न्यू एज इस्लाम ग्रुप ऑफ़ स्कॉलर्स
(उर्दू से अनुवाद: न्यू एज इस्लाम अनुवादक)
दारुल इफ्ता जामिया नईमिया कराची पाकिस्तान के मुफ़्ती मुनिबुर्रह्मान ने स्पष्ट तौर पर पकिस्तान की डीप स्टेट के प्रभाव में एक फतवा जारी किया है, जिससे हर मुसलमान का सर शर्म से झुक जाता है। अपने उन विभिन्न पेश रवों का अंदाज़ बयान अपनाते हुए जिन्होंने अपने विवादित शासकों के हितों की सेवा का इतिहास स्थापित किया, मौलवी मुनीबुर्रह्मान लिखते हैं: “ कश्मीर के मुसलामानों के लिए गैर मुस्लिमों को अपनी जायदाद बेचना जायज़ नहीं।“ मौलवी मुनीब की यह बात हमारे इस्लामी सिद्धांतों की समझ के खिलाफ है। इस्लामी दृष्टिकोण से बात करें तो कश्मीरी मुसलमानों के लिए गैर मुस्लिमों के साथ सौदा करने और हर तरह के लें देन में मशगुल होने की इजाज़त है जैसा कि वह सैंकड़ों सालों से यहाँ करते चले आ रहे हैं।
यह समझना आवश्यक है कि सैंकड़ों सालों से विभिन्न धार्मिक जमातें कश्मीर में साझा तौर पर रह रही हैं। यह कश्मीर की व्यापक और सहिष्णुता पर आधारित ऐसी संस्कृति है जिसे कश्मीर का नाम दिया जाता है। कश्मीर की यह संस्कृति इस्लाम की आमद का अजीम किरदार रहा जिस तरह पहले कश्मीर के मुसलामानों को अपनी ज़मीन तिजारत की गरज से बेचने में कोई दिक्कत व परेशानी नहीं होती थी’ आज भी अगर वह मकान के निर्माण या व्यापार आदि के उद्देश्य से अपनुई जमीन जायदाद गैर मुस्लिमों को बेचना चाहें और उसमें मुसलमानों या इस्लाम में उन्हें किसी प्रकार की धार्मिक पाबंदी महसूस नहीं करनी चाहिए। यहाँ यह बात भी ख्याल रहे कि किसी विदेशी मौलवी को यह हक़ कदापि नहीं कि किसी की नियत पर प्रश्न उठाए और केवल अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर यह शक पैदा करे कि इस से मुसलमानों और इस्लाम को हानि पहुंचे गा। मुआमलत के शाब्दिक अर्थ है लें दें या सुलूक व बर्ताव। इस्तिलाह फिकह में मुआमलत का अर्थ है दुनयावी उमूर से संबंधित शरई अहकाम जैसे बैय व शरा और इंसानी सुलूक व बर्ताव। मुआमलत एक ऐसा सामाजिक रिश्ता है जो विभिन्न आर्थिक और अनार्थिक गतिविधियाँ उस समय तक जायज़ हैं जब तक कि वह इस्लाम के सिद्धांतों की खिलाफ वर्जी ना करें। बजाहिर मुफ़्ती मुनीब का फतवा फिलिस्तीनी मुफ़्ती शैख़ मुहम्मद हुसैन के जरिये जारी किये फतवे से प्रभावित हैं जिस ने इस्राइल के यहूदियों को ज़मीन बेचने अदम जवाज़ पेश किया था। फिलिस्तीन व इस्राइल का मामला कश्मीर समस्या व भारत से बिलकुल भिन्न है। फिलिस्तीन व इस्राइल दो असंगत राजनीतिक संस्थाएं हैं जो एक दोसरे के इलाके को दुश्मन का इलाका समझते हैं। जम्मू व कश्मीर व भारत दो भिन्न राजनीतिक इदारे या देश नहीं हैं बल्कि जम्मू व कश्मीर एक राज्य है जो अब भारत के अन्दर एक यूनियन इलाका है और सारे संवैधानिक अधिकार और आरक्षण का हकदार है।
