सैफ शाहीन, न्यु एज इस्लाम
पिछले कुछ समय से बुर्का और दाढ़ी मुसलमानियत के रस्मी ऐलान (औपचारिक घोषणा) का ज़रिया रहे हैं। आप दुनिया में कहीं भी बुर्का पहने औरत को देखकर समझ जाते हैं कि वो एक मुसलमान औरत है। दाढ़ी अभी तक विशेष रूप से सिर्फ मुसलमान की पहचान नहीं बनी है लेकिन शानदार बिना कटी दाढ़ी वाले, खास तौर से साफ मूंछों के साथ वाली दाढ़ी वाले, मुसलमानों की पहचान बनने के करीब हैं।
इस्लामी ऐतबार से इनमें से किसी के बारे में बुनियादी तौर पर कुछ भी लाज़िमी नहीं है। कुरान, महिलाओं के लिए बुर्का पहनने को लाज़िमी नहीं करता है ये सिर्फ सभी मुसलमान मर्दों और औरतों को सीधे सादे तरीके के कपड़े पहनने को कहता है। और न ही ये मर्दों के दाढ़ी रखने पर इसरार करता है। इसके लिए अक्सर दलील दी जाती है कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम दाढ़ी रखते थे और इसलिए ऐसा करना सुन्नत है। लेकिन सुन्नत वो होती है जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को दूसरों से अलग करती थी और आप (स.अ.व.) की दाढ़ी यक़ीनी तौर पर ऐसा नहीं करती थी। यहाँ तक कि आप (स.अ.व.) के सबसे बड़े दुश्मन अबु लहेब और अबु जहेल भी दाढ़ी रखते थे। किसी भी सूरत में, बहुत से दाढ़ी वाले मुसलमान बड़ी तादाद में ऐसी दूसरी चीज़ों के बारे में नहीं जानते हैं जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने किया, वो खास है या नहीं।
तो बुर्का और दाढ़ी मुसलमानों के पहचान की इतनी बड़ी अलामत आज क्यों बन गए हैं? बहुत से मुल्ला क्यों इस पर इसरार करते हैं कि जिंस की बुनियाद पर आप एक मुसलमान नहीं हो सकते हैं अगर आप बुर्के वाली या दाढ़ी वाले नहीं हैं? अफगानिस्तान में तालिबान, पाकिस्तान में उनसे जुड़े समूहों और दुनिया के दूसरे हिस्सों में आतंकवादी जो इन पर अमल नहीं करते हैं उन्हें मार देने की धमकी क्यों देते हैं?
शायद इसलिए कि बुर्का और दाढ़ी व्यक्तिगत पहचान को समाप्त करने की हद तक तब्काती (वर्ग) पहचान को लागू करने का सबसे शक्तिशाली साधन है।
हमारी पहचान के बारे में सामाजिक मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि इसका निर्माण सामाजिक रूप से हुआ है। हम खुद को दूसरों की नजरों से देखते हैं, और हम उसी के मुताबिक खुद को "तामीर" करते हैं। ऐसे समाज में जहां वयक्तिवाद महत्वपूर्ण हो, व्यक्तिगत पहचान पवित्र बन जाती है और लोग दूसरों से अलग नजर आने के लिए सभी कदम उठाते हैं। अमेरिकी की 'पंक (Punk) संस्कृति इसकी मिसाल है।
लेकिन, जब दूसरे हमें एक व्यक्ति के रूप में न देखकर बल्कि बिना भेदभाव के एक वर्ग के हिस्से के रूप में देखते हैं, तब इस तरह हम खुद के बारे में सोचना शुरू करते हैं। एक व्यक्ति के रूप में हमारी पहचान वर्ग की संस्कृति और और उसकी प्रकृति के समुद्र में घुल मिल जाती है। हम अपनी निजी पसंद को समूह के विश्वासों और समूह की सोच में शामिल होने के लिए छोड़ देते हैं।
