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Hindi Section ( 7 Jun 2012, NewAgeIslam.Com)

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Islamism and the Internet: Is there a Hyperlink? इस्लामियत और इंटरनेट: क्या कोई रब्त है?


सैफ शाहीन, न्यु एज इस्लाम

इस्लामियत गुज़श्ता दो दहाईयों से दुनिया भर में एक रुझान बन गया है, जो जज़ीरा नुमा अरब के अंदरूनी हिस्सा की बंजर ज़मीन और अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान की सरहद पर वाक़े दूर दराज़ के मदारिस से निकल कर शहरों और कस्बों, कॉलिजों और दफ़ातिर और हमारे खेल के मैदानों और हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी और ड्राइंग रूम्स में दाख़िल हो गया है। इसी मुद्दत में इंटरनेट मवासलात आम्मा का एक आलमी ज़रिया बन गया है जिसने असल में हर एक को आपस में जोड़ दिया है।

क्या इनका आपस में कोई ताल्लुक़ है?

बेशक, दोनों रुझानों के दरमियान बराहे रास्त रब्त है। लोग, खासतौर पर नौजवान, इंटरनेट पर इस्लामी तालीमात से मुताअस्सिर हैं। कई इस्लामी तंज़ीमें सरगर्मी से अपने नज़रिए को फ़रोग़ दे रही हैं और नए मोम्बरों को ऑनलाइन तलाश कर रही हैं। वो इंटरनेट का इस्तेमाल आपस में राबिता के लिए और पूरी दुनिया में अपनी सरगर्मियों में को-आर्डीनेशन के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं।

लेकिन इनमें एक गहिरा रिश्ता भी है? क्या इंटरनेट इस्लामी इंतेहापसंदों के ज़रीया फैलाई जानी वाली वबा में सिर्फ सहूलत फ़राहम करने के तौर पर रहा है? क्या इसने अपने तरीक़े से शैतानियत को तख़लीक़ करने में मदद की है?

आम तौर पर इंटरनेट और डीजिटल टेक्नोलोजी के बारे में मुताले से पता चलता कि बहुत बुनियादी तरीक़ों में हम अपने आपको, अपने ताल्लुक़ात और अपने मुआशरे को किस तरह समझते हैं इसमें तब्दीली आ रही है। कुछ मुताला पुरउम्मीद हैं और उनकी दलील है कि इंटरनेट, मुतनव्वे सक़ाफ़्तों के लोगों को एक साथ लाने की सलाहियत कसीर सक़ाफ़्ती नज़रिया, रौशन खयाली और लिबरल सोच को फ़रोग़ देता है।

लोग तमाम किस्म के लोगों के साथ चैट रूम्स में बातचीत करते हैं और वेबसाईट्स पर दीगर सक़ाफ़्तों और तहज़ीबों के बारे में पढ़ते हैं और बुलेटिन बोर्ड्स पर ताज़ा ख़्यालात से रूबरू होते हैं। ये उन्हें समाजी एतबार से और ज़्यादा ज़िम्मेदार और इख़्तेलाफ़ात को क़बूल करने वाला बनाता है। मुख़्तसर में, इंटरनेट दुनिया में एक बहुत बड़ा और ख़ुशहाल ख़ानदान बना रहा है।

तारीक पहलू (डार्क साईड)

गरचा, बाज़ दूसरे मुताले काफ़ी मायूसकुन हैं। इनका दावा है कि इंटरनेट के इस्तेमाल का असल पैटर्न मिसाली से दूर है। लोग आमतौर पर सिर्फ उन वेबसाईट्स पर जाते हैं जो कि खासतौर पर एक नुक़्तए नज़र के हामिल हैं। बेशक, आर.एस.एस. फ़ीड्स के ज़रिए उन्हें अपने डेस्कटॉप पर बहुत ही मख़सूस किस्म की ख़बरें और आरा मिलती हैं। अपने लिए कारआमद और मख़सूस बनाने के आलात उनकी ऑनलाइन सरगर्मियों को मज़ीद बेहतर बनाने में मदद करते हैं।