जम्मू व कश्मीर राज्य ने उस समय भारत में शमूलियत विकल्प की जब इसके पूर्व शासक महाराजा हरी सिंह ने २६ अक्टूबर १९४९ को भारत के साथ इलहाकी दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किये थे क्योंकि उन पर एक कातिलाना और सफ्फाक पाकिस्तानी कबाइली हमले के दबाव था जिस से उनकी छोटी फ़ौज निमाटने के काबिल नहीं थी। भारत संविधान के माध्यम से इस दस्तावेज़ में एक ख़ास हैसियत की जमानत दी गई थी जिस के अनुसार इसे कुछ रियायतें हासिल थीं। जम्मू व कश्मीर राज्य को भारत के दोसरे राज्यों के सामान बनाते हुए ५ अगस्त २०१९ को इस विशेष हैसियत को रद्द किया गया। यह १९४७ के बाद से भारत के अंदर एक राज्य रहा है और इस राज्य के सारे मंत्री मुसलमान रहे हैं। राज्य के मुसलमान भारत के सारे नागरिकों के लिए संविधान में दर्ज सारे धार्मिक और राजनीतिक अधिकारों के हकदार हैं।
आर्टिकल ३७० के तहत दी गई विशेष हैसियत की जमानत मंसूख करने का हरगिज़ यह मतलब नहीं है कि जम्मू व कश्मीर के बाशिंदे संविधान के सामने बराबरी का हक़ खो बैठे हैं बल्कि उन्हें तो भारत के संविधान की नज़र में पहले से भी अधिक बराबरी के हक़ का दर्जा मिल गया है। अब उन्हें कोई ख़ास हैसियत या हक़ नहीं हैं। इस ज़मीन के सारे नियमों का इतलाक राज्य या यूनियन इलाकों के नागरिकों पर भी होगा। इसका अर्थ यह है कि अब ना केवल भारत के हिन्दू बल्कि मुसलमान और दोसरे धार्मिक वर्ग से संबंध रखने वाले सारे व्यक्तियों को राज्य में जायदाद खरीदना व बेचना, नौकरी, व्यापार और रहने के अहक हासिल होगा और इसी तरह कश्मीरी नागरिकों को भी दोसरी राज्यों में भी इसी प्रकार के अधिकार प्रप्त होंगे।
जहां तक मुफ़्ती मुनीबुर्रह्मान के फतवे का मामला है जो कि कश्मीर के मुसलमान और बाकी भारत के हिन्दुओं के बीच जमीनों के खरीदने और बेचने का विरोधी है’ तो यह फतवा पूर्ण रूप से “दुश्मन इलाके” के सिद्धांतों पर आधारित है। मुफ़्ती मुनीबुर्रह्मान के नज़र में भारत जम्मू व कश्मीर के मुसलमानों के लिए एक दुश्मन का इलाका है और भारत के हिन्दू इस्लाम के दुश्मन हैं। इसलिए यह फतवा एक गलत प्रभाव पर आधारित है जिसकी ताईद कुरआन व हदीस से नहीं मिलती। मुफ़्ती (भारत अधिकृत कश्मीर ) है और IOK मुनीब का ख्याल है कि जम्मू व कश्मीर के मुसलमान पाकिस्तानी हैं, भारत एक दुश्मन इलाका है और भारत के हिन्दू इस्लाम और मुसलामानों के दुश्मन हैं। उनका यह नजरिया ना केवल राजनीतिक बल्कि इस्लामी दृष्टिकोण सेभी गलत और नाकिस है। कुरआन व हदीस सारे गैर मुस्लिमों को इस्लाम का दुश्मन नहीं समझता। इस्लाम अमन की हालत में मुशरिकीन, यहूदियों और ईसाईयों के साथ अच्छे सुलूक, सामाजिक और आर्थिक संबंधों का जवाज़ देता है। यह केवल मुसलमानों को उन लोगों से लड़ने की अनुमति देता है जो उनसे लड़ते हैं। कुरआन का इरशाद है:
