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Hindi Section ( 22 May 2014, NewAgeIslam.Com)

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Muslims Need to Change Approach मुसलमानों को अपनी सोच बदलने की ज़रूरत है

 

 

 

 

नजीब जंग

29 अक्टूबर, 2012

ट्यूनीशिया में एक म्युनिसिपल कार्यकर्ता और उसके सहायक ने मोहम्मद बु अज़ीज़ी को जिस बदसुलूकी और अपमान का निशाना बनाया वो ट्यूनीशिया में क्रांति और व्यापक पैमाने पर अरब बहार का कारण बना। इस बदसलूकी ने न केवल ट्यूनीशिया के अंदर विरोध प्रदर्शन को प्रोत्साहित किया बल्कि कई दूसरे अरब देशों में भी ऐसे ही आंदोलनों की बुनियाद डाली।

इसी तरह पेशावर में तालिबान के हाथों स्कूल की एक छात्रा मलाला पर गोली चलाने के क्रूर और बेरहमी भरी कार्रवाई पर पाकिस्तान और दुनिया के दूसरे भागों में उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया सामने आई।

इसके बाद से दुनिया भर के लोगों की तरफ से लगातार अफसोस और हैरानी और इस कमसिन बच्ची के समर्थन का इज़हार किया जा रहा है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में स्कूलों में पढ़ने वाले 10 साल से कम उम्र के लड़के और लड़कियाँ, जिनमें से कुछ ने अपने चेहरे का पर्दा भी नही किया था, बाहर निकल आए।

अफगानिस्तान के शिक्षा मंत्रालय ने मलाला के लिए देशव्यापी स्तर पर स्कूलों में प्रार्थना सभाओं का आयोजन किया  जिसमें मलाला को जॉन आफ आर्क से तुलना की गयी।

इससे भी अधिक उत्साहजनक बात ये है कि कई इस्लामी संगठन तालिबान के विरोध में आगे आए हैं।

ये बात इसलिए उत्साहवर्द्धक है कि कई साल से देखने में आ रहा है कि तालिबान के खिलाफ रूढ़िवादी मुस्लिम सकारात्मक प्रतिक्रिया कम दे रहे हैं। आतंकवाद के खिलाफ देवबंद जैसे भारतीय मदरसे सहित दूसरे संस्थानों से सामान्य फतवे जारी हुए लेकिन तालिबान की विशिष्ट आलोचना पर ये खामोश हैं।

इस पूरे डेढ़ दशक में सबसे दुखद बात ये है कि इस्लाम को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और खुली बहस का विरोधी करार देकर कई लोगों ने इसे अधीर और असहिष्णु धर्म बताया है। बार बार दुनिया भर के मुसलमानों ने धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले मुद्दों पर हिंसक प्रतिक्रिया जताई है जबकि ऐसी ही स्थिति में दूसरे धर्मों के मानने वाले प्रतिक्रिया के मामले में मौन रहते हैं।

ये बात अक्सर भुला दी जाती है कि हंगामा मामूली अल्पसंख्यकों की तरफ से होता है। हमें ये बात याद रखनी चाहिए कि आज दुनिया में मुसलमानों की संख्या दो बिलियन से अधिक है और उनकी एक बड़ी संख्या अपने काम काज में सामान्य रूप से लगी रहती है।

फिर भी अफसोस की बात ये है कि ये बड़ी तादाद एक छोटे अल्पसंख्यक पर काबू पाने में असमर्थ है और न ही उसे प्रभावित करने में सक्षम है और जो दरअसल इस्लाम धर्म और पैगंबर की बुनियादी शिक्षाओं के खिलाफ काम करते हैं।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फरमाया है, ''ताक़तवर वो नहीं है जो अपनी ताकत से लोगों को काबू में करता है बल्कि ताक़तवर वो व्यक्ति है जो गुस्से की हालत में खुद पर नियंत्रण रखे।''

मुसलमानों के गुस्से का कारण दमनकारी सरकारें, मुस्लिम देशों पर क़ब्ज़ा जमाने या उनके मामलों में हस्तक्षेप की पश्चिमी देशों की कोशिशें को मान सकते हैं लेकिन ये सोच कि बाकी दुनिया इस्लाम को मध्ययुगीन धर्म मानती है और इस्लाम आधुनिक समय के लिए अनुपयुक्त है, ये भी गुस्सा पैदा करता है। लेकिन कोई ये भी नहीं भुला सकता कि इस्लाम की बुनियाद बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम पर है यानी अल्लाह के नाम से शुरू जो सर्वशक्तिमान, बहुत दयावान और परोपकारी है।

