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Hindi Section ( 20 Nov 2013, NewAgeIslam.Com)

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History of Namaz in Islam- Part 2 इस्लाम में नमाज़ का इतिहास- नमाज़ (2)

 

नास्तिक दुर्रानी, न्यु एज इस्लाम

20 नवंबर, 2013

कुरान में मक्का वालों के यहाँ नमाज़ की मौजूदगी का इशारा मौजूद है। खुदा का इरशाद है: वमा काना सलातोहुम इन्दल बैयते इल्ला मोकाअन वतस्दियतन (अनुवादः और इन लोगों की नमाज़ खानए काबा के पास सीटियाँ और तालियाँ बजाने के सिवा कुछ न थी- इल-अंफाल 35)। टीकाकरों ने उल्लेख किया है कि क़ुरैश नग्न हालत में काबे का तवाफ़ (काबा के चारों ओर चक्कर लगाना) सीटियाँ और तालियाँ बजाकर करते थे। सलातोहुम का मतलब उनकी दुआ है, यानी दुआ और तस्बीह की जगह सीटियाँ और तालियाँ बजाया करते थे। ये भी कहा गया है कि उनकी न ही कोई सलात है और न ही कोई इबादत, बल्कि उनसे जो हासिल होता है वो सिवाय मनोरंजन के कुछ नहीं 1

ये भी कहा गया है कि जिस सलात के वो दावेदार हैं कि उससे उनको माफी मिल जायेगी, सिवाय सीटियों और तालियों के कुछ नहीं है। ये चीज़ अल्लाह को राज़ी नहीं कर सकती। न ही अल्लाह को पसंद है और न ही उन पर अनिवार्य की गई है और न ही उन्हें इसका हुक्म दिया गया है। 2

ये भी कहा गया है किः "अल्लाह ताला फरमाते हैं कि उन मुशरिकीन के लिए कौन सी वजह है कि अल्लाह उन्हें सज़ा न दे, जब वो मस्जिदे हराम में उन्हें नमाज़ पढ़ने से रोकते हैं, जो अल्लाह के लिए इसमें नमाज़ पढ़ते और इबादत करते हैं और ये अल्लाह के दोस्त कभी न थे बल्कि अल्लाह के दोस्त वो लोग थे जिन्हें ये लोग मस्जिदे हराम से रोकते थे और वो इन लोगों की वजह से मस्जिदे हराम में नमाज़ नहीं पढ़ पाते थे। और अल्लाह के घर के पास उसकी नमाज़ सिवाय तालियों और सीटियों के कुछ न थी" "और तसदियतः तालियां बजाना है।" 3

कुछ रावियों ने इस आयत के नाज़िल होने का कारण ये बताया है कि क़ुरैश पैगम्बर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के तवाफ़ में या घर में उनकी नमाज़ का विरोध करते और उनका मजाक उड़ाया करते और सीटियाँ और तालियाँ बजाया करते थे। इसलिए ये आयत उन पर नाज़िल हुई। और कहा गया है किः रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम  अगर मस्जिदे हराम में नमाज़ पढ़ते तो बनी अब्दल दार के दो आदमी आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के दाईं तरफ खड़े होकर सीटियाँ बजाते और दो ​​आदमी बाईं तरफ खड़े होकर अपने हाथों से तालियाँ बजाते और उनकी नमाज़ को भ्रमित करने की कोशिश करते, इसलिए अल्लाह ने बद्र के दिन उन सबको क़त्ल कर दिया। 4

एक रवायत में आया है किः "वो काबा का तवाफ़ नग्न होकर और हाथ की उंगलियाँ आपस में फँसाकर सीटियाँ बजाते और तालियां बजाकर क्या करते थे। इस तरह सीटियाँ और तालियाँ उनके लिए एक तरह की इबादत हुआ करती थी। इसलिए उन्होंने नमाज़ की जगह अपने विश्वास के अनुसार तैयार की थी। इसमें और ये भी है कि जिसकी सीटियाँ और तालियाँ नमाज़ हो उसकी कोई नमाज़ नहीं।" 5

