नसीर अहमद, न्यू एज इस्लाम
१५ अप्रील २०१९
मज़हब पुर्णतः प्रकृति के खिलाफ साबित हुआ है इसलिए कि हर मज़हबी हुक्म या कानून उस चीज को खत्म करता है जिससे इंसान को लज्ज़त मिलती है और हर उस बात से परहेज़ करने का आदेश देता है जो खुद के हक़ में या समाज के हक़ में हानिकारक है, और बड़े पैमाने पर समाज की भलाई के लिए ऐसे कामों का आदेश देता है जो तकलीफदेह या नागवार हो सकते हैंl एक मुद्दत तक मजबूरी के तहत अमल करने के बाद इंसानों को मज़हब की पैरवी करने के बड़े फायदे समझ में आए और वह ख़ुशी ख़ुशी मज़हब के पैरुकार बन गएl अल्लाह ने इंसान को तरक्क्की पसंद आसमानी वही के जरिये सभ्य किया और आखिर में अल्लाह ने हमारे आखरी नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर एक पूर्ण दीन के साथ कुरआन को नाज़िल किया हैl
क्या आखरी वही पुर्णतः स्पष्ट और समझे जाने के काबिल थी, या इसके कुछ हिस्से अब भी प्रकृति के खिलाफ थे जिनकी पैरवी के लिए अकीदे की जरूरत थी? अकाल और सूझ बूझ की बुनियाद पर किसी चीज की पैरवी करने से किसी चीज को विकल्प कर लेना भिन्न हैl जिस पर कोई कंट्रोल नहीं होता हम इस पर अपने माहौल से मानूस हो जाते हैं, या मज़बूरी के तहत किसी मज़हब से मानूस हो जाते हैं या किसी मज़हब को इसलिए विकल्प कर लेते हैं क्योंकि हम इस पर विश्वास रखते हैं हमारे सामने हर चीज स्पष्ट नहीं होतीl इसलिए, जब मज़हब के हर सिद्धांत स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आते हैं तो अकीदा एक महत्वपूर्ण किरदार अदा करता है यहाँ तक कि यह हमारी समझ में आ जाएंl अकीदे के साथ जो लोग समझने की ईमानदारी से कोशिश करते हैं उन्हें इसकी समझ हासिल हो जाएगी और जो लोग अकीदे के बिना समझने की कोशिश करते हैं वह गुमराह हो सकते हैंl
उदाहरण के तौर पर पाबंदी के साथ जिंसी संबंध स्थापित करने की अनुमति को ही देख लेंl हमें यह नैतिक तौर पर अभद्र और अस्वीकार्य मालुम होता है लेकिन इसके बावजूद इजाज़त थीl आखिर इसके जवाज़ की क्या सूरत हो सकती है? इसका जवाब तलाश करने के लिए हमें ज़रूरत है कि:
“तफ़सीर” के जरिये सपष्ट अर्थ से इनकार ना करें जिसे उलेमा ने अपने लिए उचित अर्थ लेने के लिए तैयार किया हैl सबसे पहला चरण यह है कि हम इस बात को स्वीकार करें कि जो नैतिक तौर पर अभद्र और गलत है असल में इसकी अनुमति हैl
अल्लाह पर पूरा भरोसा रखें अगर इसकी अनुमति दी गई है तो बंदियों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करने की अनुमति देना नैतिक तौर पर इसकी अनुमति ना देने से बेहतर हैl
अब उन सभी शवाहिद का अध्ययन करें जिन से इस बात की वजाहत होती हो कि ऐसा क्यों किया गयाl
मैनें भी खुद को इस अमल से गुज़ारा है जिसका परिणाम निम्नलिखित लेख है:
The Morality or the Immorality of the Institution of Slavery and the Quranic Permission That Allowed Sex with Female Slaves
क्या नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को भी इसी तरह की समस्याओं का सामना था?