जो लोग तुमसे तुम्हारे दीन के बारे में नहीं लड़े भिड़े और न तुम्हें घरों से निकाले उन लोगों के साथ एहसान करने और उनके साथ इन्साफ़ से पेश आने से ख़ुदा तुम्हें मना नहीं करता बेशक ख़ुदा इन्साफ़ करने वालों को दोस्त रखता है। (मुम्तहिना:८)
मुफ़्ती मुनीब अपने फतवे में खुद कुछ ऐसी हदीसों का हवाला
देते हैं जो मुसलमानों को मुशरिकों के साथ कारोबारी संबंध रखने की इजाज़त देते हैं।
मगर दोसरी तरफ वह यह कह कर कि भारत के सभी हिन्दू मुसलमानों के दुश्मन हैं इसलिए
उनके साथ कारोबारी संबंध नहीं होनी चाहिए तो वह इस तरह अपने ही फतवे के असास की
मुखालिफत करते हैं।
यह फतवा एक बेहोश मानसिकता का प्रतिबिंब है कि कश्मीरी मुसलमानों की सरजमीन को
बाकी भारत के हिन्दू ज़बरदस्ती कब्ज़ा कर लेंगे और हिन्दुओं को कश्मीर लाया जाएगा और
यहाँ मुस्लिम आबादी को अल्पसंख्यक में बदलने के लिए आबाद किया जाएगा। वास्तविकता
यह है कि भारत का कानून उनको अपनी ज़मीन गैर कश्मीरियों को बेचने पर मजबूर नहीं
करता। वह अपनी जमीन ना केवल हिन्दुओं को बल्कि भारत के बकिया मुसलमानों को भी बेच
सकते हैं अगर व चाहें। इसी तरह राज्य के सिख, पंडित और इसाई भी किसी गैर कश्मीरी
को अपनी ज़मीन बेच सकते हैं या इजारह पर दे सकते हैं। मुसलमानों के ताल्लुक से किसी
भी प्रकार की बेहोशी रखना पूरी तरह से गलत है।
असल में कश्मीरी अवाम इस आसानी से लाभ प्राप्त कर सकते हैं। वह अपनी जमीनों को सरमाया कारों को और अपनी व्यापारिक दुकानों को औद्योगिक परियोजनाओं में सहायता के लिए किराए पर दे सकते हैं। इससे राज्यों में आर्थिक और औद्योगिक तरक्की होगी। अब तक वह अपनी सांस्कृतिक पहचान और सदियों पुरानी रिवायतों के नाम पर घाटियों में रह रहे थे। कश्मीरियत में शामिल वुसअते नजरी का दायरा कार धीरे धीरे ख़त्म हो गया और पिछले कुछ दशकों में कश्मीरियत का एक तंग नजरिया तैयार करने की कोशिश की गई है। घयोटिज्म ने ना केवल कश्मीरियों बल्कि भारत, पाकिस्तान और अफ़्रीकी देशों में बहुत से दोसरे बिरादरियों को भी बहुत हानि पहुंचाया है और उनकी आर्थिक और राजनीतिक विकास में बाधा बने हुए हैं।
अपने सीमित आर्थिक संसाधन की सहायता से कश्मीरी अवाम औद्योगिक और राजनीतिक तौर पर विकास नहीं कर सके। खोकल किये हुए फख्र व मुबाहात को मुस्तहकम किया जब कि पाकिस्तान और उनके कश्मीर में रहने वाले अतिवादियों ने आतंकवाद की दलदल में धकेलने के लिए युवाओं और उनकी इस्लामी पहचान का शोषण किया और उन्हें घाटी में निजाम ए मुसतफा या इस्लामी खिलाफत का खोखला और गैर हकीकत पसंदाना ख्वाब फरोख्त किया। उनके पास कश्मीरी अवाम की आर्थिक विकास के लिए कोई रोड मैप नहीं था जिसकी मदद से उन्हें हिन्दुस्तानी संविधान के माध्यम से प्रदान किये हुए अधिकारों और मौकों की मदद हासिल हो।