फेसबुक और ट्विटर पर वो अपने जैसों से राबिता करते हैं और टेक्नालोजी उन्हें बाक़ी लोगों को फिल्टर करने में मदद करती है। इस तरह, राह में हाइल रुकावटें ख़त्म करने के बजाय, इंटरनेट लोगों को अपने इर्दगिर्द और अपनों के दरमियान दीवारें खड़ी करने में मदद कर रहा है। तनव्वो को फ़रोग़ देने के बजाय, ये सक़ाफ़्ती क़दामत परस्ती में इज़ाफ़ा कर रहा है।

नफ़्सियाती मुताला के मुताबिक़ हक़ीक़त ये है कि लोग ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त ऑनलाइन रहने में सर्फ कर रहे हैं और ये ख़ुद में एक परेशानी की बात है: इस का मतलब है कि वो "हक़ीक़ी दुनिया" और "असल लोगों" के साथ मुलाक़ात और "असली रिश्तों" को बनाने में बहुत कम वक़्त सर्फ़ कर रहे हैं। और ये बुरी लत है। इसी तरह मोबाइल फ़ोन के साथ, इंटरनेट इस अमर को यक़ीनी बनाता है कि अब लोगों के साथ बराहे रास्त राबिता तक़रीबन ख़ुसूसी तौर पर अब कुछ किस्म की टेक्नोलोजी के साथ राबिता है: दोस्ती, ख़ानदानी ताल्लुक़ात और यहां तक की मोहब्बत में भी सालिसी का काम अब सेल फ़ोन, टैब्लेट्स और लैपटॉप्स कर रहे हैं। समाजी ज़िम्मेदारी को बढ़ाने के बजाय, ये तब्दीलियां ख़ुद मुआशरे को नुक़्सान पहुंचा रही हैं।

ये जायज़े, ज़्यादा तर अमेरीका और यूरोप में किए गए हैं, कम अज़ कम जुज़वी तौर पर इंटरनेट और दीगर डीजिटल टेक्नोलोजी के नुक़्सानदेह नफ़्सियाती और समाजी असरात की वजह से तारकीने वतन का ख़ौफ़, ज़ीनोफोबिया और मग़रिब में इस्लामोफोबिया बढ़ रहा है।

क्या इस्लामियत के शोलों को उन्हीं हवाओं की तरफ़ से ताकत दी गई है? एक ही सतह पर, दुनिया को एक छोटी जगह बना कर, इंटरनेट ने यक़ीनी तौर पर मुसलनों के लिए ये आसान कर दिया है कि वो ख़ुद को आलमी उम्मत का एक हिस्सा महसूस करें। मेरी नज़र में जो ख़ुद, एक मुस्बत पेशरफ़्त है। लेकिन क्या इंटरनेट ने ब-यकवक़्त इस्लामी ख़ौफ़, बद एतेमादी और "दूसरों" से नफ़रत को ताक़त दी है जो मग़रिब में ज़ीनोफोबिया और इस्लामोफोबिया से मुख़्तलिफ़ नहीं है?

इसके इलावा दूसरी सतह पर, क्या इंटरनेट ने ब-यकवक़्त इस्लामी उम्मत को ज़ेली ग्रुपों में बंट जाने में मदद की है? फ़िरक़ावाराना हदूद में इज़ाफ़ा हो रहा है जैसे कि वो ख़ुद को मुसलमान मानते हैं और दीगर मुसलमानों पर सुन्नी, शिया, वहाबी, अहमदी वग़ैरा का लेबल लगाते हैं। बेशक ये तक़्सीम नई नहीं है, लेकिन यक़ीनी तौर पर ऐसा लगता है कि ये अचानक से हालिया बरसों में हमारे लिए ज़्यादा अहम बन गए हैं। वेबसाईट्स और फेसबुक/ ट्विटर ग्रुप मज़ीद छोटी कम्युनिटीज़ तश्कील देने की इजाज़त देते हैं इसके बावजूद इसके अरकान दुनिया भर में होते हैं।

