मुजाहिद हुसैन, न्यु एज इस्लाम
(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
पाकिस्तान में हर किस्म की बेचैनी का दौर दौरा है और राज्य लगभग हर हवाले से समस्याओं का शिकार है क्योंकि विधायिका, न्यायपालिका और प्रशासन में से हर कोई बाला दस्ती का ख्वाहिशमंद है। फौज इस स्थिति में सत्ता पर कब्जा करने में हमेशा जल्दबाज़ी का प्रदर्शन करती रही है लेकिन आज वो सिर्फ इसलिए ऐसा करने से परहेज कर रही है कि पाकिस्तान की एकता अतीत की तुलना में बहुत कमज़ोर है। देश के एक बड़े हिस्से में आतंकवादियों का राज है तो साथ ही राजनीतिक विवाद युद्ध की स्थिति अख्तियार कर रहे हैं। क़बायली पट्टी राज्य के हाथों से बहुत दूर जा चुकी है और बलूचिस्तान में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो इस्लामाबाद से जान छुड़ाना चाहते हैं। देश का धार्मिक समुदाय सारी दुनिया के साथ युद्ध के लिए तैयार हो रहा है और राज्य को युद्ध के मैदान में व्यस्त देखना चाहता है। हैरानी की बात ये है कि सब जानते हैं कि राज्य में इतनी क्षमता नहीं है और आर्थिक बदहाली चरम पर है लेकिन फिर भी लड़ने मरने की तैयारियां हो रही हैं। कुछ लोगों का मानना है कि जैसे ही अमेरिकी और नाटो फौजें अफगानिस्तान से निकलेंगी पाकिस्तान राज्य हिंसा फैलाने वालों के सामने झुक जायेगी। कुछ मानते हैं कि अमेरिका, भारत और इसराईल एक गहरी साजिश के तहत परमाणु शक्ति वाले देश पाकिस्तान को गरदाब में फंसाने चाहते हैं ताकि उसकी परमाणु क्षमता को समाप्त किया जा सके। कुछ बुद्धिजीवी भी पाकिस्तान में अच्छा खासा नाम कमा रहे हैं जिनका दावा है कि अगर पाकिस्तान तालिबान और अल कायदा के साथ अपने संबंधों को सही कर लेता है तो ये उसके अस्तित्व की गारंटी दे सकते हैं और पाकिस्तान की पारंपरिक दुश्मन देशों भारत, अमेरिका और इजराईल के सभी नापाक मंसूबे खाक में मिल सकते हैं।
इस दौरान एक नई आफत आन पड़ी है और बहुत जोरदार आवाज़ में खुद को स्वतंत्र और सशक्त न्यायपालिका करार देने वाली पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को अदालत के अपमान के एक मामले में दोषी करार दिया है। अदालत सहित हर कोई अच्छी तरह जानता है कि गिलानी की प्रधानमंत्री के तौर पर नामांकन और उपस्थिति का पहला कारण देश के राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी हैं। यूसुफ रजा गिलानी किसी व्यक्तिगत गुण या राजनीतिक संघर्ष के बूते पर देश के प्रधानमंत्री नहीं बल्कि इसका कारण राष्ट्रपति की सहमति है। अब वो जिस अधिकारी के विवेक के आधार पर प्रधानमंत्री हैं, उस अधिकारी के खिलाफ न्यायालय के आदेश पर कैसे अमल कर सकते हैं? यूसुफ रजा गिलानी की जगह कोई और होता या किसी अन्य को आज भी देश का प्रधानमंत्री बना दिया जाए तो वो राष्ट्रपति के खिलाफ स्विस अदालतों को खत नहीं लिखेगा बल्कि ऐसी स्थिति में तो प्रधानमंत्री ही उसे नियुक्त किया जाएगा जो पहले अपना इस्तीफा लिख कर राष्ट्रपति को थमा कर शपथ लेने पर सहमत होगा। हो सकता है फौज इस स्थिति में सिविल सरकार के बजाय न्यायपालिका का साथ देती जो फौज हमेशा तानाशाहों का साथ देती आई है लेकिन मुसीबत ये है कि फौजी कयादत (सैन्य नेतृत्व) न्यायपालिका से भी खुश नहीं और खुफिया संस्थाओं से गायब किए गए पाकिस्तानियों के मुकदमे की सुनवाई उसे नागवार गुजर रही है। इस के अलावा आईएसआई और फौजी कयादत की राजनीतिक बढ़त लेने और धन के बेतहाशा इस्तेमाल का अपने समय का एक मशहूर मुकदमा 'असग़र खान केस' भी सैनिक नेतृत्व को नाखुश करने के लिए काफी है। एक तीसरा मामला पूर्व राजदूत हुसैन हक़्क़ानी और आईएसआई के पूर्व प्रमुख अहमद शुजा पाशा की एक अमेरिकी नागरिक से संवेदनशील मुद्दों पर पत्र व्यवहार और मुलाकातें हैं जिनके प्रारंभिक बातों से पता चलता है कि आईएसआई सिविल सरकारों को उल्टा करने की कितनी रसिया हो चुकी है।
