प्रोफेसर इरफान शाहिद
6 मार्च, 2013
(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
हिंदुस्तान में इस्लामी बैंक की नाकामी जैसे सवाल ही ग़लत हैं क्योंकि हक़ीकत ये है कि हिंदुस्तान में आज तक व्वस्थित तरीके से गैर सूदी (ब्याज रहित) इस्लामी बैंक स्थापित नहीं हुए। लोग दरअसल जिसे इस्लामी बैंक मानते हैं वो गैर सूदी (ब्याज रहित) निवेश की सेवा देने वाले संस्थान हैं। अगर हम इल्मी या वैचारिक रूप से हिंदुस्तान का जायज़ा लें तो हमें इस्लामी निवेश के कई काम मिलते हैं। ये कहना गलत नहीं होगा कि दुनिया में इस्लामी निवेश संस्थाओं की स्थापना की पहली कोशिश हिंदुस्तान में हुई। छोटे और मध्यम स्तर पर कमोबेश दो सौ के करीब गैर सूदी (ब्याज रहित) वित्तीय संस्थान स्थापित हैं और उनसे जनता को अनगिनत फायदे हुए हैं। खासकर उन्नीसवीं सदी के अंत में कुछ गैर सूदी (ब्याज रहित) वित्तीय संस्थान उभर कर आये हैं। ये संस्थान कानून और पहचान के तौर पर बैंक तो नहीं थे लेकिन बैंक से मेल रखने वाले कुछ काम करते थे। शायद इसी वजह से ये संस्थाएं जनता के बीच इस्लामी बैंक के नाम से जाने जाते थे। हालांकि इस्लामी बैंकिंग, बैंकिंग की एक पूरी व्यवस्था है।
हिंदुस्तान में इस्लामी बैंक न बनने के कई कारण हैं। इसमें सबसे मुख्य कारण इल्म की कमी और ब्याज के जोखिम से अनभिज्ञता है। क़ुरान और हदीस ने ब्याज की निंदा बहुत ही सख्त और धमकी भरे अंदाज़ में किया है। हदीस की नज़र में सूद के व्यवसाय में लगे हुए लोग ऐसे हैं जैसे उन्होंने अपनी मां के साथ व्यभिचार किया हो। क़ुरान में लगभग सात जगहों पर ब्याज की निंदा की गई है, और अल्लाह ने सूदी व्यवसाय करने वालों के खिलाफ एलाने जंग किया है। दूसरी अहम बात ये है कि जनता ने कभी संगठित रूप से इस बात की कोशिश नहीं की कि इस्लामी बैंक की स्थापना हो वरना लोग मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की स्थापना के समय इस्लामी बैंकिंग की स्थापना की इच्छा की जाती और इसके अतिरिक्त मुस्लिम जनता वोट देने से पहले राजनीतिक दलों के नेताओं से मांग करती कि उन्हें इस्लामी बैंक भी चाहिए। ये बिलकुल स्पष्ट है कि बिना प्रयास किए कोई चीज़ न तो इस दुनिया में मिलती है और न ही आखिरत (परलोक) में मिलेगी। तीसरी अहम वजह ये है कि इंडियन बैंकिगं लॉ, इस्लामी बैंकिंग की स्थापना की इजाज़त नहीं देता है और दे भी तो कैसे जब उसके इच्छुक ही न हों। एक मां भी अपने बच्चे को उस वक्त तक दूध नहीं पिलाती जब तक बच्चा रोना शुरू न कर दे। इसके अलावा एक अहम बात स्पष्ट हुई है कि जो लोग हिंदुस्तान के वित्तीय मामलों से सम्बंधित संस्थानों में काम कर रहे हैं वो बहुत ही नाज़ुक मिजाज़ हैं, वो प्रचलित बैंकिंग को चलाते चलाते थक जाते हैं तो इस्लामी बैंक उनसे कैसे संभले। क्योंकि इसमें बैंकिंग के अलावा इस्लाम का भी नाम है। चौथी अहम बात ये है कि इस्लामी बैंक को चलाने के लिए कुछ खास तरह की क्षमता और ताक़त