कुरआन में इस बात के स्पष्ट सबूत मौजूद हैं कि हर वही नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मज़ाक के मुताबिक़ नहीं थी, या उसमें जो अच्छी बात थी उसे त्वरित रूप से समझ लिया गयाl जैसे कि:
(११:१२) तो क्या जो वही तुम्हारी तरफ होती है उसमें से कुछ तुम छोड़ दोगे और उस पर तंग दिल होगे इस बिना पर वह कहते हैं उनके साथ कोई खज़ाना क्यों ना उतरा उनके साथ कोई फरिश्ता आता, तुम तो डर सुनाने वाले हो और अल्लाह हर चीज पर मुहाफ़िज़ हैl
कुरआन यह स्पष्ट नहीं करता कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को कौन सी बात ना खुशगवार थीl लेकिन यह इस बात को जानने के लिए काफी है कि कोई ऐसी बात तो थी जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को ना खुशगवार थीl
जंग का आदेश लोगों पर ना खुशगवार गुजरा
(२:२१६) (मुसलमानों) तुम पर जिहाद फर्ज क़िया गया अगरचे तुम पर शाक़ ज़रुर है और अजब नहीं कि तुम किसी चीज़ (जिहाद) को नापसन्द करो हालॉकि वह तुम्हारे हक़ में बेहतर हो और अजब नहीं कि तुम किसी चीज़ को पसन्द करो हालॉकि वह तुम्हारे हक़ में बुरी हो और ख़ुदा (तो) जानता ही है मगर तुम नही जानते होl
इस आयत में नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से ख़िताब है क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को जंग नापसंद थी, या शायद इस्मने ख़िताब आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के जरिये अप्रत्यक्ष रूप से आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अनुयायियों से है इसलिए उनमें सी बहोत सारे लोगों को जंग नापसंद थीl ऐसे अनगिनत शवाहिद मौजूद हैं कि किसी भी मुसलमान को जंग पसंद नहीं थी और शायद हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को भी, लेकिन अल्लाह की वही के जरिये उन्हें इस पर मजबूर किया गयाl इसकी वजह शायद नेस्त नाबूद हो जाने का खौफ रही होगी क्योंकि वह संख्या में कमतर थे और अपने दुश्मन से उनका कोई मुकाबला नहीं थाl
साझा मान्यताओं के साथ समझौता अस्वीकार
निम्नलिखित आयतों में उन शितानी आयतों का उल्लेख है जिन्हें अल्लाह पाक ने त्वरित रूप से मंसूख कर दिया थाl तथापि कुछ देर के लिए शैतान सफल हो भी सकता था क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम विवादों के लिए सुलह चाहते थेl तथापि मज़हब में शिर्क के साथ किसी भी प्रकार की सुलह को अल्लाह ने अस्वीकार कर दियाl
(२२:५२) और (ऐ रसूल) हमने तो तुमसे पहले जब कभी कोई रसूल और नबी भेजा तो ये ज़रूर हुआ कि जिस वक्त उसने (तबलीग़े एहकाम की) आरज़ू की तो शैतान ने उसकी आरज़ू में (लोंगों को बहका कर) ख़लल डाल दिया फिर जो वस वसा शैतान डालता है खुदा उसे बेट देता है फिर अपने एहकाम को मज़बूत करता है और खुदा तो बड़ा वाक़िफकार दाना हैl
(५३) और शैतान जो (वसवसा) डालता (भी) है तो इसलिए ताकि खुदा उसे उन लोगों के आज़माइश (का ज़रिया) क़रार दे जिनके दिलों में (कुफ्र का) मर्ज़ है और जिनके दिल सख्त हैं और बेशक (ये) ज़ालिम मुशरेकीन पल्ले दरजे की मुख़ालेफ़त में पड़े हैंl
(५४) और (इसलिए भी) ताकि जिन लोगों को (कुतूबे समावी का) इल्म अता हुआ है वह जान लें कि ये (वही) बेशक तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से ठीक ठीक (नाज़िल) हुईहै फिर (ये ख्याल करके) इस पर वह लोग ईमान लाए फिर उनके दिल खुदा के सामने आजिज़ी करें और इसमें तो शक ही नहीं कि जिन लोगों ने ईमान कुबूल किया उनकी खुदा सीधी राह तक पहुँचा देता हैl
(५५) और जो लोग काफिर हो बैठे वह तो कुरान की तरफ से हमेशा शक ही में पड़े रहेंगे यहाँ तक कि क़यामत यकायक उनके सर पर आ मौजूद हो या (यूँ कहो कि) उनपर एक सख्त मनहूस दिन का अज़ाब नाज़िल हुआl
जो बीवी अपने शौहर की गैर मौजूदगी में अपनी इज्जत की हिफाज़त में लापरवाही बरतती हो उसके शौहर को आयत ४:३४ में मारने का आदेश दिया गया है और और इसे अपनी बीवी की इस्लाह के आखरी हिले और तदबीर के तौर पर पेश किया गया हैl तथापि, यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख्वाहिश के खिलाफ थाl निम्न में इस आयत ४:३४ पर मोहम्मद असद का तबसिरा पेश किया जा रहा हैl