दहश्तगर्दी का जाल

इस्लामी दहश्तगर्दी के बारे में क्या ख़्याल है? ज़िंदगी के तईं दहश्तगर्दों की बेहिसी और बड़े पैमाने पर तशद्दुद के उनके हरबे की सर्द-मोहरी समाजी तौर पर मुनक़ते होने को ज़ाहिर करती है जिसे क़ुनूती लोग इंटरनेट से मंसूब करते हैं। अमली जायज़े जो क़तई तौर पर ताल्लुक़ को साबित कर सकते हैं लेकिन इस पर अमल करना मुश्किल है (दहश्तगर्द बमुश्किल ही ख़ुद को सर्वे के लिए पेश करते हैं)। लेकिन कुछ मुताले एक रब्त की तरफ़ इशारा करते हैं।

अफ़ग़ानिस्तान में सी.आई.ए. के एक साबिक़ अफ़्सर और अमेरीकी हुकूमत के इन्सिदाद दहशतगर्दी कन्सलटेंट, मार्क सीजमैन ने तक़रीबन 500 ग़ैर मुल्की इस्लामी दहश्तगर्दों की ज़िंदगी का जायज़ा लिया है जो वहां अमेरीका को निशाना बनाने के लिए पहुंचे थे। सीजमैन लिखते हैं कि "ज़्यादा तर लोगों का ख़्याल है कि दहश्तगर्दी ग़ुर्बत, मुनक़ते ख़ानदानों, जेहालत, बचपने, ख़ानदानी या पेशावराना ज़िम्मेदारीयों की कमी ... के सबब सामने आती है। मेरे नमूने का तीन चौथाई हिस्सा ऊपरी या मुतवस्सित तब्क़े से ताल्लुक़ रखता है। 90 फ़ीसद की वसी अक्सरीयत ख़्याल रखने वाली और आपस में जुड़े ख़ानदानों से आते हैं। आम तौर से तीसरी दुनिया के 5-6 फ़ीसद के मुक़ाबले तिरसठ फ़ीसद कॉलिज के तालिबे इल्म रहे हैं। कई मानों में ये अपने मुआशरे के सबसे बेहतर और रौशन मुस्तक़बिल वाले थे"।

साजमैन के दहश्तगर्दों के नमूने में से हर चार में से तीन पेशावर या नीम पेशावर अफ़राद थे। इनमें बहुत से इंजीनियर, मुअम्मार और साईंसदान थे। मुख़्तसर में, ये तमाम ऐसे लोगों में से थे जिनके बारे में तवक़्क़ो की जा सकती है कि ये बाक़ायदा इंटरनेट के सारिफ़ीन हो सकते थे। ऐसे नौजवान जो एक हक़ीक़त के तौर पर इंटरनेट और दीगर डीजिटल टेक्नोलोजी के साथ पले बढ़े हों, यहां तक कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी की एक ज़रूरत के लिए भी।

तब, क्या इंटरनेट इस्लामी इंतेहापसंदों के रुझानात की हौसला अफ़्ज़ाई करता है या उनको जन्म देता है? क्या इस का असर ज़हरीला है जो मग़रिब में इस्लामोफोबिया के तौर पर और मुसलमानों के दरमियान इस्लामियत के तौर पर ज़ाहिर होता है? मेरे नज़दीक इसका आसान जवाब नहीं हो सकता है लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि इन सवालात को पूछा नहीं जाना चाहिए।

इंटरनेट बाक़ी रहने और फ़रोग़ पाने वाला है, और इसके समाजी और नफ़्सियाती असरात को समझना ज़रूरी है। यहां तक कि अगर क़ुनूती इसके रुजअत पसंदाना असरात के बारे में दरुस्त कह रहे हों, रजाईयत पसंद भी कम अज़ कम इसकी समाजी हम आहंगी और सक़ाफ़्ती और दानिश्वराना तनव्वो (NewAgeIslam  उसकी एक शानदार मिसाल है) को फ़रोग़ देने के सलाहियत के बारे में बात करने में ग़लत नहीं हैं। बहेस को जारी रहने दें ...

सैफ शाहीन, ऑस्टिन, में वाक़े टेक्सास यूनिवर्सिटी में रिसर्च स्कालर हैं। वो न्यु एज इस्लाम के लिए बाक़ायदगी से कालम लिखते हैं।

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