की आवश्यकता होती है। इसमें सबसे पहले काम करने वाला वर्ग इस्लामी तौर पर शिक्षित हो और आवश्यक कला में माहिर हो। दूसरी अहम विशेषता ये है कि इसे चलाने वाले ईमानदार और सच्चे हों, और इसमें तीसरी विशेषता वित्तीय ताकत है। पिछले दशक में जो भी संगठन इस्लामी बैंक के नाम पर स्थापित हुए थे वो सभी के सभी इन आवश्यक विशेषताओं से खाली थे। एक दो संस्थान ही ऐसे थे जो बमुश्किल एक या दो शर्तों पर पूरे उतर रहे होंगे।
वर्तमान समय में गैर सूदी (ब्याज रहित) प्रणाली की माँग में लगातार इज़ाफा हो रहा है। और क्यों ना हो, क्योंकि जब लोग एक प्रणाली से थक जाते हैं तो दूसरी प्रणाली की तलाश में लग जाते हैं। वर्तमान आर्थिक संकट ने दुनिया की बड़ी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की चूलें हिला दी हैं। अब विश्व अर्थव्यवस्था इस दलदल से निकलने के लिए बगलें झांक रही हैं। उनके पास कोई वैकल्पिक प्रणाली नहीं है जिससे इस नुकसान को पूरा किया जा सके। ये तो सूदी (ब्याज रहित) प्रणाली है जिसने पूरी मानवता को अपने चंगुल में जकड़ रखा है। इस प्रणाली में धन का बहाव एक विशेष वर्ग की ओर होता है। इस प्रणाली में रूपया सिर्फ मालदार लोगों के बीच आता जाता रहता है गरीब वर्ग दिनों दिन गरीब होता चला जाता है। बैंक और वित्तीय संस्थान उन्हीं लोगों को कारोबारी ऋण देते हैं जो पहले से ही आर्थिक रूप से स्थिर हैं। बैंक कभी भी किसी ग़रीब आदमी को कर्ज नहीं देगा चाहे वो कितना ही योग्य और बुद्धिमान क्यों न हो। सूदी (ब्याज रहित) प्रणाली से केवल निवेशक लोग ही फायदा उठा सकते हैं। बाक़ी ग़रीब लोग जो संख्या में अमीरों से अधिक हैं, हमेशा वित्तीय फ़ायदों से वंचित ही रह जाते हैं। अब लोगों को ये एहसास होने लगा है कि सूदी (ब्याज रहित) प्रणाली से मानवता का भला नहीं हो सकता। इसलिए लोग सूदी (ब्याज रहित) प्रणाली से छुटकारा पाना चाहते हैं और इसके लिए कोशिश भी कर रहे हैं। उन लोगों को भी इसका पता हो गया है कि केवल इस्लाम के पास ही इसका विकल्प है। यही वजह है कि दुनिया में गैर सूदी (ब्याज रहित) प्रणाली की माँग बढ़ रही है। दूसरी बात ये है कि मुस्लिम दुनिया भी इस्लाम को एक रोल मॉडल के रूप में पेश करने में लापरवाही का शिकार रही है। अब ज़रूरत इस बात की है कि लोगों को इस्लाम के आर्थिक शिक्षा से परिचित कराया जाए।
जहां तक हिंदुस्तान में इस्लामी बैंक की संभावनाओं की बात है तो बिना अतिश्योक्ति के ये कहा जा सकता है कि हिंदुस्तान में इस्लामी बैंकिंग के सम्बंध में इसकी संभावना काफी उज्ज्वल हैं। हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है और उभरती हुई अर्थव्यवस्था में नई योजना और विचारों को काफी महत्व दिया जाता है। क्योंकि नई योजनाएं और आधुनिक प्रक्रियाएं किसी भी उभरती अर्थव्यवस्था को तेजी से उभारने में प्रभावी भूमिका अदा करती हैं। लेकिन दुखद पहलू ये है कि हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था