६० साल से अधिक अरसे से कश्मीरी अवाम को खुसूसी दर्जा हासिल था लेकिन वह इस से लाभ नहीं उठा सके। इसके उलट विशेष दर्जा ने उन्हें केवल जड़ता की हालत में धकेल दिया। जबकि भारत की दोसरी रियासतों के मुसलमान, अल्पसंख्या में जीवन व्यतीत करने के बावजूद, हर क्षेत्र में दोसरी जमातों का मुकाबला कर रहे हैं और आर्थिक शैक्षणिक और राजनीतिक मैदानों में तरक्की हासिल कर रहे हैं, जबकि कश्मीरी अवाम इस सोच पर राज़ी रहे कि कोई भी उनके अमन को परेशान नहीं कर सकता है।
बकिया भारत के मुसलमान हिन्दुओं को अपना दुश्मन नहीं मानते क्योंकि उन्होंने उनको घरों से नहीं भगाया था। ये कहिये कि मुसाबिकत की कमी ने कश्मीरियों को सुस्ती की कैफियत में डाल दिया।
नए मसावी हैसियत ने कश्मीरियों को शिक्षा, उद्योग और कारोबार के मैदान में मुस्लिम और गैर मुस्लिम सहित, दौलत मंद और वसाइल मंद अफराद और इदारों के साथ सहायता करने का मौक़ा प्रदान किया है। कश्मीरियों के पास ज़मीन है और बकिया भारत के लोगों के पास दौलत और महारत है। वह मिल कर राज्य और अपनी जिंदगी में एक मुसबत तब्दीली ला सकते हैं।
जहां तक हिन्दुओं को ज़मीं बेचने का मसला है तो इस्लामी शरीअत मुसलमानों को ज़मीन किसी से भी बेचने से रोकता है अगर इसमें हानि हो, ख़ास हिन्दुओं से ज़मीन बेचने की बात ही छोड़ दीजिये। इस सिलसिले में निम्नलिखित हदीस देखें:
इब्ने माजा (२४८२) की रिवायत है कि हुजैफा बिन यमान ने कहा कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: “जो शख्स कोई मकान बेचे और उसके मसावी कीमत तय ना करे तो उस के लिए इसमें बरकत नहीं होगी”
इस हदीस में यह नहीं कहा गया है कि मुसलमानों को अपना मकान या ज़मीन किसी ख़ास कौम को नहीं बेचनी चाहिए बल्कि यह मफहूम है जब तुम अपनी ज़मीं बेचो तो उसकी मसावी कीमत का ख्याल रखो, ऐसा ना हो तुम इसके बदले नुक्सान उठाओ बल्कि फायदा मंद सरमाया कारी के लिए इस्तिमाल करो जैसे ज़मीन खरीदना या कारोबार करना।
कभी कभी सरकार सड़क, रेलवे लाइन आदि जसे आम मंसूबों की गरज से बाज़ार की कीमतों पर आम भारतीयों की ज़मीन खरीदती है। इस तरह की ज़मीन का हुसूल भारत भर में होता है। अगर जम्मू व कश्मीर में भी इस तरह का सरकारी मंसूबा होता है तो इसे फिरका वाराना जाविये से नहीं देखना चाहिए।
चूँकि जम्मू व कश्मीर में पंडितों सिखों और ईसाईयों की भी आबादी है इसलिए नई संवैधानिक धाराओं के तहत वह भी कारोबारी लें दें और गैर रियासती सरमाया कारों के साथ अराजी की खरीद व फरोख्त कर सकते हैं। मुसलमानों के लिए भी दानिशमंदी होगी कि वह इस मौके को अपनी मुआशी तरक्की के लिए इस्तिमाल करें। अगर वह अभी भी घटियों में रहे तो दोसरी कम्युनिटीज़ आगे बढ़ें गी और वह खुद पीछे रह जाएं गे। कश्मीरियों को चाहिए कि वह अपनी सांस्कृतिक सुस्ती को खत्म करें और नए मौकों और चैलेंजेज के लिए बेदार हो जाएं। उन्हें अपने मसाइल को मुफ़्ती मुनीबुर्रह्मान जैसे पाकिस्तानी प्रोपेगेंडा करने वालों के दृष्टिकोण से नहीं देखना चाहिए।
