नास्तिक दुर्रानी, न्यु एज इस्लाम
2 नवम्बर, 2013
इस्लाम और डेमोक्रसी (लोकतंत्र) पर बहस अगर इतनी पुरानी नहीं तो इतनी नई भी नहीं, हाल के बरसों में कुछ इस्लामी देशों में धार्मिक समूहों के सत्ता में आने से ये बहस फिर छिड़ी है लेकिन अतीत की तरह इस बार भी ये बात भुला दी गई है कि डेमोक्रेसी का उतना राजनीतिक अर्थ नहीं है जितना कि इसका सामाजिक और आर्थिक अर्थ है। अगर हम पिछली सदी के पूर्वाद्ध में उदारवादी मुसलमानों की बातें सुनते पढ़ते आए हों तो हमें मालूम पड़ेगा कि वो भी यही कहते थे कि राजनीतिक होने से पहले डेमोक्रेसी का एक सामाजिक और आर्थिक अर्थ है।
ताहा हुसैन ने 1945 में डेमोक्रेसी की व्याख्या करते हुए इसके यूनानी स्रोत से सम्पर्क किया। वो खुद भी यूनानी इतिहास के विशेषज्ञ समझे जाते थे। उन्होंने कहा कि यूनानी दरअसल डेमोक्रेसी के द्वारा सामाजिक और आर्थिक सुधार करना चाहते थे, जिन्हें इस्लाम “अलअद्ल वलएहसान” कहता है और ये इस्लामी दावत और व्यवस्था की बुनियादी चीज़ों में से है।
एतिहासिक रूप से यूनानी कवि व चिंतक और राजनितिज्ञ सोलोन (Solon 638 BC – 558 BC) जिसे अफलातून ने यूनान के इतिहास के सात ज्ञानियों (Seven Sages of Greece) में शामिल किया है- ने जब डेमोक्रेसी के अर्थ से परिचय कराया तो इसके पीछे काम करने वाले कारकों में उस समय यूनान की बिगड़ा हुआ सामाजिक और आर्थिक जीवन था।
यूनान का कुलीन वर्ग क़ौम के काले और सफेद का मालिक था। ताक़तवर कमज़ोर को कुचलते थे, इसलिए यूनानी बाग़ी हो गए और उन्होंने सोलोन से माँग की कि वो उनके लिए एक ऐसी व्यवस्था बनायें जो न्याय और समानता स्थापित कर सके। उसे “डेमोक्रेसी” का नाम दिया गया। ताहा हुसैन के मुताबिक अगर हम इस डेमोक्रेसी के विवरण को पढ़ें तो हमें मालूम होगा कि ये इस्लाम के “अलअद्ल वलएहसान” से साम्य रखती है बल्कि वो समय व स्थान के कारकों के मद्देनज़र व्यापक अर्थ करार देते हैं।
ताहा हुसैन और पिछली सदी के पूर्वाद्ध के दूसरे उदारवादियों के अनुसार इंसाफ और भलाई यानी न्याय और एहसान इस्लाम की अनिवार्य नैतिकता में शामिल हैं, जैसा कि कुरान में आया है: इन्ल्लाहा यामोरो बिल अद्ले वलएहसान (सूरे- अलनहल- 90) (अनुवाद- बेशक अल्लाह इंसाफ और भलाई का हुक्म देता है) इसलिए इस्लाम और इंसाफ व भलाई का आपस में गहरा सम्बंध है और यही वजह है कि इसका विशष तौर पर कुरान में हुक्म दिया गया है।
इंसाफ मुसलमान का एक अनिवार्य गुण है जो किसी दोस्त की दोस्ती या दुश्मनी से नहीं बदलता चाहे दोस्त व दुश्मन करीब के हों या दूर के या कुरान के अनुसारः ओदेलू होवा अक़रबो लित्तक़वा (अलमायदा-8) (अनुवाद- इंसाफ करो यही बात तक़वा (परहेज़गारी) के ज़्यादा करीब है)। इस्लाम बयान करता है कि भलाई का पहला चरण अपने आपके साथ भलाई करना है। इंसान पर वाजिब है कि वो इस पर ध्यान दे, खुद से भलाई में अनियार्य चीज़ों की अदाएगी और हराम चीज़ों से परहेज़ शामिल है। जैसा कि कुरान में आया हैः इन अहसन्तुम अहतन्तुम लेअन्फोसेकुम वइन असातुम फलाहा (इसरा-7), (अगर तुम भलाई करोगे अपना भला करोगे और अगर बुरा करोगे तो अपना)। उदारवादी समझते हैं कि इस्लाम ने भलाई के संदर्भ में इंसानी सम्बंध को बड़ा महत्व दिया है कि भलाई में सारी इंसानियत शामिल है चाहे वो आस्था में विरोधी ही क्यों न हों।