कुछ हिचकिचाहट की शिकार है। कुछ लोगों को ये समझ में आ गया है कि इस्लामी बैंकिंग की स्थापना से मुसलमानों की अर्थव्यवस्था बेहतर हो जाएगी जो उन्हें मंज़ूर नहीं है। लेकिन वो शायद इस हक़ीक़त से जी चुरा रहे हैं कि ये प्रतिस्पर्धा का दौर है और इस दौर में वही लोग कामयाब होंगे जो नए तरीके और आधुनिक योजनाओं को अपने कारोबार में जगह देंगे। इस्लामी बैंकिंग तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया पर आधारित बैंकिंग का उपकरण है, जो जल्द ही लोगों के सामने आया है। इक्कीसवीं सदी के इस आर्थिक दौर में इस्लामी बैंकिंग को नज़रअंदाज़ कर के आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। यही कारण है कि पश्चिमी दुनिया जो इस्लाम की सख्त विरोधी है लेकिन अपने आपको आर्थिक क्षेत्र में प्रमुख बनाये रखने के लिए इस्लामी बैंकिंग को अपना रखा है। हिंदुस्तान के वैश्विक प्रतिद्वंद्वी चीन ने भी इस्लामी बैंकिंग को अपने यहां जगह देना शुरू कर दिया है। अगर हिंदुस्तान ने इस पर ध्यान नहीं दिया तो वो आर्थिक दौड़ में चीन से आगे नहीं निकल सकेगा। और दूसरी बात ये है कि हिंदुस्तान मिश्रित अर्थव्यवस्था है इसलिए यहां पर हर तरह के बैंकिंग नज़रिए को स्वीकार किये जाने की संभावना है।
एक सवाल ये उठता है कि गैर सूदी (ब्याज रहित) इस्लामी बैंक में निवेश कैसे करें और कहाँ करते हैं? हम जानते हैं कि इस्लाम जीवन का एक पूर्ण सिस्टम है। इसमें जीवन के हर पहलू से सम्बंधी आदेश हैं। इस्लाम ने निवेश के बारे में भी कुछ सिद्धांत तैयार किए हैं, जैसे मशारेकता, मज़ारेबा, एजारतः और कफ़ाला आदि। इन का विवरण हदीस और फ़िक़्ह की किताबों में मौजूद है। इन्हीं सिद्धांतों और नियमों के तहत इस्लामी बैंक कई हलाल अवधि में निवेश करती हैं। जैसे रियल एस्टेट, ऑयल मार्केट और मोटल मार्केट आदि। और हासिल हुए लाभ को प्रतिभागियों के बीच वितरित करती और कुछ अपने अस्तित्व के लिए रखती है।
दूसरी अहम बात ये है कि इस्लामी बैंक लाभ कैसे हासिल करते हैं। एक दो फीसद सेवा शुल्क क्या है? इस्लामी बैंक इसे क्यों लेती हैं? क्या ये ब्याज नहीं है? इसके जवाब में सबसे पहले ये बात साफ हो जानी चाहिए कि इस्लामी बैंकिंग का मकसद सिर्फ लाभ कमाना नहीं है बल्कि इसका मुख्य उद्देश्य है लोगों को इस्लामी तरीके से व्यापार करने में आसानी पैदा करना ताकि लोग सूदी कारोबार से जहाँ तक सम्भव हो बच सकें। लाभ एक आंशिक चीज़ है जो व्यापार के नतीजे में पैदा होता है और इस तरह से जो भी लाभ प्राप्त होता है, एक समझौते के तहत उसे प्रतिभागियों में विभाजित कर देता है। रही बात सर्विस चार्ज की तो ये भी एक उचित बात है। इस्लामी बैंक एजेंट के रूप में जो सेवाएं प्रदान करता है, उस पर लोगों से कुछ फीस लेते हैं और ये बिल्कुल ब्याज नहीं है।
6 मार्च, 2013, स्रोत: रोज़नामा हिंदुस्तान एक्सप्रेस, नई दिल्ली
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