भारत का संविधान कश्मीरी अवाम को बराबरी का अधिकार, इज्ज़त और मौकों की जमानत देता है और इसी लिए कश्मीरी अवाम के लिए भारत को “दुश्मन का इलाका” नहीं माना जा सकता और यह भी ख्याल रहे कि भारत के हिन्दू कश्मीरी मुसलमानों को अपना दुश्मन नहीं मानते हैं। हकीकत में वह इन्साफ मसावात और मुंसिफाना सुलूक के मुताल्बे में उनके साथ खड़े हैं। इसलिए कश्मीरी मुसलमान किसी भी नतीजा खेज़ कोशिश में बकिया भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों के साथ सहायता कर सकते हैं।
कश्मीरी अवाम ने आगाज़ में ही दो कौमी नज़रिए को अस्वीकार कर दिया था और सेकुलर भारत में शामिल होने का फैसला किया था। बांग्लादेश ने तो शुरू में ही इस खतरनाक दो कौमी नजरिये को स्वीकार कर लिया था लेकिन जब उन्हें पाकिस्तान के अंदर पूर्वी पाकिस्तान की हैसियत से ज़िन्दगी गुज़ारने का तजुर्बा हुआ तो उन्होंने भी इस खतरनाक दो कौमी नजरिये को अस्वीकार कर दिया। आज अमली तौर पर पाकिस्तान की तमाम नस्ली अल्पसंख्यकों, बलोच, सिन्धी पश्तून और मुहाजिर मुजाहीम हैं और पाकिस्तान के साथ इत्तेहाद से बाहर होना पसंद करेंगे। वह एक जबर्दस्त संघर्ष में व्यस्त हैं। हज़ारों पाकिस्तानी गोलियों से हाथ धो बैठे और लगातार अत्याचार सहने के बावजूद उनका जज़्बा बेदार है। इसमें हैरत की कोई बात नहीं कि मुफ़्ती मुनीब के पास उनकी संघर्ष के बारे में कहने के लिए कुछ शब्द नहीं हैं। इसका उद्देश्य वही है जो पाकिस्तानी डीप स्टेट का है। आतंकवाद से कश्मीर पर कब्ज़ा करने में नाकाम रहने के बाद वह फतवों के जरिये सादा कश्मीरी मुसलमान को गुमराह कर के भारत में फुट के बीज बोने की कोशिश कर रहा है जो इस्लाम के उन बुनियादी सिद्धांतों, कुरआन मजीद की मारुफ़ आयतों और हदीसों की रिवायतों की उलट है जो आपसी सहिष्णुता की शिक्षा देते हैं।
५ अगस्त २०१९ को आर्टिकिल ३७० में कश्मीर की विशेष हैसियत को मंसूख करने से पहले और उसके बाद भी कश्मीर भारत का हिस्सा रहा है। भारत ने कश्मीर राज्य में रिहाइश पानें या नौकरी हासिल करने या जायदाद खरीदने पर भारतीय नागरिकों पर पाबंदी ख़त्म कर दी है। ताकि सारे भारतीयों के लिए कानून बराबर हों। भारत का एक हिस्सा होने के नाते कश्मीर एक ख़ास दर्जा हासिल कर रहा था जिसे अब खत्म कर दिया गया है। इस्लामी दृष्टिकोण से विशेष हैसियत की मनसूखी को हिन्दुओं के साथ मुआमलात के अदम जवाज़ का शर्त करार नहीं दिया जा सकता और ना ही ख्याल रखना दुरुस्त होगा कि हिन्दू कश्मीरी अवाम की अराजी खरीद कर उन्हें हानि पहुंचाना चाहते हैं और उन्हें अल्पसंख्यक में परिवर्तित करने का इरादा रखते हैं।
