नसीर अहमद, न्यू एज इस्लाम
12 सितंबर 2017
कुरआन मजीद में नाज़िल होने वाली आयात मुतशाबेहात क्या हैं? क्या वह हमारी समझ से बाहर हैं?क्या कुरआन हमें उन पर वार्तालाप करने से या उन्हें समझने या उनसे दर्स प्राप्त करने से रोकता है? आयत 3:7 में इसका विवरण उपलब्ध है।
इस आयत के वह शब्द जिनका प्रायः गलत अनुवाद किया जाता है:
1- मुतशाबेहात- इसका अर्थ एक ही प्रकार का मेल खाने वाला वर्चुअल शब्द
2- तशाबूहात- इसका अर्थ मेल खाता हुआ या एक ही प्रकार का होना है
कुरआन में ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसका अर्थ अस्पष्ट हो और जो लोग “तशाबूह का अनुवाद अस्पष्ट करते हैं वह गलत अनुवाद पेश करते हैं। अल्लाह का कोई शब्द या उसकी कोई आयत अस्पष्ट नहीं हो सकती।
आयत 3:7 का सही अनुवाद
“वही (हर चीज़ पर) ग़ालिब और दाना है (ए रसूल) वही (वह ख़ुदा) है जिसने तुमपर किताब नाज़िल की उसमें की बाज़ आयतें तो मोहकम (बहुत सरीह) हैं वही (अमल करने के लिए) असल (व बुनियाद) किताब है और कुछ (आयतें) मुतशाबेह (मिलती जुलती) (गोल गोल जिसके मायने में से पहलू निकल सकते हैं) पस जिन लोगों के दिलों में कज़ी है वह उन्हीं आयतों के पीछे पड़े रहते हैं जो मुतशाबेह हैं ताकि फ़साद बरपा करें और इस ख्याल से कि उन्हें मतलब पर ढाले लें हालाँकि ख़ुदा और उन लोगों के सिवा जो इल्म से बड़े पाए पर फ़ायज़ हैं उनका असली मतलब कोई नहीं जानता वह लोग (ये भी) कहते हैं कि हम उस पर ईमान लाए (यह) सब (मोहकम हो या मुतशाबेह) हमारे परवरदिगार की तरफ़ से है और अक्ल वाले ही समझते हैं”
“तशाबूह” का एक बेहतरीन उदहारण “वजहुल्लाह” है, जिसका शाब्दिक अर्थ “खुदा का चेहरा” है, लेकिन इससे केवल अल्लाह के वजूद या उसकी उपस्तिथि का अर्थ या आयत के संदर्भ में कोई उचित अर्थ लिया जाता है। लोगों को हमारे सामने एक ऐसी वास्तविकता बयान करने के लिए जो हमारे अनुभव और समझ से बाहर हो शब्द वजह का प्रयोग नहीं करना चाहिए जो कि केवल “तशाबेहा” के लिए है, और न ही इस शब्द की सहायता से हमें यह अंदाज़ा लगाना चाहिए कि अल्लाह का चेहरा कैसा है और न इसके आधार पर हमें अल्लाह का कोई तश्बीही कल्पना करना कायम करना चाहिए। इसलिए, जो लोग तशाबेहा के आधार पर अटकलें लगाते हैं उनके दिलों में खोट है। ऐसे लोग कुरआन के ऐसे हिस्से पर अमल करते हैं जो फसाद तलाश करने और उसकी ताबीर तलाश करने की तरह है। इसका अर्थ अल्लाह के सिवा और कोई नहीं जानता। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि “अल्लाह का “चेहरा” देखना क्या है और इस वाक्य का अर्थ अल्लाह के सिवा कौन जनता है? इसलिए एक वर्चुअल और तमसीली आयत का मतलब साफ़ और स्पष्ट है।
निम्नलखित आयात के बारे में कुछ भी अस्पष्ट नहीं है जिसमें शब्द “तशाबूह” का उल्लेख है:
“(तुम्हारे मसजिद में रोकने से क्या होता है क्योंकि सारी ज़मीन) खुदा ही की है (क्या) पूरब (क्या) पश्चिम बस जहाँ कहीं क़िब्ले की तरफ रूख़ करो वही खुदा का सामना है बेशक खुदा बड़ी गुन्जाइश वाला और खूब वाक़िफ है”(2:115)
“और ख़ुदा के सिवा किसी और माबूद की परसतिश न करना उसके सिवा कोई क़ाबिले परसतिश नहीं उसकी ज़ात के सिवा हर चीज़ फना होने वाली है उसकी हुकूमत है और तुम लोग उसकी तरफ़ (मरने के बाद) लौटाये जाओगे”(28:88)
“और सिर्फ तुम्हारे परवरदिगार की ज़ात जो अज़मत और करामत वाली है बाक़ी रहेगी।” (55:27)
“मुतशाबेहात” का प्रयोग करते हुए जो बात, जो अर्थ या जो मकसदत पेश करना मकसूद है वह किसी भी स्थिति में संदेहजनक नहीं है और उन पर वार्तालाप की जा सकती है, उनको समझा जा सकता है और उन पर अमल भी किया जा सकता है।
इसलिए, कुरआन में आयतें दो प्रकार की हैं- प्रथम आयते मुह्कमात जिनमें बिलकुल वही शब्द प्रयोग किये गए हैं जिनका शाब्दिक अर्थ हमें प्राप्त करना चाहिए, द्वितीय आयाते मुतशाबेहात जिनमें “तशाबेहा” या समान शब्द प्रयोग किये गए हैं और सामान या समरूप खुद कभी हकीकत नहीं होता बल्की हकीकत से मिलते जुलते शब्दों का प्रयोग करता है और हमारे सामने वह हकीकत पेश करता है जो हमारी सोच और समझ से परे है। चूँकि आयाते मुतशाबेहात में सामान शब्द का प्रयोग किया जता है इसी लिए इस आयत का अर्थ खुद अस्पष्ट नहीं होता है।
