सुहैल अरशद, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
28 अक्टूबर, 2021
कुरआन न केवल पिछली आसमानी किताबों के संदेशों की पुष्टि करता
है बल्कि उन्हें अपडेट भी करता है
प्रमुख बिंदु:
1. कुरआन सामूहिक रूप से अहले किताब के साथ दुश्मनी का
विचार पेश नहीं करता है
2. कुरआन अहले किताब को अपने सहिफों के अनुसार अपना जीवन
जीने की अनुमति देता है
3. मुसलमानों को सलाह दी जाती है कि वे अहले किताब से बातचीत
करें
4. कुरआन एक ऐसे समाज की अवधारणा को प्रस्तुत करता है जिसमें
सभी धर्मों के लोग शांति से रहते हैं
5. नबी के बिना पृथ्वी पर कोई उम्मत या कौम नहीं हुई और
ऐसा कोई नबी नहीं है जिसे किताब न मिली हो
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कुरआन पाक खुदा द्वारा नबियों पर नाज़िल की गई आसमानी किताबों में से अंतिम है। ज़बूर, तौरात, बाइबिल और कुरआन चार अन्य प्रसिद्ध पवित्र किताबें हैं जिन्हें खुदा ने दुनिया भर में कई अन्य किताबों के अलावा नाज़िल किया है, जिन्हें मुसलमान न तो पूरी तरह से स्वीकार करते हैं और न ही उन्हें जानते हैं। कुरआन आखिरी आसमानी किताब है जिसमें पिछली किताबों के इलाही पैगामात का उल्लेख है। कुरआन के अनुसार, बिना पैगंबर के पृथ्वी पर कोई कौम या उम्मत नहीं हुई है और बिना किताब के कोई पैगंबर नहीं आया है। एक हदीस के अनुसार, दुनिया के सभी कोनों में 124,000 पैगंबर भेजे गए हैं। इसलिए कुरआन को ज़िक्र (स्मरण) भी कहा जाता है। कुरआन न केवल पहले की आसमानी किताबों के संदेशों की पुष्टि करता है बल्कि अहले किताब के अकीदों में पैदा होने वाले फसाद को भी ठीक करता है।
कुरआन अहले किताब को तौहीदी धर्मों के एक ही परिवार का सदस्य मानता है और इसी तरह अहले किताब का उल्लेख करने और उनके साथ व्यवहार करने का एक व्यावहारिक दृष्टिकोण रखता है।
कुरआन अहले किताब के साथ सामूहिक रूप से दुश्मनी की परिकल्पना नहीं करता है, बल्कि केवल अहले किताब को चेतावनी देता है जो भटक गए हैं और सही रास्ते से हट गए हैं। यह अहले किताब के उन सदस्यों की प्रशंसा करता है जो रास्तबाज़ हैं और खुदा और आखिरत में विश्वास करते हैं, अच्छा काम करते हैं और बुराई से बचते हैं, ज़कात देते हैं और नमाज़ अदा करते हैं।
कुरआन की आयतों से यह एक बार फिर स्पष्ट है कि अल्लाह पाक बहुलवादी समाज में अहले किताब के अधिकारों को बताता है। ईसाई और यहूदी अपने निजी कानूनों के साथ तब तक शांति से रह सकते हैं जब तक वे अशांति का कारण नहीं बनते।
“(ऐ रसूल) तुम कह दो कि ऐ अहले किताब जब तक तुम तौरेत और इन्जील और जो (सहीफ़े) तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से तुम पर नाज़िल हुए हैं उनके (एहकाम) को क़ायम न रखोगे उस वक्त तक तुम्हारा मज़बह कुछ भी नहीं और (ऐ रसूल) जो (किताब) तुम्हारे पास तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से भेजी गयी है (उसका) रश्क (हसद) उनमें से बहुतेरों की सरकशी व कुफ़्र को और बढ़ा देगा तुम काफ़िरों के गिरोह पर अफ़सोस न करना”
