मुजाहिद हुसैन, न्यु एज इस्लाम
1 मार्च, 2013
जून, 2009 की 13 तारीख को पाकिस्तान के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार द न्यूज़ में तहरीके तालिबान की तरफ से मुस्लिम खान के दस्तख़त के साथ एक ख़तनुमा इश्तेहार (विज्ञापन) प्रकाशित हुआ जिसमें पाकिस्तान के शिया लोगों को कहा गया था कि वो एक महीने के भीतर अपनी नास्तिक मान्यताओं को छोड़ दें अन्यथा शिया मर्दों को क़त्ल, उनकी बीवियों को लौंडिया और बच्चों को ग़ुलाम बना लिया जाएगा। इस घृणा से भरे पत्र की सामग्री से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि तालिबान किस प्रकार के मुसलमान हैं और धर्म के बारे में उनके ज्ञान का स्तर कितना निम्न है। पूरे देश में से एक आवाज़ भी इस खौफनाक पत्र की निंदा में नहीं उठी। न्यायपालिका सहित पूरे देश के बुद्धिजीवियों को सांप सूंघ गया और अगले दिन ये खत 'पुराना' हो गया। न्यायपालिका और मीडिया के उपदेशक और शानदार किरदार डर या पारंपरिक पूर्वाग्रह के नीचे दब गए और यूँ पूरे पाकिस्तान ने देख लिया कि दुनिया में न्याय और समानता का ढिंढोरा पीटने वाले ज़बरदस्त मुसलमान एक दूसरे मकतबे फिक्र (पंथ) के बारे में खुली चेतावनी को नज़रअंदाज़ कर गए। अब इस खत में दर्ज धमकियाँ अपना रंग दिखा रही हैं और बलूचिस्तान में खून की होली खेली जा रही है। कराची पहले ही सांप्रदायिक टार्गेट किलिंग का शिकार है और पंजाब में भी शिया मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है।
पाकिस्तान में सांप्रदायिक तत्वों को तीन दशकों में ताक़त और दोलत प्रदान की गयी है और उन्हें कश्मीर में भारतीय सेना के खिलाफ हमलों के अलावा अफगानिस्तान में 'रणनीतिक' पहुँच के लिए इस्तेमाल किया गया। इसमें शक नहीं कि पाकिस्तानी सेना को अलकायदा, तालिबान और पाकिस्तान के साम्प्रदायिक तत्वों के गठजोड़ के खिलाफ युद्ध में सबसे ज़्यादा नुकसान का सामना करना पड़ा है लेकिन इसमें भी शक नहीं कि इस युद्ध में शामिल होने का फैसला करने वालों के साथ पूरी सेना नहीं खड़ी थी। बाद में मालूम होने लगा कि हालांकि अनुशासन के लिए प्रतिबद्ध सेना को अपने उच्च नेतृत्व का आदेश स्वीकार करना पड़ता है लेकिन ज़रूरी नहीं कि सभी ऐसे आदेशों के सामने सिर झुका दें। मुशर्रफ पर दो क़ातिलाना हमले हुए जिसमें दर्जनों लोग मारे गए और हमलावरों को मदद सेना के अंदर से उपलब्ध कराई गई। अब इन पूर्व सैन्य अभियुक्तों को सज़ाएँ दी जा रही हैं। महरान हमले से लेकर कामरा बेस हमले और आईएसआई के लाहौर, पेशावर, रावलपिंडी, फ़ैसलाबाद और मुल्तान के कार्यालयों तक पर हमले में सेना के विभिन्न विभागों में मुलाज़िम जुनूनी थे। सेना के कमांडो विंग के पूर्व प्रमुख मेजर जनरल अलवी के क़त्ल में शामिल लोगों की अभी तक फेहरिस्त सामने नहीं आई जबकि जनरल अलवी का लिखा आख़री ख़त ब्रिटेन के एक अख़बार ने प्रकाशित कर दिया जिसमें सेना के प्रमुख ओहदों पर मौजूद लोगों की पहचान की गई थी।
