नास्तिक दुर्रानी, न्यु एज इस्लाम
17 अक्टूबर , 2013
जिस तरह राजनीति को धर्म से अलग रखना ज़रूरी है उसी तरह साइंस को भी मज़हब से अलग रखना ज़रूरी है, क्योंकि धर्म सुदृढ़ ग्रंथों पर आधारित हैं, जबकि विज्ञान की खोजें और सिद्धांत हमेशा परिवर्तनीय स्थिति में रहते हैं। मिसाल के तौर पर प्राचीन दौर में लोग समझते थे कि सूरज पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, लेकिन वर्तमान दौर से ही हमें मालूम है कि वास्तव में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। फिर बीसवीं सदी में हमें पता चला कि पृथ्वी और सूर्य भी आकाशगंगा के केंद्र के चारों ओर घूमते हैं और हमारी आकाशगंगा भी अन्य आकाशगंगाओं के साथ ब्रह्मांड के एक संभावित केंद्र के चारों ओर घूमती है। और शायद विकास के साथ भविष्य में हमें ये भी पता चले कि हमारा ब्रह्मांड, ब्रह्मांडों के झुरमुटों का केवल एक औसत ब्रह्मांड है जो दूसरे ब्रह्मांडों के साथ मिल कर किसी केंद्रीय ब्रह्मांडीय प्रणाली के चारों ओर घूम रहे हैं। वैज्ञानिक इसे अभी से मल्टी वर्स का नाम दे रहे हैं। अब अगर धर्म से विज्ञान को निकालने वाले लोग जो धर्म और साइंस को एकीकृत करने का दर्शन देते हैं , अगर उन्होंने अपनी धार्मिक व्याख्या में संशोधन कर के उन्हें इस सिद्धांत से सुसंगत करने की कोशिश की जैसा कि अक्सर वो करते भी रहते हैं, तो वो न सिर्फ अपनी सच्चाई को खो देंगें बल्कि अपने धर्म की बदनामी का कारण भी बनेंगे। क्योंकि जिस धर्म का अनुमान और व्याख्या हर नए आने वाले वैज्ञानिक सिद्धांत के साथ बदलता रहता हो वो एक मज़ाक तो हो सकता है, मज़हब नहीं।
इस्लाम में धर्म के व्यापारियों ने इसे अपना कारोबार बना लिया है और सीधे साधे लोग उनके पीछे खिंचे चले आते हैं, क्योंकि इससे उन्हें अपनी श्रेष्ठता का एहसास होता है और लगता है जैसे सारा विज्ञान कुरान व हदीस में छिपा हो। यथार्थवाद की दृष्टि से देखा जाए तो वास्तव में इस्लाम के वैज्ञानीकरण के चक्कर में ऐसे तथाकथित इस्लाम के विचारकों ने अब तक इस्लाम के इतने अनुमान लगा डाले हैं कि कोई वेश्या भी उम्र भर में इतने यार न बदलती हो। यथार्थवाद इसी में है कि "परिपक्व" ( धार्मिक ग्रंथों) की "अपुष्ट" (विज्ञान) से तुलना करने की कभी भी कोशिश न की जाए, क्योंकि इससे न तो विज्ञान की सेवा होती है और न ही धर्म की। विज्ञान की ताक़त अनुभव और निरीक्षण है, न कि पहले से मौजूद रचनाओं पर निर्भरता। जबकि धर्म का सारा दारोमदार हज़ारों साल पुरानी रचनाओं पर है जिनका उद्देश्य कभी वैज्ञानिक नहीं रहा है। इसके विपरीत उनका ज़ोर लोगों के जीवन को व्यवस्थित करने पर है और किसी विशेष ज्ञान के मद्देनज़र लोगों को पुराने क़िस्से सुनाना है। इसके अलावा विज्ञान के भाषण के असतत तथ्यों को जो निर्णायक हैं (जैसे सौ सेल्सियस पर पानी उबलता है) को मज़हबी अनुमान देना उचित नहीं कि नज़र आने वाली भौतिकी जो तर्क पर आधारित है (विज्ञान) का आध्यात्मिक व अभौतिक (धर्म) जो कि चमत्कार पर आधारित है, पर अनुमान लगाना ही अतार्किक है।