अब हम शब्द “रूह” की बात करते हैं। क्या ये “तशाबेहा” हैं, लेकिन अगर शब्द “रूह” का प्रयोग खुद रूह के लिए किया जाता है तो यह “तशाबेहा” नहीं है, और जिन आयात में यह शब्द मौजूद है वह आयात मुतशाबेहात नहीं हैं। कुरआन खुद शब्द रूह की व्याख्या करता है जैसा कि मेरे एक लेख "Is।am and Mysticism: Is ‘Ruh’ Sou।? (Part 2)" में इसकी व्याख्या की गई है। मेरे इस लेख में जो आयतें शामिल की गई हैं वह मुतशाबेहात नहीं हैं और आयतों में शब्द रूह का प्रयोग किसी और शब्द से समानता या “तशाबेहा” के लिए नहीं बल्की खुद रूह के लिए किया गया है। चूँकि यह आयतें मुतशाबेहात नहीं बल्की मुह्कमात में से हैं, इसी लिए इनका अर्थ निर्धारित है और इससे इसका शाब्दिक अर्थ ही मुराद लिया जाएगा। अल्लाह ने जो रूह की तारीफ़ की है उसके अनुसार रूह का अर्थ “इल्काए इलाही” है, जैसा कि उक्त लेख में इस पर विस्तार के साथ गुफ्तगू की गई है। इसका अर्थ यह नहीं है कि रूह भी आयात से स्पष्ट है।
कौन सी आयात मुह्कामत में से है और कौन सी आयात में मुतशाबेहत शब्दों का प्रयोग किया गया है इसमें कभी कोई शक नहीं रहा है। जैसे, निम्नलिखित आयत में एक जैसे शब्द का प्रयोग किया गया है और इसमें कौन सा शब्द समान है वह बिलकुल साफ़ है।
“ख़ुदा तो सारे आसमान और ज़मीन का नूर है उसके नूर की मिसल (ऐसी) है जैसे एक ताक़ (सीना) है जिसमे एक रौशन चिराग़ (इल्मे शरीयत) हो और चिराग़ एक शीशे की क़न्दील (दिल) में हो (और) क़न्दील (अपनी तड़प में) गोया एक जगमगाता हुआ रौशन सितारा (वह चिराग़) जैतून के मुबारक दरख्त (के तेल) से रौशन किया जाए जो न पूरब की तरफ हो और न पश्चिम की तरफ (बल्कि बीचों बीच मैदान में) उसका तेल (ऐसा) शफ्फाफ हो कि अगरचे आग उसे छुए भी नही ताहम ऐसा मालूम हो कि आप ही आप रौशन हो जाएगा (ग़रज़ एक नूर नहीं बल्कि) नूर आला नूर (नूर की नूर पर जोत पड़ रही है) ख़ुदा अपने नूर की तरफ जिसे चाहता है हिदायत करता है और ख़ुदा तो हर चीज़ से खूब वाक़िफ है” (24:35)
उपर्युक्त आयत में रौशनी, ताक, चराग, फानूस और तेल का प्रयोग मजाज़न (रूपक) किया जाता है, आयत को समझना कठिन है लेकिन यह आयत अस्पष्ट नहीं है। इसका अर्थ क्या है और इसका अर्थ क्या नहीं है मेरे निम्नलिखित लेख में पेश की गई दोसरी औयों की सहायता से समझा जा सकता है:
आयते नूर की व्याख्या
सारांश यह है कि कुरआन में एक भी अस्पष्ट आयत नहीं है। बल्की कुरआन में दो प्रकार की आयतें हैं। एक आयात मुह्कमात जिनमें निर्धारित शब्दों का प्रयोग किया गया है और इन आयात में उन शब्दों का प्रायः शाब्दिक अनुवाद ही किया जाएगा, और दोसरी वह आयतें हैं जिनमें “तशाबेहा” अर्थात समान और एक जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। और इन आयतों में शब्द को इसके शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जा सकता बल्की इसे केवल उदहारण के लिए प्रयोग किया जाता है।
अल्लाह ने साफ़ कर दिया है कि किन शब्दों का शाब्दिक अनुवाद किया जाएगा और किन शब्दों के व्याख्या की आवश्यकता है। लेकिन विडंबना यह है कि इस किताब कुरआन को गलत अंदाज़ में समझा गया है क्यों कि आयते मुह्कमात कि जिनका शाब्दिक अनुवाद किया जाना चाहिए था उनकी भी व्याख्या इस अंदाज़ में की गई है कि जिसका परिणाम यह है कि कुरआन की एक साझा समझ कायम होने की बजाए उससे संबंधित हर इंसान के पास एक अलग तफहीम (समझ) और व्याख्या है!
URL for English article: http://newageislam.com/islamic-society/naseer-ahmed,-new-age-islam/the-mutashaabihat-or-the-allegorical-verses-of-the-quran/d/112500
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