सिर्फ एक टीवी चैनल के एक विवादित एंकर ने पाकिस्तान में सांप्रदायिक हत्याओं के लिए सऊदी अरब को ज़िम्मदार बताया और ईरान को भी थोड़ा सा ज़िम्मेदार ठहरा दिया। बाकी टीवी के बुद्धिजीवी सिवाय दुख और खेद जताने के कुछ भी न कह सके और इस बात पर एकमत दिखे कि एक मुसलमान किसी दूसरे मुसलमान का क़त्ल नहीं कर सकता। लेकिन मामला सिर्फ मुसलमानियत से कहीं आगे जा चुका है क्योंकि जो जमातें इस क़त्ल में व्यस्त हैं वो पूरी तरह से अपने आपको इस्लाम की प्रचारक समझती हैं और पाकिस्तान की जनता के बहुमत को उनके इस्लामी विचार से कोई शिकवा नहीं। कहीं किसी एक भी कोने से ऐसी कोई आवाज़ नहीं उभर पाई कि इस तरह के नरसंहार की सरेआम ज़िम्मेदारी लेने वाली लश्कर झंगवी और पाकिस्तान विशेषकर पंजाब में इनके हमदर्दों और साथियों को सामने लाया जाए। सब जानते हैं कि कई दर्जन शिया लोगों का इकबालिया क़ातिल मलिक इस्हाक़ पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़ और पीपुल्स पार्टी के साथ समान सम्बंध रखता है और अगर उसको पंजाब में राज्य के कानून मंत्री राणा सनाउल्लाह का समर्थन हासिल है तो केंद्र में संघीय गृहमंत्री रहमान मलिक के साथ उसके गहरे ताल्लुकात हैं और कई संघीय और राज्यों के मंत्री और उच्च अधिकारी उसे भत्ता देते हैं। यही स्थिति पाकिस्तान में सक्रिय सिपाहे सहाबा, जैशे मोहम्मद, अंसारुल उम्मा और लश्करे तैयबा के साथ है जो अपने असर वाले इलाक़ों में व्यापारियों और राजनीतिक पार्टियों से संबंध रखने वालों से सुरक्षा प्रदान करने से लेकर नुकसान न पहुंचाने के वादे के बदले आर्थिक सहयोग हासिल करते हैं। ये सब मीडिया की नज़रों में है, लेकिन कोई भी इसका ज़िक्र नहीं करना चाहता। मीडिया मालिकान भी हिंसक धार्मिक और पंथीय संगठनों को भत्ता देते हैं जबकि सैनिक संस्थान उन्हें 'संपत्ति' करार देकर जनता की गर्दनों पर सवार होने की इजाज़त देते हैं। पाकिस्तान में हर बाखबर संस्थान चाहे वो निजी हो या सरकारी ऐसे सभी संगठनों और उनके हत्यारे समूहों को जानते हैं जो पाकिस्तान को खोखला बना रहे हैं लेकिन कभी भी ऐसी कोशिश का हिस्सा नहीं बनते जिसका उद्देश्य पाकिस्तान को धर्म के नाम पर हिंसा से मुक्त करना हो। इसकी स्पष्ट मिसाल पाकिस्तानी सेना का गुप्त मोर्चा आईएसआई है जिसके कश्मीर और अफगानिस्तान सेल में काम करने वाले इन संगठनों को मजबूत बनाने में व्यस्त रहते हैं। बहुत से अनजान लोग ये सवाल करते हैं कि फिर ये हिंसक लोग सेना पर ही क्यों हमला कर देते हैं। इसका जवाब बहुत सीधा और आसान है, जो लोग ऐसे संगठनो को ताकत पहुंचाते हैं वो खुद सेना के राज्य की सामूहिक कल्पना को नहीं मानते और पाकिस्तान की सेना को पश्चिम की पिट्ठू सेना बताते हैं। यही कारण है कि जब सर्विसेज़ में हिज़ुबत तहरीर से जुड़े एजेण्ट ब्रिगेडियर अली सेना के नेतृत्व को निशाना बनाने के लिए सेना के अंदर संपर्क खोजता है तो कामयाब रहता है। जब मुशर्रफ पर हमला करना मकसद हो तो अलकायदा और तालिबान को सेना में दर्जनों लोग तैयार मिलते हैं, जब महरान बेस पर हमले का फैसला किया जाता है तो नौसेना के कई कर्मचारी कतारों में खड़े इंतजार करते नज़र आते हैं।
अगर पाकिस्तान के सर्वसम्मति से संगठित करार दिए गए संगठन में स्थिति इतनी गंभीर है तो दूसरे संस्थानों के बारे में क्या उम्मीद की जा सकती है जहां ऐसे लोगों की बहुत बड़ी संख्या मुलाज़िम है, लेकिन मामूली रिश्वत के बदले नौकरी पर हाज़िर नहीं होती और वेतन और अन्य लाभ प्राप्त करती रहती है? पाकिस्तान को उसके अभियान चलाने वालों ने भरपाई न किया जा सकने वाला नुकसान पहुंचाया है। ये अभियान चलाने वाले जो सेना में, राजनीतिक और धार्मिक संगठनों में, जागीरदारों और सरमायादारों के रूप में राज्य के दूसरे संस्थानों में ताक़त वाले थे और हैं। अब मुल्ला भी एक तीसरी और सेना की ही तरह की संगठित शक्ति के रूप में शामिल है जो कुछ अरब देशों के धार्मिक और साम्प्रदायिक सोच पाकिस्तान में फैलाने के बदले वित्तीय मदद हासिल करते हैं। ये एक ऐसी स्थित है जिसका रूप पाकिस्तान के लिए घातक है और बाहरी दुनिया के लिए खतरनाक संकेत है। अल्पसंख्यक हिंसक चरमपंथियों के दया पर रह रहे हैं जबकि कराची, क्वेटा और पेशावर में आए दिन खून बह रहा है। लेकिन पाकिस्तान में किसी भी प्लेटफार्म पर कोई भी इस बारे में बात करने को तैयार नहीं।