बुर्का और दाढ़ी यही काम करते हैं। अपने चेहरे की लंबाई से दो गुनी ज़्यादा लंबी दाढ़ी वाला आदमी दूसरों के लिए एक व्यक्ति नहीं रह जाता है। इसके आसपास के लोग उसका चेहरा, उसकी आँखें, उसकी नाक या उसके होंठ नहीं देखते हैं बल्कि वो सिर्फ उसकी दाढ़ी देखते हैं और उससे जुड़े अर्थ को समझते हैं। उनके लिए वो सिर्फ दुनिया की आबादी में मुसलमानों के भीड़ का हिस्सा बन जाता है, और इससे ज़्यादा कुछ नहीं। एक औरत के लिए भी यही सच है।
और क्योंकि वो दूसरों के लिए बिना चेहरे का और सपाट बन जाता है, इसलिए वो अपने मन में भी व्यक्तिवाद का एहसास खो देते हैं और मुसलमानियत की भीड़ के मौज़ू बन जाते हैं। इनके विश्वास, भावनाएं और विचार बाकायदगी के साथ समूह के आदेश के मुताबिक हो जाते हैं। इसमें एक व्यक्ति के रूप में बहुत कुछ कम बचता है। इसके अलावा, वो अपने जैसे एक समूह में स्थिर हो जाते हैं, और इस तरह उन सभी लोगों से अलग और असम्बंधित हो जाते हैं जो समूह के सदस्य नहीं हैं।
मुल्ला लोगों के लिए ऐसे लोगों के मन और उनके व्यवहार को नियंत्रित करना मुश्किल बिल्कुल नहीं है। इस्लाम के नाम पर कोई भी दावा कीजिए, बुर्के वालियाँ और दाढ़ी वाले इससे सहमत होंगे और इस पर अमल करेंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि ये दावा सही है या नहीं, या वास्तव में इस्लामी शिक्षाओं के अनुरूप हैं या नहीं। तार्किक सोच से खाली और व्यक्तिगत पसंद से वंचित बुर्के वालियाँ और दाढ़ी वाले उसी के मुताबिक सोचना, महसूस और अमल करेंगे जिनका उन्हें हुक्म दिया गया है।
कई औरतें जो बुर्का पहनती हैं वो बड़े गर्व से ऐलान करती हैं कि वो ऐसा काम करने में अपने "व्यक्तिगत अधिकार" का उपयोग कर रही हैं। मुश्किल से ही उन्हें ये लगता है कि वास्तव में वो उसके विपरीत काम कर रही हैं। अपने अधिकारों में से बहुत ही निजी अधिकार का त्याग कर रही हैः उनके व्यक्तित्व, उनके एक व्यक्ति के रूप में रहने का अधिकार।
मुसलमान अक्सर शिकायत करते हैं कि दूसरे उन्हें दकियानूसी बताते हैं। लेकिन "इस्लामी" दाढ़ी बढ़ाने या बुर्का पहन कर वो खुद को अपने मन में दकियानूसी बना रहे हैं। वो अलामतों से इस्लाम की व्याख्या करते हैं और एक व्यक्तिगत आस्था की तुलना में एक समूह की पहचान तक ही सीमित हैं। वो दिन दूर नहीं जब दाढ़ी और बुर्का सिर्फ मुसलमानियत की अलामत नहीं रहेंगे बल्कि खुद इस्लाम बन जाएंगे। मरने के अधिकार और हत्या करने की जिम्मेदारी की पवित्रता को बनाए रखने के मुकाबले ये मज़हब से थोड़ा ज़्यादा बन गए हैं।
इसमें शक नहीं कि समूह की पहचान बुरी चीज नहीं है। किसी धार्मिक या अन्य समूह के हिस्से के तौर पर खुद के बारे में सोचना - हमें निजी तकलीफ को दरकिनार कर दूसरों की मदद करने, सामाजिक कल्याण के लिए काम करने को प्रोत्साहित करेगा। लेकिन ऐसा करने के लिए हमें ज़ी-शोऊऱ (चेतन मनुष्य) इंसान के तौर पर विचार करना छोड़ने की जरूरत नहीं है। और जब अल्लाह ने हम लोगों को व्यक्तिगत चेतना दी है तो हमें अपनी व्यक्तिगत पहचान से किसी भी कीमत पर छोड़ने की जरूरत नहीं है।
सैफ शाहीन, आस्टिन स्थित टेक्सास विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कालर हैं।
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