प्रसिद्ध इस्लामी विद्वान मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी तीन संस्करणों पर आधारित क़ुरान की व्याख्या तर्जुमानुल क़ुरान की पूरी पहली जिल्द क़ुरान के रहस्यमय शब्दों को समझने के लिए समर्पित कर दिया।

अगर कोई व्यक्ति इन शब्दों में निहित रहस्यमय अर्थ और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की नैतिकता और उनके व्यवहार को समझ ले तो उम्मीद है कि वो कुरान की हिदायत को समझ जाएगा जो कहता है कि 'दूसरों से नफरत तुम्हें न्याय के रास्ते से भटका न दे (कुरान- 5: 8) और आगे ये भी कहा गया है कि ''ऐसा इनाम उनके अलावा किसी को नहीं मिलेगा जो धैर्य से काम लेते हैं।'' (कुरान- 41: 35)

इसलिए मुसलमानों को क्षमा और दया के गुणों को फिर से हासिल करने की ज़रूरत है। इसके लिए उन्हें अपने व्यवहार और सोच में बदलाव लाने की ज़रूरत होगी। अपने विचारों को अधिक नरम अंदाज़ में पेश करना और बेलगाम हिंसा के भौंडे प्रदर्शन पर काबू पाना होगा। भारतीय मुसलमानों को ये बात अवश्य समझनी चाहिए कि दर्जनों दंगों, बाबरी मस्जिद के भयावह अनुभवों और 1991 में मुम्बई, 2002 में गुजरात के दंगा के बावजूद भारत धर्मनिरपेक्ष रहा है, क्योंकि 85 प्रतिशत भारतीय जिनमें बड़ी संख्या हिंदूओं की है, दृढ़ता से सेकुलर बने रहे हैं।

सिटीज़न्ज़ ऑफ जस्टिस एंड पीस और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के साझा प्रयास के रूप में इस संस्थान में हाल ही में आयोजित एक सेमिनार के अधिकांश प्रतिभागी गैर मुस्लिम थे जो विभिन्न सभाओं में विचार व्यक्त कर चुके हैं। प्रोफेसर रोमीला थापर, शिव विश्वानाथन, दिपांकर गुप्ता, मुकुल केसवन, आर.बी. श्रीकुमार, प्रोफेसर प्रभात पटनायक, हर्ष मंदर, राजदीप सरदेसाई, आशीष खेतान, राम रहमान और मदन गोपाल सिंह ने साम्प्रदायिकता के खिलाफ बहस और तर्क से साबित कर दिया कि धर्मनिरपेक्षता हमारे डी.एन.ए. का अभिन्न हिस्सा है।

इसलिए मुसलमानों को ये समझना ज़रूरी है कि नकारात्मक मानसिकता से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। वो हिंदुस्तान के नागरिक हैं और हमेशा रहेंगे। हिन्दू बहुमत की तरह मुसलमानों के भी बहुसंख्यकों को भारतीय कानून और संविधान तक पहुँच हासिल है। लेकिन मुसलमानों को ऐसे अल्पसंख्यक से टकराना होगा जो अपनी समस्याओं का कानूनी हल हासिल करने के बजाए असंवैधानिक रास्ते अपनाते हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि हिंदुस्तान में अल्पसंख्यकों को कमोबेश भेदभाव, अनुचित व्यवहार और उदासीनता की समस्याओं का सामना उसी तरह है जैसा कि पूरी दुनिया में अल्पसंख्यकों को करना पड़ता है।

हिंदुस्तान में हम सांप्रदायिकता और भेदभाव का मुकाबला आक्रामकता से नहीं बल्कि बेहतर शिक्षा, आपसी बातचीत, सहानुभूति, नैतिकता और इस विश्वास के साथ कर सकते हैं कि देश का एक बड़ा बहुमत सेकुलर मुल्यों और न्याय का समर्थन करता है। जब पश्चिमी समाज काफी हद तक अपने जातीय मुद्दे हल करने में सफल रहे हैं तो ऐसा करने में हम क्यों कामयाब नहीं हो सकते?

29 अक्टूबर, 2012 स्रोतः इंक़लाब, नई दिल्ली

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