बहर हाल मुसलमान आबादी के अनुपात की विभिन्न दर्जा बंदी के साथ पुरे देश में अल्पसंख्यक की हैसियत से रहते हैं। इसलिए पाकिस्तान के मुफ़्ती मुनीब की जानिब से हालिया जारी करदा फतवा जिसमें उन्होंने हिन्दुओं के साथ मुआमलत को हराम करार दिया है इस ख्याल से कि इससे इस्लाम और मुसलमानों को हानि होगा। यह असल में कश्मीरियों के इलाके पर कब्ज़ा करने का पाकिस्तानी इस्टेब्लिश्मेंट के पुराने एजेंडे का हिस्सा है। इस्लामी फुकहा के अनुसार मुआमलात तमाम मुसलमानों और गैर मुस्लिमों के साथ जायज है। जिस गैर कश्मीरी भारतीय मुसलमान पुर अमन बकाए बाह्मी के साथ भारत में रहते हैं और अपने गैर मुस्लिम नागरिकों के साथ मुआमलत करते हैं, उसी तरह कश्मीरी मुसलमान भी हिन्दुओं के साथ लेन देन, खरीद व फरोख्त जैसे मुआमलात कर सकते हैं।
भारत के महान फकीह आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा अपनी किताब “अल मुहज्जतुल मुतमन्नह” में लिखते हैं:
“मवालात व मुजर्रद मुआमलत में ज़मीन व आसमान का फर्क ही दुनयवी मुआमलत में जिससे दीन पर जरर ना हो सिवाए मुर्तदीन जैसे वहाबिया देवबंदिया के किसी से ममनूअ नहीं। ज़िम्मी तो मुआमलत में मुसलमान जैसा है: लहुम मा लना व अलैहिम मा अलैना। उनके लिए है जो हमारे लिए और जो उन पर है हम पर।
अर्थात दुनयावी फायदे में हमारी तरह उनको भी हिस्सा दिया जाएगा और दुनयावी मुआखिज़ा उन पर भी वही होगा जो एक मुसलमान पर किया जाएगा) और गैर ज़िम्मी से भी खरीद व फरोख्त, इजारा व इस्तिजार, हिबा व इस्तिहाब बशर व तहा जायज और खरीदना मुत्लकन हर माल का कि मुसलमान के हक़ में मतकुम हो और बेचना जायज चीज का जिस में इआनत ए हर्ब या इहानत इस्लाम ना हो उसे नौकर रखना जिसमें कोई काम खिलाफ ए शरअ ना हो, उसकी जायज नौकरी करना जिसमें मुस्लिम पर इसका इस्तिअलाना हो, ऐसे ही उमूर में उजरत पर उससे काम लेना या उसका काम करना शरई मसलिहत से उसे हदिया देना जिसमें किसी कुफ्र की रस्म का एजाज़ ना हो, उसका हदिया कुबूल करना जिससे दीन पर एतेराज़ ना हो यहाँ तक कि किताबिया से निकाह करना भी फी नफ्सिही हलाल है, वह सुलह की तरह झुकें तो मसलिहत करना मगर सुलह कि हलाल को हराम करे या हराम को हलाल, यूँ ही एक हद तक मुआहिदा व मवाइदत करना भी, और जो जायज अहद कर लिया उसकी वफ़ा फर्ज़ है।
फुकहा ने इस मुआमलत को हराम करार दिया है जिस में इस्लाम और मुसलमानों को ज़रर पहुंचाना मकसूद हो। और ऐसे मुआमलत जिस में मुसलमानों या इस्लाम को ज़रर पहुंचाने का अंदेशा हो वह बिला तख्सीस मुस्लिम और गैर मुस्लिम दोनों के साथ जायज़ है।
