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Hindi Section ( 25 Sept 2013, NewAgeIslam.Com)

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A Golden Opportunity for Arab Liberals अरब उदारवादी के लिए सुनहरा मौक़ा

 

नास्तिक दुर्रानी, न्यु एज इस्लाम

23 सितंबर, 2013

इसमें अब कोई शक नहीं रहा कि मिस्र में "राजनीतिक इस्लाम" के शासन का खात्मा हो चुका है और शायद ये खात्मा इतना बड़ा और ताक़तवर है कि अब शायद ही "राजनीतिक इस्लाम" का शासन कभी वापस आए, क्योंकि एक ऐसा शासन जिसका नेतृत्व "मुस्लिम ब्रदरहुड" या "हिज़बुल नूर" जैसी सल्फ़ी जमातों या सत्ता के लालची जामिया अज़हर के कुछ शेखों के हाथ में हो, जो धार्मिक वर्चस्व के साथ राजनीतिक वर्चस्व भी चाहते हैं, का मिस्र में दोबारा स्थापित होना अब सम्भव नहीं रहा। इसका कारण ये है कि मिस्र के लोगों ने "राजनीतिक इस्लाम" के इस नकली और अग़वा किये गये दौरे हुकूमत (शासनकाल) में जो कुछ सहा है वो उनकी आंखें खोल देने के लिए काफी है। कुछ विचारकों के अनुसार मिस्र पर पिछले साल शासन करने वाली "राजनीतिक इस्लाम" कि सरकार "पवित्र" और "सही" इस्लाम का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। बहरहाल "राजनीतिक इस्लाम" की जाली और अग़वा किया गया शासन मिस्र से जा चुका है और आधुनिक दौर के आधुनिक उदारवादी मिस्र पर शासन करने वापस आ गए हैं ताकि मिस्र को फिर से उदारीकरण की पटरी पर डाल सकें जो वास्तव में एक मुश्किल और थका देने वाला काम साबित होगा।

मुझे नहीं लगता कि निकट भविष्य में मिस्र "इख़वानी राजनीतिक इस्लाम' का अनुभव दोहराएगा। सभी राजनीतिक, संचार और विश्व भर के प्रारंभिक संकेत ये बताते हैं कि आज मुस्लिम ब्रदरहुड न सिर्फ मिस्र बल्कि मिस्र के बाहर भी हार का सामना कर रहे हैं। ये हार उस हार से भी कहीं बड़ी है जिसका उन्होंने पिछली सदी के चालीस के दशक में सामना किया था और जिसका शिकार मिस्र की प्रमुख हस्तियां हुई थीं जिनमें मिस्र के दो बार प्रधानमंत्री बनने वाले अलनक़रानी बाशा (1888- 1948) जबकि बाद में खुद हसन अलबना (1906- 1949) भी इसका शिकार हुए थे।

उस समय के वैश्विक और क्षेत्रीय परिस्थितियों में आज की तुलना में निम्नलिखित अंतर पाया जाता था:

1- मीडिया में इतनी ताक़त और विविधता नहीं थी जितना कि आज है। आज हर व्यक्ति को सभी परिस्थितियों की तुरंत खबर हो जाती है।

2- राजनीतिक, इस्लामी और अरब चेतना इतनी नहीं थी जितना कि आज है।

3- मुस्लिम ब्रदरहुड और हिज़बुल नूर अलसल्फ़ी जैसे कट्टरपंथी धार्मिक सल्फ़ी राजनीतिक दल इतने ताक़तवर और संगठित नहीं थे जितना कि आज हैं।

4- दुनिया में आतंकवाद नहीं फैला था और 11 सितंबर 2001 की घटना भी अभी सामने नहीं आयी थी।

5- मुस्लिम ब्रदरहुड की गोद से निकलने के बावजूद सशस्त्र धार्मिक दल अभी अस्तित्व में नहीं आए थे।

6- मिस्र में मुसलमानों और ईसाइयों में टकराव की वो तीव्रता नहीं थी जो कि आज हैं।

7- मिस्र के सैनिक शासन ने अभी तक मुस्लिम ब्रदरहुड का पीछा कर उन्हें जेलों में नहीं भेजा था जैसा कि अब्दुल नासिर, सादात और मुबारक के दौर में हुआ।

8- मुस्लिम ब्रदरहुड पर हाफिज असद ने 1982 में वो चढ़ाई नहीं कि थी जिसे अब "हमात के क़त्ले आम" के नाम से जाना जाता है और जिसमें बीस हज़ार से ज़्यादा लोगों को अपनी जानों से हाथ धोना पड़ा था जबकि कोई एक लाख विस्थापन करने को मजबूर हुए थे।

9- अरब और इस्लामी दुनिया में मुस्लिम ब्रदरहुड का वो फैलाव नहीं था जो आज नज़र आता है।

10- और आखीर में अरब प्रशासन इतना कमज़ोर नहीं था जितनी कि आज है और अरब कौमें इतनी जागरुक और ताक़तवर नहीं थीं जितनी कि आज है और "अरब वसंत" इसका सुबूत है।