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13 जून, 2009 को अंग्रेज़ी अखबार दी न्यूज़ में प्रकाशित होने वाले खत का लिप्यंतरण
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तहरीके तालिबान पाकिस्तान की जानिब से गैर मुस्लिमों यानि
(फिर्का शिया) के नाम खुला खत
बनाम मस्जिद, इमामबाड़ा जाफरिया कालोनी
को खासतौर पर और मुल्क पाकिस्तान में बसने वाले तमाम काफिरों (शियों) को वाज़ेह तौर पर इस बात से आगाह किया जाता है कि इस मुल्क की सरज़मीन पर बसने वाले ज़्यादातर लोग मुसलमान और इस्लाम के मानने वाले हैं। और गैर मुस्लिम अक़्लियत में हैं। और यहाँ के तमाम मुसलमान फिर्क़े दीने हक़ की पैरवी करते हैं, अलावा काफिरों यानि शियों के जो कि तमाम दुनिया के सामने मज़हबे इस्लाम की आड़ में दीने इस्लाम को नुक़सान पहुँचा रहे हैं और बदनाम कर रहे हैं। लिहाज़ा तमाम काफिरों (शियों) को तहरीक की जानिब से क़ुबूले इस्लाम की दावत दी जाती है और मोतनब्बा किया जाता है कि अगर काफिर (शिया) इस खित्ते में सुकून से रहना चाहते हैं, तो तीन बातों में से एक पर अमल करें।
1- या तो दीने इस्लाम क़ुबूल करें
2- जज़िया दें
3- या फिर हिजरत करें
तीनों अवामिल में से किसी एक को भी क़ुबूल न करने की सूरत में तमाम शियों की इम्लाक जायदाद और इमामबाड़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया जायेगा। काफिरों की औरतों को कनीज़ें बना कर उन से मोता (ज़िना) किया जायेगा। बच्चों को ग़ुलाम बना कर या तो मुसलमान किया जायेगा या बेगार के लिए इस्तेमाल किया जायेगा। अगर काफिरों ने तहरीक की इस तज्वीज़ पर अमल न किया तो काफिरों का खून तहरीक पर वाजिब हो जायेगा, और हर नुकसान के ज़िम्मेदार शिया खुद होंगे।
मिनजानिब-
मुस्लिम खान कमांडर तहरीके तालिबान पाकिस्तान
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हाल ही में लिखी "पंजाबी तालिबान" सहित नौ पुस्तकों के लेखक, मुजाहिद हुसैन अब न्यु एज इस्लाम के लिए एक नियमित स्तंभ लिखते हैं। वो लगभग दो दशकों से इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट के तौर पर मशहूर अखबारों में लिख रहे हैं। उनके लेख पाकिस्तान के राजनीतिक और सामाजिक अस्तित्व, और इसके अपने गठन के फौरन बाद से ही मुश्किल दौर से गुजरने से सम्बंधित क्षेत्रों को व्यापक रुप से शामिल करते हैं। हाल के वर्षों में स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक आतंकवाद और सुरक्षा से संबंधित मुद्दे इनके अध्ययन के विशेष क्षेत्र रहे है। मुजाहिद हुसैन के पाकिस्तान और विदेशों के संजीदा हल्कों में काफी पाठक हैं। स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग की सोच में विश्वास रखने वाले लेखक मुजाहिद हुसैन, बड़े पैमाने पर तब्कों, देशों और इंसानियत को पेश चुनौतियों का ईमानदाराना तौर पर विश्लेषण पेश करते हैं।
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