और अतयतः ने इब्ने उमर रज़ियल्लाहू अन्हू से रवायत क्या फरमायाः वो काबा का तवाफ़ करते और तालियां बजाते और अपने हाथ से ताली का बयान किया, और सीटियाँ बजाते और उनकी सीटियाँ बयान कीं, और अपने गाल ज़मीन पर लगाते, तो ये आयत नाज़िल हुई। 6, इसलिए उनकी ये नमाज़ विशिष्ट गतिविधियों पर आधारित एक विशेष नमाज़ है और हज़रत इब्ने उमर रज़ियल्लाहू अन्हू के अनुसार इसमें सज्दा भी है।

ये कहना कि आयत बनी अब्दल अलदार के उक्त लोगों की वजह से नाज़िल हुई, आयत से मेल नहीं खाती क्योंकि आयत मुशरिकीन की नमाज़ की तरफ इशारा कर रही है रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की नमाज़ की तरफ नहीं। इसकी दलील शब्द "सलातोहुम" का इस्तेमाल है जो ज़मीर जमा है और कुरैश की तरफ लागू होता है। रहे वो लोग तो वो लोग मजाक़ उड़ा रहे थे, नमाज़ पढ़ रहे थे, इसके अलावा ये बात कई स्रोतों से टीकाओं की किताब में नहीं आई है, बल्कि ऐसी रवायत की बहुतायत है जिनमें बताया गया है कि क़ुरैश मका और तसदियतः की नमाज़ पढ़ा करते थे यानी सीटियों और तालियों की नमाज़ जो मनोरंजन के सिवा कुछ नहीं। इसलिए उक्त टिप्पणी सही मालूम नहीं होती, यानि आयत के वाह्य अर्थ से उक्त लोगों का रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की नमाज़ का मजाक उड़ाना, इस तरह हमारे पास वाह्य अर्थ और उसकी व्याख्या में आने वाली बात को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं कि क़ुरैश इस्लाम के आने से पहले नमाज़ पढ़ा करते थे लेकिन उनकी नमाज़ सम्मान की नमाज़ नहीं थी बल्कि सीटियों और तालियों और मनोरंजन पर आधारित थी जो इंसान की तरफ से अपने निर्माता के सम्मान के रूप में अशोभनीय है। ऐसी नमाज़, नमाज़ कहलाने के लायक नहीं है, क्योंकि ये सम्मान और प्रतिष्ठा से खाली है।

कुरैश की नमाज़ अगर मनोरंजन लगती है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। बहुत सारे धर्म अपनी प्रार्थना गाने, संगीत और नृत्य के द्वारा करते हैं क्योंकि वो मानते हैं कि इस तरह वो खुदाओं के दिल में प्रसन्नता डालकर उन्हें राज़ी करते हैं। इसलिए उनकी प्रार्थना इसी शैली में होनी चाहिए। आज भी कुछ धर्मों में धार्मिक नृत्य नज़रा आता है, इसलिए कुरैश की प्रार्थना इसी शैली की एक प्रार्थना थी।