कुरआन में यहूदियों के गलत कामों और गुनाहों का ज़िक्र है लेकिन साथ ही यह इस हकीकत को भी स्वीकार करता है कि सारे यहूदी गुनाहगार या ज़ालिम नहीं हैं। उनमें से एक वर्ग नेक और ईमान वाला भी है।
“ग़रज़ यहूदियों की (उन सब) शरारतों और गुनाह की वजह से हमने उनपर वह साफ़ सुथरी चीजें ज़ो उनके लिए हलाल की गयी थीं हराम कर दी और उनके ख़ुदा की राह से बहुत से लोगों को रोकने कि वजह से भी (160) और बावजूद मुमानिअत सूद खा लेने और नाहक़ ज़बरदस्ती लोगों के माल खाने की वजह से उनमें से जिन लोगों ने कुफ़्र इख्तेयार किया उनके वास्ते हमने दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है (161) लेकिन (ऐ रसूल) उनमें से जो लोग इल्म (दीन) में बड़े मज़बूत पाए पर फ़ायज़ हैं वह और ईमान वाले तो जो (किताब) तुमपर नाज़िल हुई है (सब पर ईमान रखते हैं) और से नमाज़ पढ़ते हैं और ज़कात अदा करते हैं और ख़ुदा और रोज़े आख़ेरत का यक़ीन रखते हैं ऐसे ही लोगों को हम अनक़रीब बहुत बड़ा अज्र अता फ़रमाएंगे (162)” (अन निसा: 160-162)
उपरोक्त आयतों से स्पष्ट है कि कुरआन यहूदियों या किसी अन्य धार्मिक समूह को काफिर नहीं मानता। बल्कि उनमें से केवल काफिरों के लिए ही दर्दनाक अज़ाब है। लेकिन उनमें से जो ज़कात देते हैं, नमाज़ अदा करते हैं और खुदा की वहदानियत (एकता) और आखिरत के दिन पर दृढ़ता से विश्वास करते हैं, उन्हें आख़िरत में पुरस्कृत किया जाएगा।
कुरआन की अन्य आयतें इस बात की पुष्टि करती हैं कि सभी यहूदी विद्रोही नहीं हैं। बल्कि, उनमें से एक वर्ग खुदा की नज़र में वफादार भी है।
“और अगर अहले किताब भी (इसी तरह) ईमान लाते तो उनके हक़ में बहुत अच्छा होता उनमें से कुछ ही तो ईमानदार हैं और अक्सर बदकार” (आले इमरान: 110)
“और ये लोग भी सबके सब यकसॉ नहीं हैं (बल्कि) अहले किताब से कुछ लोग तो ऐसे हैं कि (ख़ुदा के दीन पर) इस तरह साबित क़दम हैं कि रातों को ख़ुदा की आयतें पढ़ा करते हैं और वह बराबर सजदे किया करते हैं (113) खुदा और रोज़े आख़ेरत पर ईमान रखते हैं और अच्छे काम का तो हुक्म करते हैं और बुरे कामों से रोकते हैं और नेक कामों में दौड़ पड़ते हैं और यही लोग तो नेक बन्दों से हैं (114)” (आले इमरान: 113-114)
कुरआन स्पष्ट रूप से कहता है कि अहले किताब समान नहीं हैं और उनमें से एक नेक वर्ग भी है। इसलिए, अहले किताब के पूरे समूह को काफिर घोषित करार देना यह कुरआन के सिद्धांत के अनुसार नहीं है।
“और अहले किताब में से कुछ लोग तो ऐसे ज़रूर हैं जो ख़ुदा पर और जो (किताब) तुम पर नाज़िल हुई और जो (किताब) उनपर नाज़िल हुई (सब पर) ईमान रखते हैं ख़ुदा के आगे सर झुकाए हुए हैं और ख़ुदा की आयतों के बदले थोड़ी सी क़ीमत (दुनियावी फ़ायदे) नहीं लेते ऐसे ही लोगों के वास्ते उनके परवरदिगार के यहॉ अच्छा बदला है बेशक ख़ुदा बहुत जल्द हिसाब करने वाला है” (आले इमरान: 199)
