प्रोफेसर अली अहमद फातमी (उर्दू से हिंदी अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
हिंदुस्तान के अवामी मकबूलियत के शायर नज़ीर बनारसी पर लिखते हुए मिली जुली संस्कृति के बेमिसाल शायर फिराक़ गोरखपुरी ने कहा था, “हिंदुस्तान सिर्फ एक भौगोलिक शब्द या शब्दकोष (डिक्शनरी) नहीं है बल्कि एक ज़िंदा हक़ीक़त है, जिस जानने और समझने की ज़रूरत है।” वास्तविकता जन्म लेती है अपनी अर्थव्यवस्था और संस्कृति से- मैंने अर्थव्यवस्था शब्द का पहले इस्तेमाल इसलिए किया है कि मैं मार्क्स के इन वाक्यों पर यकीन रखता हूँ कि आर्थिक खुशहाली संस्कृति के विकास में सहयोग करती है और बदहाली उसे विनाश की और ले जाती है। हिंदुस्तानी अवाम के लिए सिर्फ इतना जानना काफी नहीं है कि वो हिंदुस्तान के अंदर रहते हैं बल्कि ये भी ज़रूरी है कि हिंदुस्तान भी उनके अंदर है यानि हिंदुस्तान का इतिहास और संस्कृति। यहाँ मेरा विषय संस्कृति ज्यादा है, और उससे ज़्यादा मिली जुली संस्कृति, इसलिए मैं फिराक़ के ही एक शेर से अपनी बातचीत को आगे बढ़ाता हूः
सरज़मीने हिंद पर अक़्वामे आलम के फिराक़
काफिले आते गये हिंदुस्तान बनता गया
सदियों में हिंदुस्तान बनने का अमल, पुरानी और आधुनिक संस्कृति के मिलने का अमल, हिंद-आर्य संस्कृतियों के मिलन की दास्तान काफी पुरानी है, जिस दुहराये जाने का वक्त यहाँ नहीं है। बस, मैं उर्दू शेर व अदब की जानिब से कुछ झलकियाँ पेश करूँगा, जो नई तो नहीं हैं, लेकिन जिनका दुहराया जाना बहुत ज़रूरी है, एक ऐसे वक्त और ऐसी जगह पर जहाँ कुछ लोग इंसानी एकता और हिंदुस्तानी की एकता को अलग अलग देखने पर ज़ोर देते हैं जो कि नुक्सानहेद है। वो ये नहीं जानते हैं किः
चमन में एखेतेलाफे रंगो बू से बात बनती है
तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो, हमीं हम हैं तो क्या हम हैं
उर्दू ज़बानो अदब के हवाले से मिली जुली संस्कृति पर बात करना ऐसा ही है जैसे शीरनी में शक्कर तलाश करना, इसलिए कि उर्दू और मिली जुली संस्कृति एक दूसरे के लिए आवश्यक हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उर्दू के शुरुआती दौर के शायरों के कलाम पर ग़ौर किया जाये, तो उनमें से ज़्यादातर के कलाम दोहे की शक्ल में मिलता है। सौदा, हातिम, इंशा, नज़ीर वगैरह के यहाँ दोहे मिलते हैं, और बिल्कुल हिंदुस्तानी व ज़मीनी संस्कृति में रचे हुए। वली दक्कनी से पहले उर्दू का ज़्यादातर शायरी में छंद और दोहे ही नज़र आते हैं। वली के आने के बाद इसमें ईरानी कल्चर के असरात नज़र आने लगते हैं लेकिन इसका ये मतलब हरगिज़ नहीं है कि इसमें स्थानीय और मिला जुला नहीं रह गया। ऐसा मुमकिन ही न था कि बैत कुछ भी हो शेरो अदब स्थानीयता से कभी अलग नहीं हो पाते हैं। ये फितरी तौर पर मुमकिन ही नहीं और न ही फिक्री तौर पर कि मुक़ामियत (स्थानीयता) से ही आफाक़ियत का सफर तय करता है। ये हक़ीक़त है कि जो जहाँ का है अगर वहीं का नहीं है तो फिर कहीं का नहीं है।