अरब और इस्लामी जनमत अब अरब उदारवादियों को सुनने के लिए तैयार है जबकि पहले ऐसा नहीं था। शायद इसकी वजह ये है कि उन्होंने " राजनीतिक इस्लाम" की लहर पर सवार होकर खुद ही देख लिया है कि खुशनुमा धार्मिक नारों और हक़ीक़त में इसे लागू होने में क्या अंतर होता है। इसलिए अरब उदारवाद को चाहिए कि वो अपने घोषणा पत्र में तुरंत बदलाव लाए जिसकी इस स्थिति में सख्त ज़रूरत है। अगर वो अरब दुनिया में लोकप्रिय होना चाहते हैं और अपने सपनों को हकीकत क रूप धारण करते हुए देखना चाहते हैं तो उन्हें निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना होगा:

1- मालूम होता है कि "राजनीतिक इस्लाम' के नाम पर शासन करने वाले उग्रवादी सल्फ़ियों ने "पवित्र" और "असल" इस्लाम को अग़वा कर लिया है। अरब उदारवाद को चाहिए की वो क्षेत्र के मुसलमानों को ये इस्लाम को पाक साफ हालत में वापस लौटाएँ।

2- धार्मिक कट्टरपंथी सल्फ़ियत का दावा है कि वही इस्लाम के ठेकेदार और चौकीदार हैं और सिर्फ उन्हीं को इस्लाम के विचारों और सिद्धांतो का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है। अरब उदारवाद को चाहिए कि वो इस्लाम के बारे में जानने की कोशिश करें और धार्मिक रूप में खुद को सचेत बनाएं।

3- सार्वजनिक रूप से मज़हब परस्त अरब और इस्लामी दुनिया को सिर्फ समझने में आसान और स्पष्ट बातें ही उन्हें समझा सकती हैं। अरब उदारवाद को चाहिए कि वो लोकतांत्र को सम्बोधित करते समय आसान और सरल भाषा का इस्तेमाल करें।

4- अरब उदारवादियों को चाहिए कि वो ट्यूनीशिया नेता हबीब बोरक़िया के पदचिन्हों पर चलें और देखें कि किस तरह उन्होंने ट्यूनीशिया के इस्लामी समाज की इस्लाम के अंदर से सुधार किया न कि बाहर से। उन्होंने 1957 में अपने सुधार में जामिया अलज़ैतूना के उलमा को शामिल किया और ऐसे कानून तैयार किए जिसके ज़्यादातर प्रावधानों को बाद में मोरक्को में भी अपनाया गया। इससे महिलाओं को विशेष रूप से उनके धार्मिक और नागरिक अधिकार हासिल हुए जिनसे वो पहले वंचित थीं।

5- अरब उदारवादियों को पश्चिमी उदारवाद से अपने अलग होने का ऐलान करना होगा, जिस पर आमतौर पर अश्लीलता, यौन दुराचार और नग्नता का आरोप लगाया जाता है।

6- अरब उदारवादियों को अपने इस्लामी उदारवाद पर ज़ोर देकर इस पर ध्यान केंद्रित रखना होगा, क्योंकि इस्लाम में कई उदार पहलू मौजूद हैं जो छिपे हुए हैं और उसे शोधकर्ताओं कि तलाश है कि वो उसकी खोज करें। जिस तरह अतिवादी सल्फ़ियत को अपने राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इस्लाम के अंदर से अपने मतलब की बातें मिल गईं। इसी तरह अरब उदारवाद को भी मिल जाएंगी, क्योंकि इस्लाम हज़रत अली करमल्लाहू वज्हू के अनुसार "हमाल औजहा" यानी कई चहरे हैं। मिस्र के विचारक हसन हन्फी ने भी अपने एक लेक्चर में कहा था कि "आपको इस्लाम में उत्तर से लेकर दक्षिण तक वो सब कुछ मिल जाएगा जो आप को चाहिए"।

7- अतिवादी सल्फ़ियत के दावे जो कि कम नहीं हैं उनका जवाब इस्लामी ग्रंथों से दिया जाना चाहिए। अतीत में कट्टरपंथी सल्फ़ियत अपने दावे हज़रत उमर रज़ियल्लाहू अन्हू और दूसरे सहाबा के कथन पेश कर करते थे जिसका जवाब अरब उदारवादी मार्क्स, हेगल और डीकार्ट के कथन से देते थे जो एक बहुत बड़ी गलती है। ऐसी स्थिति में अरब उदारवादियों का जवाब कम से कम इमाम ग़ज़ाली, इब्ने रुश्द और मोहम्मद अब्दू के खथन से दिया जाना चाहिए यानी रौशन इस्लाम के अंदर से न कि बाहर से। ट्यूनीशिया के बू-रक़ीबा इसकि एक शानदार मिसाल हैं। उन्होंने 1957 में ही ये काम शुरू कर दिया था और कामयाब रहे थे (देखिए: बू रक़ीबता वल-इस्लाम अज़आमतः वलइमामतः द्वारा लुत्फी हजी)।

8- अरब के मार्क्सवादियों को उदारीकरण पर बात करनी बंद कर देनी चाहिए और इसके प्रचार के काम को नरम उदारवादी विचारकों पर छोड़ देना चाहिए जैसे मुहम्मद आबिद अलजाबरी (मोरक्को), रजा बिन सलामतः (ट्यूनीशिया), फातिमा अलमरनीसी (मोरक्को), अज़ीज़ुल अल-अज़्मतः (सीरिया), मोहम्मद अरकौन (अल्जीरिया), नस्र हामिद अबु ज़ैद (मिस्र), हसन हन्फी (मिस्र), यूसुफ अबा अलखैल (सऊदी), इब्राहीम अलबलीही (सऊदी) तथा दूसरे।

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