कुरआन तसलीस के सिद्धांत को खारिज कर देता है, जिसे ईसाइयों के एक वर्ग द्वारा भी माना जाता है, और जिसने मध्य युग में ईसाइयों के बीच मतभेद पैदा कर दिया है, जिससे ईसाई समुदाय में बहुत रक्तपात हुआ है। कुरआन कहता है कि कई ईसाई खुदा की वहदानियत (एकता) में विश्वास करते हैं, नमाज़ें अदा करते हैं और कयामत के दिन में विश्वास करते हैं।
ऐ अहले किताब! अपने अकीदे के बारे में हद से आगे मत जाओ। अल्लाह के बारे में सच्चाई के अलावा कुछ मत कहो। मसीह, ईसा इब्ने मरियम अल्लाह के रसूल और मरियम के जरिये उसके कलाम की तकमील और उसके आदेश से पैदा हुई आत्मा के अलावा कुछ भी नहीं थे। अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखो और "तसलीस" से दूर हो जाओ "। इसमें केवल तुम्हारे लिए अच्छाई है। केवल अल्लाह ही वास्तविक माबूद है। वह पाक है! वह किसी का बेटा नहीं! आसमान में जो कुछ है और जो कुछ पृथ्वी में है,सब उसी का है, और अल्लाह ही कायनात चलाने वाला है।
इसलिए, कुरआन मुसलमानों को सलाह देता है कि वे असहमति के किसी भी मुद्दे पर ईसाइयों और यहूदियों के साथ संघर्ष न करें और उन्हें सलाह देता हैं कि असहमति के बिंदुओं को अनदेखा करें और अहले किताब के साथ बातचीत में समझौते के बिंदुओं पर इक्तेफा करें।
“और (ऐ ईमानदारों) अहले किताब से मनाज़िरा न किया करो मगर उमदा और शाएस्ता अलफाज़ व उनवान से लेकिन उनमें से जिन लोगों ने तुम पर ज़ुल्म किया (उनके साथ रिआयत न करो) और साफ साफ कह दो कि जो किताब हम पर नाज़िल हुई और जो किताब तुम पर नाज़िल हुई है हम तो सब पर ईमान ला चुके और हमारा माबूद और तुम्हारा माबूद एक ही है और हम उसी के फरमाबरदार है” (अल अनकबूत: 46)
उपरोक्त आयतों से यह स्पष्ट है कि कुरआन अहले किताब के प्रति सहिष्णु है, उनके धार्मिक इन्हेराफात को ठीक करता है और मुसलमानों को सलाह देता है कि वे अहले किताब को उनके धार्मिक अधिकार उस राज्य में प्रदान करें जहां अहले किताब अल्पसंख्यक हैं। मुसलमानों को सलाह दी जाती है कि वे अहले किताब के साथ शांति से रहें। पूरे समुदाय को काफिर नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि एक समुदाय के सभी सदस्य गलत नहीं होते हैं। क्योंकि मुस्लिम समुदाय के कई लोगों का व्यवहार भी विचलित करने वाला होता है।
इसलिए, कुरआन एक ऐसे समाज की कल्पना करता है जहां कुरआन और तौरात, इंजील और अन्य सहिफों में विश्वास करने वाले शांति से रहेंगे, जहां हर धर्म के अपने धार्मिक अधिकार हों और अपने सहीफे के अनुसार सामूहिक जीवन जीने की अनुमति होगी।
English
Article: The Holy Quran Grants the People of the Book
Religious Rights and Asks Muslims to Engage With Them in a Dialogue to Resolve
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