बाबाए (पितामह) उर्दू अब्दुल हक़ ने एक जगह साफ तौर पर कहा है कि उर्दू खालिस हिंदी ज़बान है, तो इसकी ग्रामर भी हिंदुस्तानी होनी चाहिए और इसका कल्चर भी। ग्रामर का मामला बहस का विषय हो सकता है, लेकिन कल्चर के बारे में कोई बहस नहीं है कि उर्दू अदब का खमीर मिली जुली संस्कृति से ही उठा है। ये अलग बात है कि तहज़ीब (संस्कृति) का मामला अक्सर दो सतहो पर चलता है। एक ऊपरी सतह पर आसानी से नज़र आने वाला दूसरा अंदरूनी सतह पर जो बाहर से देखने पर नज़र नहीं आता। उर्दू अदब में शुरु से ही ये दोनों सतह के कल्चर मुतवाज़ी (समानान्तर) तौर पर साथ साथ रहे लेकिन ये अलग बात है कि स्तर का खयाल रखने वाले तब्के ने निचले तब्के के कल्चर को मुँह नहीं लगाया। यही वजह है कि ग़ालिब के दोस्त नवाब मुश्तफा अली खान शेफ्ता ने जब ‘गुलशने बेखार’ लिखा तो अवामी शायर नज़ीर अकबराबादी का ज़िक्र तक न किया, कि वो निचले दर्जे के अवामी शायर है, हालांकि उससे पहले उस्तादे सुखन मीर तक़ी मीर कह गये थेः
शेर मेरे हैं गो खवास पसंद
पर मुझे गुफ्तगु अवाम से है
संस्कृति की तरह साहित्य (अदब) का व्यापक विचार भी दोनों तब्कों की नुमाइंदगी के बगैर पूरा नही होता। तारीखी और क्लासिकी अदब आम और खास दोनों में अपनी जगह बनाता है, और किसी समूह का विशेष का न होकर हमेशा के लिए हो जाता है, जिसमें सिर्फ फिक्र व खयाल और नज़रिया और फलसफा ही नहीं होता बल्कि आर्थिक, सासंकृतिक, रहन सहन, रस्मो रिवाज, तीज त्योहार सभी कुछ आ जाते हैं। इस विचार से हम सिर्फ नज़ीर अकबराबादी और जाफर ज़िटली को ही लें तो उर्दू की हिंदुस्तानियत या हिंदुस्तान की ज़मीनी सच्चाई और मिली जुली संस्कृति की भरपूर तस्वीर नज़र आती है। एक मुसलमान शायर होते हुए भी नज़ीर अकबराबादी ने होली पर ग्यारह नज़्में, दिवाली पर दो नज़्में, राखी पर एक नज़म, कन्हैय्या जी के जन्म, शादी, ब्याह तक पर नज़्में लिखीं। एक नज़्म तो कन्हैय्या जी की बांसुरी पर भी है। इसके अलावा हर की तारीफ, भैरो की तारीफ, महादेव का बयान, जोगी जोगन वगैरह। इसी तरह मेले में बलदेव जी का मेला, तैराकी का मेला वगैरह भी हिंदू मज़हब और रस्मो रिवाज को निहायत बारीकी से पेश किया गया है। कृष्ण जी की पैदाइश के बारे में उनकी मालूमात देखिये और साथ ही उनका लहजा भी। जन्माष्टमी का त्योहार पूरे ब्रज में मनाया जाना आम है। बच्चे के पैदा होते ही मां बाप के घर में अंधेरा दूर हो जाता है और उजाला पास आता है, और कहावत भी है ‘बिन बालक भूत के डेरा’, अब इसकी रौशनी में उनकी नज़्म ‘कन्हैय्या जी’ के ये बंद देखियेः
है रीत जनम की यूँ होती जिस गर में बाला होता है
उस मण्डल में हर मन भीतर सुख चैन दोबाला होता है
सब बात तबहा की भोले हैं जब भोला भाला होता है
आनन्द मदीले बाजत हैं जब नित भवन उजाला होता है
यूँ नेक पिचहत्तर लेते हैं इस दुनिया में संसार जनम
पर उनके और ही लछ्छन हैं जब लेते हैं अवतार जनम
32 बंद की लम्बी नज़म में जिस तरह कंस, वासुदेव, देवकी और यशोदा के किरदार, गुफ्तार और तकरार मिलती है और पूरी कृष्ण जन्म भूमि से लेकर रन भूमि की सच्ची दास्तान सिमट आती है। वो नज़ीर की हिंदू मज़हब और संस्कृति की समझ का पता तो देती है साथ ही उनकी अक़ीदत का भी अंदाज़ा होता है। एक और नज़म का एक बंद देखेः
यारो सुनो, ये दूध की लुटिया का बालपन
और बुध्द पुरी नगर के बसिया का बालपन
मोहन स्वरूप नृत किया का बालपन