जैसा कि इमाम अहमद रज़ा आला ने बिला तख्सीस इसकी सराहत की है:
“मुआमलत मुजर्रिदा सिवाए मुर्तदीन हर काफिर से जायज है जबकि इसमें ना कोई इआनत कुफ्र या मासियत हो ना अजरार इस्लाम व शरीअत वरना ऐसी मुआमलत मुस्लिम से भी हराम है चह जायके काफिर”
अल्लाह पाक का इरशाद है: (वला तआवनु अलल इस्मी वाल उद्वान) गुनाह व ज़ुल्म पर एक दोसरे की मदद ना करो(५:२)
इस आयत ए करीमा में मुत्लकन ज़ुल्म व उद्वान की इमदाद व तआवुन से मना किया गया है चाहे यह ज़ुल्म व ज्यादती मुसलमानों की तरफ से हो या गैर मुस्लिमों की तरफ से। तो मालुम यह हुआ कि इस आयत ए करीमा का केवल यह मफहूम ले लिया जाए जिससे यह नतीजा निकले कि केवल गैर मुस्लिमों के ज़ुल्म व ज्यादती की इमदाद तर्क की जाए और मुस्लिमों के ज़ुल्म व उद्वान की इमदाद बाकी रखी जाए तो यह मफहूम सरासर गलत है क्योंकि आयत दलालत ए उमूमी पर है, अर्थात ज़ुल्म व उद्वान किसी तरह का हो और किसी भी जानिब से हो उसकी मदद करना हराम है।
पता यह चला कि इस आयत में मुत्लकन अल्लाह पाक ने गुनाह व ज्यादती की इमदाद व मुआविनत से मना फरमाया है लेकिन मुफ़्ती मुनिबुर्रह्मान ने इस आयत का इस्तेमाल केवल कश्मीरी मुसलमानों को गैर मुस्लिमों के अदम ए मुआमलत कायम करने के सिलसिले में किया है जबकि उनके अपने वतन पाकिस्तान का हाल यह है वहाँ गुनाहों और ज़ुल्म व ज्यादती की भरमार है, तो मुफ़्ती मुनीब साहब आखिर अपने देश के लोगों को जालिमों से अदम ए मुआमलत का फतवा क्यों नहीं देते? पाकिस्तान में दरपेश दर्जनों ज़ुल्म व ज्यादती पर आधारित ऐसे मसाइल हैं जिन में मुफ़्ती मुनीब साहब अपनी मुल्क की सालमियत की खातिर या किसी और वजह से सुकूत फरमाते हैं और इन सूरतों में मुआमलत को हराम करार देने की ज़हमत भी गवारा नहीं करते लेकिन बात जब कश्मीर की आई तो फ़ौरन लिख पड़े गोया वह अपने वतन पाकिस्तान के कश्मीरी पॉलिटिकल नज़रियात की हिमायत का मकसद रखते हैं, ना कि कश्मीरी मुसलमानों की बेहतरी का ख़याल। पाकिस्तानी मुस्लिम हमदर्दी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब चीन में मुसलमानों पर ज्यादती हुई तो उन्होंने चाइना से मुआमलत और लें देन हराम करने पर एक भी फतवा नहीं दिया, बल्कि किसी पाकिस्तानी ने भी इस सिम्त आवाज़ नहीं उठाई, क्योंकि इससे उनके अपने मुफाद को नुक्सान पहुँच सकता था, अगर मुस्लिम हमदर्दी और उखुवत इमानी बेदार होती तो चीन और रोहंगिया में मुसलमानों पर ज़ुल्म के खिलाफ जरूर आवाज़ उठाते मगर कश्मीर के मसले उन्हें अपने पाकिस्तान का मुफाद नज़र आरहा हैइसलिए कश्मीरी अवाम को वरगलाने का काम अंजाम दे रहे हैं।