जो वैज्ञानिक अपने वैज्ञानिक अनुसंधान व प्रयोगों को अपने धर्म को मद्देनज़र रख कर करता है वो उन वैज्ञानिक तथ्यों और परिणामों पर कभी नहीं पहुँच सकता। अगर प्रयोगशाला में उसके मद्देनज़र केवल वैज्ञानिक विधि (Scientific Method), और वैज्ञानिक विधि को अपनाने के लिए आवश्यक है कि वैज्ञानिक की सोच किसी भी अग्रिम धार्मिक पक्ष से मुक्त हो। अगर वैज्ञानिक ये चाहेगा कि उसके वैज्ञानिक अनुसंधान उसके धार्मिक विचारों और कल्पनाओं से सुसंगत निकले ताकि उसके अपने धर्म का नाम और रौशन हो और अधिक से अधिक लोग उसकी ओर आकर्षित हों, तो ऐसा आग्रह इस शोध के परिणामों को सीमित कर देगा। इसके मुकाबले ऐसे वैज्ञानिक जो ऐसी अग्रिम अवधारणाएं नहीं रखते हैं और सिर्फ वैज्ञानिक विधि को ही अपनाते हैं, उसके मद्देनज़र केवल मानवता की सेवा होती है, धर्म की नहीं। ऐसे दोनों वैज्ञानिकों वैज्ञानिक परिणाम हमेशा एक दूसरे से अलग होंगे। मिसाल के तौर पर जो वैज्ञानिक अपना शोध केवल ये साबित करने के लिए करता है कि कुत्ते के लार में कोई विशेष हानिकारक पदार्थ है, क्योंकि उसके धर्म में कुत्ता एक अशुद्ध और बुरा जानवर है। उसे दूसरे देशों में हुए ऐसे अनुसंधान कभी नज़र नहीं आएंगें जिसमें बताया गया है कि कुत्ते के लार में बैक्टिरिया की एक विशेष प्रकार पाई जाती है जिसका इस्तेमाल कुछ विशेष रोगों का इलाज करने में किया जा सकता है।
इसी तरह जो वैज्ञानिक अपने प्रयोगों में अल्कोहल और पशुओं से हासिल किये गये इंसुलिन का उपयोग करने से महज़ अपने धार्मिक रुझान की वजह से इंकार कर देता है तो वो वास्तव में अपने उपलब्ध विकल्पों को खुद ही सीमित कर रहा होता है। और कई वैज्ञानिक तथ्यों की वो अनदेखी कर रहा होता है ताकि धर्म के प्राचीन ग्रंथों और अवधारणाओं को सही साबित कर सके जिन्हें विज्ञान पीछे छोड़ कर न जाने कब का आगे बढ़ चुका है।
कहने का मक़सद ये है कि विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे हर क्षण विकास के मद्देनज़र ये ज़रूरी है कि वैज्ञानिक अपने भीतर तर्क संगत लचक पैदा करें और विज्ञान को किसी भी अवैज्ञानिक प्रक्रिया से मुक्त करें, सिवाय स्वयं विज्ञान, मुस्लिम दुनिया जहां पहले ही विज्ञान और वैज्ञानिकों का अकाल है उन्हें चाहिए कि बजाय "कुरान और साइंस" और "इस्लाम और विज्ञान' जैसे भ्रामक कांफ्रेंसों और सेमिनारों को कराने के वास्तविक विज्ञान पर ध्यान दें अन्यथा निकट भविष्य में मुस्लिम दुनिया के शैक्षिक पिछड़ेपन के दूर होने की लगभग कोई संभावना नहीं हैं। और ऐसे में इसकी उम्मीद रखने का कोई फायदा नहीं है।
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