प्रधानमंत्री के खिलाफ फैसले के बाद विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी मुस्लिम लीग नवाज़ आपे से बाहर हो चुकी है और हर स्थिति में सरकार गिराने चाहती है। साथ ही सुनामी जैसी प्राकृतिक आफत को पाकिस्तान की राजनीति में नए अर्थ देने में व्यस्त इमरान खान किसी भी समय मैदान में निकल सकते हैं और इस बार भी उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अमल नहीं किया गया तो वो अपना ''सूनामी'' सड़कों पर ले आएंगे। दूसरी ओर पाकिस्तानी मुल्लाओं, पूर्व सैनिक अधिकारियों और विफल राजनेताओं का पवित्र गठबंधन'' देफाए पाकिस्तान कौंसिल '' भी पूरी ताकत के साथ सक्रिय है और नाटो सप्लाई लाइन की बहाली के खिलाफ खूनी संघर्ष के नारे से लेकर देश की सत्ता पाने तक के मामलों को अपने हाथ में लेना चाहता है। कुछ सूत्रों का दावा है कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियां और उनके सिविल मददगार देफाए पाकिस्तान कौंसिल और इमरान खान की 'सुनामी' राजनीतिक दल के पीछे जो हर स्थिति में नापसंद पीपुल्स पार्टी और बदले की आग में जलते हुए नवाज़ शरीफ़ को आगे भी सत्ता से दूर रखना चाहते हैं। सैन्य नेतृत्व ये समझती है कि नवाज़ शरीफ़ सत्ता में आकर भरपूर शक्ति के साथ राज्य के मामलों में सैन्य हस्तक्षेप का अंत कर देंगे जबकि पीपुल्स पार्टी अगर दोबारा सत्ता में आती है तो उसके नेतृत्व पर फिर से भरोसा करना खतरनाक होगा। ये एक ऐसा मुश्किल मसला है जो सैनिक नेतृत्व के सामने है और जिसके खात्मे की संभावना नजर नहीं आती है।
इस सारी कोशिश में राज्य के मामलों और पाकिस्तान की जनता की स्थिति पर ध्यान देना किसी भी रूप में संभव नहीं रहा। यही वजह है कि पाकिस्तान के बड़े हिस्से की सीधे तौर पर तर्जुमानी मीडिया के हाथों में आ चुकी है जो न सिर्फ वाबस्तगियों का हामिल है बल्कि अब उसकी सफों में मुहिम जुओं की बहुत बड़ी तादाद शामिल हो चुकी है। इसका सबसे स्पष्ट नतीजा ये है कि आज अगर कोई सुप्रीम कोर्ट की तरफ नज़रें जमाये बैठा है कि वो सरकार को उठाकर बाहर फेंक दे तो किसी की नजरें जी.एच.क्यू. की तरफ लगी हुई हैं जो आमतौर पर ऐसे में हरकत में आता है और पाकिस्तान की एक नई दिशा की तरफ सफ़र शुरू कर देता है।
हाल ही में लिखी "पंजाबी तालिबान" सहित नौ पुस्तकों के लेखक, मुजाहिद हुसैन अब न्यु एज इस्लाम के लिए एक नियमित स्तंभ लिखेंगेَ। वो लगभग दो दशकों से इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट के तौर पर मशहूर अखबारों में लिख रहे हैं। उनके लेख पाकिस्तान के राजनीतिक और सामाजिक अस्तित्व, एक देश के इसकी शुरुआत के कम समय गुजरने के बाद से ही मुश्किल दौर से गुजरने से सम्बंधित क्षेत्र को व्यापक रुप से शामिल करते है। हाल के वर्षों में स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक आतंकवाद और सुरक्षा से संबंधित मुद्दे इनके अध्ययन के विशेष क्षेत्र रहे है। मुजाहिद हुसैन के पाकिस्तान और विदेशों के संजीदा हल्कों में काफी पाठक हैं। स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग की सोच में विश्वास रखने वाले लेखक मुजाहिद हुसैन, बड़े पैमाने पर तब्कों, देशों और इंसानियत को पेश चुनौतियों का ईमानदाराना तौर पर विश्लेषण पेश करते हैं।
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