जम्मू व कश्मीर का यूनियन इलाका भारत का वह हिस्सा है जहां मुसलमान बहुसंख्या में रहते हैं और दोसरे भारतीय मुसलमानों के बराबर उन्हें तमाम बुनियादी हक़ हासिल हैं। अगर कश्मीर में कोई भी नौजवान भारतीय अफवाज या मुल्की मुफाद के खिलाफ आतंकवाद का प्रतिबद्ध करता है तो यह ना केवल भारतीय कानून की खिलाफ वर्जी है बल्कि इस्लामी कानून की भी संगीन खिलाफवर्जी है। मुफ़्ती मुनीब को पहले इस गुनाह और जारहियत के खिलाफ फतवा जारी करना चाहिए जो कश्मीरियो को भारत के खिलाफ बगावत पर ब्रेन वाशिंग करने के लिए कोशा हैं। मुफ़्ती मुनीब को यह भी ख्याल रखना चाहिए कि जिस तरह भारत के किसी भी हिस्से के मुसलमानों को अपनी ज़मीन और जायदाद खरीदने या बेचने की इजाज़त है, उसी तरह कश्मीर के मुसलमानों को भी हिन्दुओं या दोसरे गैर मुस्लिमों के साथ अपना लें दें मुआमलत कायम रखने की इजाज़त है और इस मसले में इस्लाम उन्हें मना नहीं करता।
अपने फतवों में मुफ़्ती मुनीब ने जो कहा है कि, “सिवाए मुर्तदीन आम हालत में यहूदियों, ईसाईयों और दोसरे गैर मुस्लिमों के साथ खरीद व फरोख्त और दोसरे माली लेन देन की इजाज़त शरीअत ने दी है।“ इस सिलसिले में उन्होंने कुरआन व सुन्नत से दलीलों का हवाला भी दिया है मगर फतवे का दूसरा नुक्ता जिसमें उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की है कि कश्मीर में हिन्दुओं के साथ मुआमलत करने से मुसलमानों को नुकसान पहुंचेगा, यह केवल उनका कमज़ोर ईमान और ऐसा वहम है जिसका हकीकत से कोई संबंध नहीं।
इन दलीलों से मुफ़्ती मुनीब का फतवा आसानी से रद्द करने के काबिल हो जाता है। इसलिए मुसलमानों को इस फतवे पर अमल नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे खुद कश्मीरी मुसलमानों का ही नुक्सान होगा और पाकिस्तान पॉलिटिक्स को फायदा पहुंचेगा। जरूरत है कश्मीरी मुसलमान इस पर संजीदगी से गौर व फ़िक्र करें और बिला खौफ व खात्र अपने मुआमलत को कायम रखें। हमने अतीत में कई मुफ्तियों को देखा है जो अपनी हुकूमत के दबाव या किसी लालच में आकर इस तरह के फतवे सादिर करते रहते हैं, इससे उम्मत ए मुस्लिमा का बहुत बड़ा नुक्सान हुआ है और फिकरी तरक्की में रुकावट का सबब रहा है।
जहां तक भारत और इसके कश्मीरी खित्ते के मुसलमानों की बात है तो सबसे पहले ईमान की कुव्वत पैदा करें और यह यकीन रखें कि हर हाल में अल्लाह पाक ही मुहाफ़िज़ है और इसी लिए मुसलमानों को आलम ए असबाब से होने वाले नुक्सान के बारे में फिकरमंद नहीं रहना चाहिए। उन्हें हिन्दुओं और दोसरे गैर मुस्लिमों के साथ मुआमलत, तिजारत, लेन देन को जारी रखना चाहिए। उनकी यह आपसी रवादारी और मुजर्र्द मुआमलत, ज़ुल्म व ज्यादती की इआनत न करें (जैसा कि कुरआन में है सुरह ५ आयत २) तो बेशक ऐसी मुआमलत कुरआन व सुन्नत की रौशनी में जायज है जिसके हराम होने का फतवा देना इफरात से खाली नहीं। वल्लाहु आलम बिस्सवाब
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