खबरों में ये भी आया है कि प्रार्थना जाहिलों के यहां प्रसिद्ध थी। वो मुर्दे पर इस तरह नमाज़ पढ़ा करते थे कि उसकी कब्र पर खड़े होकर उसके कामों और अच्छाइयों की चर्चा करते और उस पर दुख व्यक्त करते। इस काम को वो "सलात" कहते थे। ये और इस तरह की दूसरी नमाज़ों को इस्लाम "दावा अलजाहिलिया" 7 करार दिया है। ये नमाज़ जैसे उनकी उन नमाज़ों में से एक है जो वो मुर्दा की कब्र पर अदा करते थे। ये नमाज़ ही है हालांकि ये मृतक की नमाज़ या इस्लाम की नमाज़े जनाज़ा से अलग है, और कौन जानता है? शायद वो कोई और तरह की नमाज़ें भी पढ़ते हों जिनकी खबर हम तक न पहुंच सकी हो।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की नमाज़ की एक और खबर भी है जिसका सीरत (जीवनी) लिखने वालों ने उल्लेख किया है। वो बताते हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम "दिन की शुरुआत में काबा की तरफ़ जाते और सलात अलदुहा पढ़ते। ये ऐसी नमाज़ थी जिसका कुरैश इंकार नहीं करते थे। वो ये नमाज़ सारा दिन पढ़ते और हज़रत अली और हज़रत ज़ैद रज़ियल्लाहू अन्हुमा उन्हें बैठ कर देखते रहते।" 8, हालांकि ये खबर ये नहीं बताती कि जाहिलियों के यहाँ "सलातुद् दोहा" मौजूद था। लेकिन ये ज़रूर बताती है कि कुरैशी को सलातुद् दोहा की खबर थी इसलिए उन्होंने इसका इंकार किया और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को ये नमाज़ पढ़ने दी, लेकिन मैं ये कहता हूँ कि वो इस नमाज़ को जानते थे न कि पढ़ते थे, क्योंकि मैं जल्दबाज़ी में एक अस्पष्ट खबर के आधार पर जिसे और व्याख्या की ज़रूरत हो, कोई अंतिम फैसला नहीं कर सकता।

दुआ जो इस्लाम में नमाज़ के अर्थ में आती है, अल्लाह की तरफ विनम्रता और उसकी भलाई को माँगना है। हिब्रू भाषा में इस शब्द का समानार्थी "तहनूनीम" है, जिसका अर्थ इल्तेजा (प्रार्थना) और दुआएं करना है! जबकि रुकू और सज्दे का समानार्थी शब्द "तफ़ीला" Tephillah है और प्राचीन हिब्रू में "तफलूत" है, जिसका अर्थ सलात और सलवात है। लेकिन ये तौरेत के आखरी ज़माने के दौर में नमाज़ को आरामी शब्द "सलूता" से बदलने से पहले की बात है। 9

मज़हब के उलमा ने नोट किया है कि बरबरियों सहित पुरानी कौमें ऐसे धार्मिक कर्तव्यों को अंजाम दिया करते थे जिन पर शब्द "सलात" को लागू करना सही है। 10, खुदाई करने वालों को कुछ ऐसे प्राचीन लेख मिले हैं जिन्हें आशूरी और बाबुली अपनी नमाज़ों में पढ़ा करते थे। 11, प्राचीन धर्मों का मानना ​​था कि जब आदमी नमाज़ को सही तरीके से अदा करता है, लिखे या याद किए हुए आवश्यक ग्रंथों को पढ़ता है, नमाज़ के सभी अरकान अदा करता है और खुदाओं के सही नाम लेकर इल्तेजा करता है तो खुदा नमाज़ी की आवश्यकताओं को पूरी कर देते हैं और जवाब देने पर अवश्य मजबूर हो जाते हैं। 12, वो नमाज़ अपने फायदे, मतलब और मकसद को हासिल करने के लिए पढ़ता है।

इंसान समझता था कि अगर उसने नमाज़ पढ़ी और नमाज़ में पवित्र शब्दों को दुहराया तो उसकी ये नमाज़ न केवल ख़बीस (बुरी) आत्माओं और बुरे जीवों को भगाने के काम आ सकती है, बल्कि इससे सभी बीमारियाँ और बुराईयाँ दूर हो जाएंगी। न केवल ये बल्कि उसका ये विचार था कि नमाज़ी अगर नमाज़ को सही तरीके से अदा करे तो वो अच्छी आत्माओं को अपने कार्यों के लिए भी उपयोग कर सकती है। धर्म "ज़रतुश्त" की "युस्ना" में आया है: "अपनी इस नमाज़ के द्वारा ऐ मज़दा मैं तुमसे बुरी आत्माओं को भगाने की प्रर्थना करता हूँ।" 13