बन बन के ग्वाल गवें चिरया का बालपन
ऐसा था बांसुरी के बजिया का बालपन
फिराक़ गोरखपुरी ने अपनी किताब ‘नजीर बाणी’ में लिखा हैः
“वो स्थानीय संस्कृति के रंग में रंग गये थे। हिंदू त्योहारों, मेलों ठेलों में बहुत दिलचस्पी लेते थे। ये वो वक्त था कि हिंदू व मुसलमानों में कोई परायापन नहीं था।”
कुछ हिंदी साहित्यकारों को खयाल है कि नज़ीर हिंदू मज़हब के बारे में कम जानते थे। हो सकता है कि ये खयाल दुरुस्त हो, कि किसी पण्डित और ज्ञानी के मुकाबले में उनकी मालूमात का कम होना कोई हैरत की बात नहीं, लेकिन आम लोगों की संस्कृति की जिस शैली में वो रचे बसे थे, वहाँ पर इस तरह के बाहरी विभेद मिट जाते हैं, फिर मज़हब की आम संस्कृति अपने एक अलग दायरा बना लेता है। हिंदी के कुछ कवियों ने तो फिर भी कृष्ण के प्रेम, छेड़छाड़ करने वाले नौजवान या भगवान की तस्वीर पेश की है, लेकिन नज़ीर के यहाँ अक़ीदत एहतारम तो है और अंदाज़ और शब्दों में हिदू संस्कृति का अदभुत प्रदर्शन भी है, जिसमें एक तरफ जहाँ इस्लाम का सूफियाना ज्ञान है, तो दूसरी तरफ भक्ति का ज्ञान और आत्मसम्मान भी। इस मिले जुले तसव्वुर का रस लेना है तो नज़ीर की उन नज़्मों को भी पढ़ना ज़रूरी है सिर्फ विषय के एतबार से हिंदू धर्म के दायरे में नहीं आती, लेकिन हिंदुस्तान की लोक संस्कृति, ज़िन्दगी और रस्मो रिवाज के दायरे में सीधे तौर पर आती है। मिसाल के तौर पर उनका नज़्में ‘रोटीनामा’, आदमी नामा, बंजारा नामा, फकीरों की सदा, कलयुग, मुफ्लिसी वगैरह ऐसी हैं जो मज़हबी नज़में के मिज़ाज और हिंदू व हिंदुस्तानी लोक संस्कृति और नज़ीर के अपने मिज़ाज, तजर्बात,जीवन की सच्चाई, मध्यवर्ग की समाजिक समझ और लोक गीत सब इस कदर घुल मिल गये हैं कि और इस परम्परा को ज़िंदा करते हैं , जो अमीर खुसरो के बाद किसी वजह से बिखर गयी थी।
जाफर ज़ुटली बुनियादी तौर पर मज़ाहिमत (प्रतिरोध) और एहतेजाज के शायर थे, लेकिन मैं यहाँ उनकी एक ग़ज़ल के सिर्फ तीन शेर पेश करूँगाः
गया इख्लास आलम से अजब ये दौर आया है
डरे सब खुल्क ज़ालिम से अजब ये दौर आया है
न यारों में रही यारी, न भयों में वफादारी
मोहब्बत उठ गयी सारी अजब ये दौर आया है
न बोई रास्ती कोई, उमर सब झूठ में खोई
उतारी शर्म की लोई, अजब ये दौर आया है
ये मिसरा देखिये ‘न यारों में रही यारील न भयों में वफादारी’ खालिस अवधी लहजा और मुहावरा है। इस तरह से ‘उतारी शर्म की लोई’ इस पर भी गौर करें। इस तरह से क़दम क़दम पर उनके यहाँ अवामी मुहावरे इस्तेमाल हुए हैं। ‘जिस की लाठी उस की भैंस’, धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का, भरे समंदर खोखा हाथ वगैरह इन सबका गज़ल में इस्तेमाल करना मुश्किल और गैर मामूली बात है।
अब मैं कसीदे के एक शायर मोहसिन काकोरी का एक मज़हबी कसीदा जो रसूलुल्लाह (स.अ.व.) की शान में लिखा गया है। उनके कुछ शेर पेश करता हूँ।
सिम्त काशी से चला जानिबे मथुरा बादल
बर्क़ के कांधे पे लाती है सबा गंगा जल
घर में स्नान करें सर व कदान गोकुल
जाके जमुना पे नहाना भी है एक तूले अमल
प्रोफेसर अली अहमद फातमी, इलाहाबाद विश्विद्यालय में उर्दू विभाग के अध्यक्ष हैं।
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