ताहा हुसैन का कहना है कि डेमोक्रेसी का राजनीति से पहले सामाजिक जीवन से गहरा सम्बंध है क्योंकि ऐसी किसी व्यवस्था का कोई महत्व नहीं अगर इसका उद्देश्य लोगों में न्याय स्थापित करना न हो। ताहा हुसैन ये बात यूनानी डेमोक्रेसी की तरफ इशारा करते हुए कहते थे, जबकि उनकी नज़र इस्लाम पर होती थी जिसने ”न्याय व दया” करने को कहा है।
ताहा हुसैन यक़ीन दिलाते है कि डेमोक्रेसी केवल एक सुधारात्मक या राजनीतिक नारा नहीं बल्कि एक ऐसी व्यवस्था है जिस पर यक़ीन रखने वाले समझते हैं कि यही हर चीज़ में न्याय की ज़मानत देता है और इसका कार्य क्षेत्र सिर्फ राजनीतिक जीवन तक सीमित नहीं है। ऐसी डेमोक्रेसी जिसके साए तले न्यायपूर्ण समानता स्थापित हो सके, इंसानियत का एक ऐसा ख्वाब है जिसे पूरी तरह धरती पर साकार करना बहुत मुश्किल है। यही वजह है कि सभी धर्मों (इस्लाम धर्म सहित) ने समय समय पर”न्याय और दया” पर ज़ोर दिया है, कि शायद इंसान की विद्रोही प्रवृत्ति के बावजूद उसका कोई छोटा सा हिस्सा ही लागू हो जाए।
इस्लामी दुनिया में “न्याय और दया” की ओर बुलाने के लिए कई धार्मिक जमातें सामने आईं, बल्कि मोरक्को में तो एक पार्टी का नाम ही “हिज़्ब अल-अद्ल वलएहसान” है मगर अफसोस कि इन जमातों का बुलावा विशुद्ध पारंपरिक धार्मिक निमंत्रण ही साबित हुआ। उनके बुलावे में दूसरी कौमों के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति से तुलना नहीं थी कि हम डेमोक्रेसी को इस तरह समझ सकें जिस तरह ताहा हुसैन ने समझा था। इसके विपरीत इन जमातों का इस्लाम से अपरिचित होना और संकीर्णता ने इस्लाम का डेमोक्रेसी से सम्बंध ही तोड़ डाला और डेमोक्रेसी को एक ऐसा अर्थ बना डाला जिसका मानो इस्लाम से कोई सम्बंध ही न हो। उनके मुताबिक ये पश्चिम से आयातित किया शब्द और अर्थ है जिसका हम मुसलमानों से दूर तक कोई लेना देना नहीं। इस तरह धर्मों खास तौर से इस्लाम से “न्याय व दया” का इंकार कर दिया गया जिसका असल में “न्याय व दया” से गहरा सम्बंध था इसलिए इसके साथ ही डेमोक्रेसी के आधुनिक अर्थ को भी खारिज कर दिया गया।
ऐसी स्थिति में जब धार्मिक धारा को लोकप्रियता भी हासिल है उनके नेता के कांधो पर ज़िम्मेदारियाँ बनती हैं किः
1- इंसानों के राजनिति इतिहास का दोबारा से अध्ययन किया जाए ताकि ये स्पष्ट हो सके कि ये इतिहास इस्लामी अर्थ से कितनी टकराता या मेल खाता है।
2- पश्चिम के उदारीकरण के इतिहास का फिर से अध्ययन किया जाए, फिर इसकी तुलना इस्लामी दुनिया के “इस्लामी उदारवाद” के बुलावे से किया जाए।
3- राजनीतिक और सामाजिक दर्शन को धर्म से सुसंगत करने की कोशिश की जाए जो पहले से ही अपने तत्व में इन दर्शनों से टकराव नहीं रखता है। ये टकराव धर्म के शास्त्री और व्यापारी पैदा करते हैं, ताकि पूरे धर्म पर उनका एकाधिकार स्थापित रहे।
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