1) शादी (2) तलाक़ (3) नान नुफ्क़ा (भरण पोषण का खर्च) (4) संपत्ति में हिस्सा (5) महेर और औरत के दूसरे इस्लामी अधिकार के पारिवारिक कानून में दहेज का कोई उल्लेख नहीं है।

''तुम अपनी ताक़त के मुताबिक़ जहां तुम रहते हो वहाँ उन (तलाक़ वाली) औरतों को रखो और उन्हें तंग करने के लिए तकलीफ़ न पहुँचाओ और अगर वो हमल (गर्भावस्था) से हों लेकिन जब तक बच्चा पैदा हो ले उन्हें खर्च देते रहा करो। फिर अगर तुम्हारे परिवार से वही दूध पिलाएँ तो तुम उन्हें उनकी उजरत (मेहनताना) दो''

औरतों की बुनियादी ज़रुरतों को पूरा करना मर्द पर फ़र्ज़ है और यही बुनियादी ज़रुरतें दहेज की शक्ल में मर्द पूरी करता है। आधुनिक दौर के मशहूर इस्लामी विद्वान (धर्मशास्त्री) इमाम मोहम्मद अबु ज़हरा ''मक़ाउल बैत'' में लिखते हैं, ''घरेलू साज़ो सामान की तैयारी पति पर अनिवार्य है। हक़े महेर दहेज का बदला नहीं हो सकता क्योंकि वो सिर्फ और सिर्फ भेंट है जैसा कि क़ुरान ने इसका नाम नहलता (भेंट) रखा।'' एलाक़ा सैय्यद साबिक लिखते हैं, ''घर की शरई तैयारी और घर के लिए हर उस सामान का उपलब्ध करना जिसकी उसे ज़रुरत होती है जैसे सामान, बिस्तर और बर्तन इत्यादी, ये पति की ज़िम्मेदारी है।''

शादी नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की सुन्नत है। ये एक पवित्र बंधन है। ये न सिर्फ लड़के और लड़की को शादी के रिश्ते में जोड़ता है बल्कि दो परिवारों के मिलाप का भी ज़रिया है। इस्लाम ने शादी के रिश्ते को एक आसान काम बनाया है। फिज़ूल ख़र्ची और दहेज की इस्लाम में बिल्कुल गुंजाइश नहीं है। हमारे प्यारे नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का पूरा जीवन इस्लाम का व्यवहारिक नमूना था। आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने अपने अमल से दहेज जैसी रस्म को गलत करार दिया।

सवाल ये पैदा होता है कि क्या हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने हज़रत फातिमा रज़ियल्लाहू अन्हा को दहेज दिया? क्या आपने अपनी दूसरी बेटियों हज़रत ज़ैनब रज़ियल्लाहू अन्हा, हज़रत रक़बा रज़ियल्लाहू अन्हा, हज़रत रोक़ैय्या रज़ियल्लाहू अन्हा को भी दहेज दिया? हज़रत ज़ैनब रज़ियल्लाहू अन्हा की शादी उनके मौसेरे भाई अबुल आस बिन रबी बिन लक़ीत से हुई। हज़रत रोक़ैय्या रज़ियल्लाहू अन्हा का इंतेक़ाल हुआ तो रबीउल अव्वल के महीने में हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहू अन्हा ने हज़रत उम्मे कुल्सुम रज़ियल्लाहू अन्हा के साथ निकाह कर लिया। हाफिज़ मोहम्मद सादुल्लाह अपने लेख, ''दहेज की शरई हैसियत' में लिखते हैं कि ''नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के दौर में सिवाए हज़रत फातिमा रज़ियल्लाहू अन्हा की शादी के मौक़े के कोई ऐसी शादी नज़र नहीं आती कि शादी के मौक़े पर बीवी की तरफ से दहेज का सामान दिया गया हो। हज़रत फातिमा रज़ियल्लाहू अन्हा के दहेज के समान की तैयारी की अग्रिम आवश्यकता भी सिर्फ इसलिए पेश आई कि हज़रत अली रज़ियल्लाहू अन्हा आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम पर निर्भर थे और उनका अलग मकान या घरेलू समान न था। वरना आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की बाक़ी तीनों बेटियों की शादी के मौक़े पर ऐसा नहीं हुआ और न ही आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की अपनी बीवियों से निकाह के मौके पर किसी प्रकार का दहेज दिया गया है।'' (पेज 149)

आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने अपनी बेटी हज़रत फातिमा रज़ियल्लाहू अन्हा जिनको अल्लाह ने जन्नत की औरतों का सरदार होने की खुशखबरी सुनाई थी, की शादी के मौक़ा पर एक जाए-नमाज़, एक तकिया और मिट्टी के कुछ बर्तन दिए थे। लेकिन ये हज़रत अली रज़ियल्लाहू अन्हा के कवच की रक़म से दिए गए थे। इस्लाम ने शादी को एक आसान अमल बनाया है। फ़िज़ूल ख़र्ची और दहेज की इस्लाम में कोई गुंजाइश नहीं है। आज शादी ने एक समस्या और एक कारोबार का रूप ले लिया है। माँ-बाप लड़के की परवरिश और शिक्षा पर खर्च की गई रक़म को दहेज की सूरत में कैश कराते हैं। उनके अनुसार ये उनका हक़ है कि उन्हें उनकी सेवा का मुआवज़ा मिले और माँ बाप जो बड़ी मुश्किल से और मेहनत से अपने बच्चियों को पढ़ाते लिखाते हैं उनकी बेहतरीन तरबियत देते है और ज़रुरतों को पूरा करते हैं, शादी के वक्त अपनी जान से प्यारी बेटी को न सिर्फ खुद से उम्र भर के लिए जुदा करते हैं बल्कि उन्हें इस जुदाई की क़ीमत भी अदा करनी होती है, बल्कि कुछ बद किस्मत माँ बाप शादी के बाद भी लड़के वालों की माँगों को पूरा करते हैं।

25 जून, 2013 स्रोतः दैनिक क़ौमी सलामती, नई दिल्ली

URL for Urdu article: https://newageislam.com/urdu-section/lavish-spending-dowry-cause-social/d/12596

URL for this article: https://newageislam.com/hindi-section/lavish-spending-dowry-cause-social/d/35705

Loading..

Loading..