इसलिए प्राचीन मानवों ने सिर्फ मूर्तियों, खुदा या खुदाओं की महानता को स्वीकार करने में नमाज़ें नहीं पढ़ीं बल्कि अपने अंदर मौजूद स्वार्थ के लिए भी पढ़ीं, क्योंकि वो समझता था कि उसकी ये नमाज़ उसे फायदा पहुंचाएगी और उसे धन, दौलत से मालामाल कर देगी। यही वजह थी कि जब उस पर कोई मुसीबत आती तो वो इसको अक्सर अदा करता ताकि खुदा उससे राज़ी हो जाए और उस पर रहमत बरसाते हुए उसकी मदद करें और नमाज़ में मांगी गई उसकी मुरादें पूरी हों।

अधिकांश धर्मों में प्रार्थनाएं दो तरह की होती हैं: अनिवार्य प्रार्थना जो इंसान को अपने मालिक के लिए अदा करनी होती हैं, क्योंकि खुदा ने उसे उस पर अनिवार्य कर दी है। और एक ऐच्छिक प्रार्थना जिसका अदा करना पुण्य है और बंदे के द्वारा इसे छोड़ने पर खुदा का प्रकोप नहीं आता। उसे वो अदा करता है जो अपने रब से अधिक निकटता प्राप्त करना चाहता होँ।

यहूदी और ईसाईयों ने कुछ ऐसी प्रार्थनाओं की अनदेखी की जो पहले उनके बाप दादा अदा किया करते थे। यही वजह है कि अतीत की तुलना में आज इन प्रार्थनाओं की संख्या खासी कम हो गई है, इसके अलावा उन्होंने उनको अदा करने के वक्त में सुस्ती बरती। 14

इस्लाम में नमाज़ें दो प्रकार की हैं, पहली नमाज़ अनिवार्य नमाज़ है, ये वो पाँच फर्ज़ (अनिवार्य) नमाज़ें हैं जिन्हें इंसान को अपने वक्त पर अदा करनी होती हैं, और दूसरे ऐच्छिक नमाज़ , जो सुन्नत, मुस्तहब में बँटी है। 15

संदर्भ :

1 – तफ्सीर अलतिब्री, मजमउल बयान फी तफ्सीरिल क़ुरान 540 / 4 और उससे आगे, तफ्सीर इब्ने कसीर 306 / 2

2 - तफ्सीर अलतिब्री, मजमउल बयान फी तफ्सीरिल क़ुरान 157 / 9 और उससे आगे।

3 - तफ्सीर अलतिब्री, मजमउल बयान फी तफ्सीरिल क़ुरान157 / 9

4 - तफ्सीर अलतिब्री 158 / 9, तफ्सीर अलतिब्रिसी 540 / 4

5 – तफसीर अलनेसाबोरी 157 / 91 तफ्सीर अलतिब्री पर हाशिया

6 – वाहिदी की अस्बाबे नुज़ूल पेज 176

7 - इरशाद अलसारी लिश्शरह सही अलबुखारी लिलक़स्तलानी 406 / 2

8 - अलमकरेज़ी, इमताउन अस्मा 17 / 1, अलबलाज़री, अंसाब अल-अशराफ 113 / 1

9 - Mittwoch, S., 6, Hastings, P., 744

10 - Encyclopedia Britanica, art Prayer

11 - The Religions of the East, P. 14

12 - The Old Persian Religion, 1920, P. 22

13 - The Old Persian Religion, P., 23

14 - कामूस अलकिताब अलमुक़द्दस 13 / 2 और उससे आगे

15 – अहयाय उलूमुल दीन 174 / 1 काहिरा 1302

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