“ बहोत साड़ी प्रमाणिक रिवायत से यह ज़ाहिर है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को बीवी को मारने का नजरिया सकहत नापसंद और नागवार था और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कई मौकों पर यह फरमाया कि “क्या तुम में से कोई अपनी बीवी को उस तरह मार सकता है जैसे अपनी बांदी को मारता है, और फिर शाम को उसी के साथ सोए?” (बुखारी और मुस्लिम)
दोसरी रिवायत के अनुसार नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने किसी भी औरत को मारना अपने इन शब्दों के साथ निषेध करार दिया था कि “अल्लाह की बंदियों को कभी मत मारो” (अबू दाउद, निसाई, इब्ने माजा, अहमद बिन हम्बल, इब्ने हिबान और हाकिम बसनद इलियास इब्ने अब्दुल्लाह, इब्ने हिबान अब्दुल्लाह बिन अब्बास, और बेहकी बसनद उम्मे कुलसुमl जब सरकश बीवी को मारने की अनुमति में कुरआन पाक की यह आयत ४:३४ नाज़िल हुई तो नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि: “मैं कुछ और चाहता हूँ लेकिन खुदा ने कुछ और आदेश नाज़िल कर दिया है और खुदा का आदेश सबसे बेहतर है” (देखें मिनार –जिल्द ५- पृष्ठ ७४)l इसके साथ आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपनी वफात से कुछ अरसे पहले हज्जतुल विदा के मौके पर अपने खुतबे में यह बयान कर दिया था कि बीवी को उसी समय पीटा जाए “जब उसने इस अनैतिक कार्य का खुले तौर पर प्रतिबद्ध कर लिया हो”, और वह भी इस अंदाज़ में कि “इसे इसकी वजह से दर्द ना हो (गैर मुबर्रह)”; इस सन्दर्भ की प्रमाणिक रिवायतें मुस्लिम, तिरमिज़ी, अबूदाउद, निसाई और इब्ने माजा में पाई जाती हैंl इन रिवायतों की बुनियाद पर मुहद्देसीन इस बात पर ज़ोर देते हैं कि “ अगर बीवी को मारने की आवश्यकता पड़ ही जाए तो यह मारना केवल सांकेतिक तौर पर होना चाहिएl “मिस्वाक या किसी ऐसी ही चीज से” (तबरी उलेमा मुतकद्देमीन के विचारों का हवाला देते हुए लिखते हैं), या “किसी किये हुए रुमाल से” (राज़ी); और कुछ महान मुस्लिम फुकहा (मिसाल के तौर पर इमाम शाफई) यह मानते हैं कि यह केवल जायज है और इससे बचने को तरजीह देना चाहिए: और वह इस राए का जवाज़ इस मसले के संबंध में नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के जाती जज़्बात की बुनियाद पर पेश करते हैंl
आधुनिक अध्ययन हमें यह बताते हैं कि जोड़ों के बीच सामान्य हिंसा युवा जोड़ों के बीच विवादों के हल का एक प्रभावी माध्यम है और आयत ४;३४ ने बहोत सारी महिलाओं के रवय्यों को दुरुस्त करके कितनी ही शादियों को टूटने से बचा लिया होगाl यह हिकमत हालांकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास भी त्वरित उपलब्ध नहीं है लेकिन अकीदे की बुनियाद पर इसे स्वीकार करना आवश्यक हैl
खतरों से होशियार
ऐसे बहोत सारे मुसलमान हैं जिनके पास अकीदा नहीं है और वह अपना रास्ता खो देते हैंl अकीदे का अभाव घमंड करने से और कुरआन को अल्लाह की ओर से हमेशा हमेश के लिए एक दुरुस्त वही ए इलाही मानने के बजाए “सातवीं सदी” की एक पुरानी किताब समझने से पैदा होता हैl यह कोई नया रुझान नहीं है और साधारणतः इसके शिकार वह सभी लोग हैं जो थोड़ा इल्म रखते हैंl दसवीं शताब्दी में बहोत सारे “मुस्लिम” दार्शनिक यूनानी दार्शनिकों की किताबें पढ़ कर धर्म के खिलाफ हो गए थे, उन्हें इस बात का ज़रा भी अंदाजा नहीं था कि सभी दर्शन मिल कर भी एक अकेला सिद्धांत ना तो पेश कर सकते थे और ना ही पेश कियाl अब वह उन अखलाकी सिद्धांतों को अपनी अकल व दानिश के आधार पर समझ सकते हैं और इस बात ने उनके अन्दर अब यह बेवकूफाना सोच पैदा कर दी कि इन जैसे लोग खुद इस तरह के नैतिक सिद्धांत पेश कर सकते हैंl उन्होंने यह परिणाम अख्ज़ कर लिया है कि नबी केवल फलसफी थे, इसके पीछे ना तो कोई खुदा है और ना ही कोई वहीl ऐसा लगता है कि खुदा का एक कानून है कि घमंडी मुर्ख अपने रास्ते से भटकते ही रहें गे यहाँ तक कि जब उन्हें वास्तविकता दिखाई जाए वह इस पर गौर करें और अपनी इस्लाह करने की कोशिश करेंl
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